शुक्रवार, 8 अगस्त 2014

कब रुकेंगे महिलाओं पर बलात्कार और शारीरिक शोषण के अत्याचार?

चक्रव्यूह में घिरी हमारी मातृशक्ति-
आज देश में हमारी मातृशक्ति बलात्कार और अन्य यौन अत्याचारों को लेकर असुरी शक्तियों से बुरी तरह घिरी हुई अनुभव कर रही है। समाज का असमाजिक वर्ग महिला की इज्जत से खेलने की जुगाड़ में रहता है और अवसर पाते ही उसे अंजाम दे देता है। पहले कभी अपवाद स्वरूप होने वाली ये वारदातें अब आए दिन की बात होती जा रही है।
क्या अपना समाज बीमार हो गया है -युगों युगों से यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता' अर्थात जहाँ महिलाओं का मान सम्मान होता है वहां देवता प्रसन्न रहते हैं। ऐसे सुंदर और उच्च मूल्यों वाले देश में महिलाओं पर हो रहे अत्याचार घोर चिंता का विषय है। देश भर में युवतियों के साथ हो रहे बलात्कार और यौन अत्याचारों का दुर्भाग्यपूर्ण सिलसिला रुकने का नाम नहीं ही ले रहा है। आखिर किसकी नजर लग गयी हमारे सुंदर समाज को? किनकी गलतियों का नतीजा भुगत रही है हमारी माताएं-बहनें? प्रशासन, राजनेता और समाजशास्त्री इस समस्या का हल खोजने के लिए  दिमागी घोडे जरुर दौड़ा रहे हैं, प्रशासन अपने स्तर पर कुछ कदम भी उठा रहा है लेकिन स्थिति कमोवेश यही है- मर्ज बढ़ता ही गया ज्यूँ ज्यूँ दवा की। आखिर अपनी बहिन -बेटियां कब तक अपने व् परायों के हाथों अपनी इज्जत खोती रहेंगी? क्या हो गया है अपने देश को? जहाँ अपनी अपनी धर्म पत्नी को छोड़ कर दुनिया की सब औरतों को माता माना गया है वहाँ यह सब क्या हो रहा है? पिछले कुछ महीनों से तो इन दुर्घटनाओं की बाढ़ ही आ गयी लगती है। हालात ये हो गये हैं कि चार साल की बच्ची से ले कर अस्सी साल तक की बुढ़िया कोई भी सुरक्षित नहीं है। इसके साथ ही एक पहलु और ध्यान देने योग्य है कि इस घिनोनी हरकत को अंजाम देने वाले 14 साल  के बच्चे से लेकर 70 साल तक की आयु वर्ग के पुरुष हैं। इन दुर्घटनाओं का दूसरा कष्टदायक पहलु गिरोह बना कर ऐसे कुकृत्य को अंजाम देना अर्थात सामूहिक दुष्कर्म है। इसके अलावा महिला पर दुष्कर्म से पहले और बाद में अन्य शारीरिक अत्याचार दिल दहला देते हैं। ऐसे दुष्कृत्य को अंजाम देने वाले ये  लोग आज समाज के लिए गम्भीर चुनौती बन गये हैं। गिरोह में ऐसे दुष्कृत्यों को अंजाम देने वाले ऐसे लोग स्वभावत: कायर होते हैं। ओरत का अकेले सामना करने हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं। क्यूंकि उन्हें पता होता है कि यहाँ वे उन्नीस ही पड़ेंगे। समूह में निर्दयी भेडिये बन मानवता की सारी सीमाएं पार कर जाते हैं। इनकी पशुता का परिणाम दुष्कर्म के बाद महिला की निर्दयतापूर्वक हत्या है। क्या अपना समाज बीमार हो गया है? स्वस्थ समाज तो ऐसा व्यवहार नहीं कर सकता।
महिलाओं पर आए संकट पर गम्भीरता जरूरी--
हम यह नहीं भूल सकते कि हमारे यहाँ के जीवन मूल्य ही हमारी असली ताकत हैं। ये वही धरती है जहाँ एक महिला के मान -अपमान को लेकर राम रावण का भीषण युद्ध और विश्व का सबसे बड़ा महासंग्राम महाभारत लड़ा गया था। इसके आलावा हमे नई पीढ़ी को याद् दिलाना होगा कि यही धरती है जहाँ अत्याचारों की अति हो जाने पर हाथ में तलवार लिए दुर्गा, काली या फिर आधुनिक समय में रानी झाँसी शत्रु का संहार  करने स्वयं ही कूद पडती हैं। हमारी बहिने हंसती हुई जैसे शांत, नाजुक, प्यार में अपना सर्वश्व न्योछावर करने वाली और सबका कल्याण चाहने वाली होती हैं संकट आने पर फिर उतनी ही कठोर और निर्दयी हो जाती हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि महिला से प्यार या युद्ध दोनों में ही जीत पाना कठिन ही नहीं बल्कि असंभव् जैसा है। एक असहाय महिला की चीख पूरे ब्रह्मांड में तूफान ला सकती है। आज की भयंकर दुर्घटनाएं अच्छों अच्छों का दिल हिला देती हैं। कई बार तो लगता है कि ऐसे कृत्यों को अंजाम देने वाले कम से कम मानव तो नहीं हो सकते। ऐसे मानव शरीर में विचरण करने वाले राक्षसों को सख्ती से कुचलना होना।
महिलाओं को भी विचार करना होगा-
आज के नारीवादी युग में यद्यपि यह कहना संकट मोल लेना है तो भी हमे यह स्वीकार करना होगा कि कुछ आत्म निरीक्षण और परहेजों पर हमारी बहिनों को भी विचार करना होगा। ये ठीक है कि कोई बात समाज इन पर जबरदस्ती न थोंपे लेकिन विद्वान महिलाएं स्वयं आगे आ कर अपने लिए और नई पीढ़ी की लडकियों के लिए कुछ करनीय और अकरणीय का विचार करें। अभी संसद में एक माननीय सांसद ने महिलाओं को गरिमामय कपड़े पहनने चाहिए ऐसा कह कर मानो शहद के छते को ही हाथ डाल लिया। लेकिन क्या आधुनिकता के नाम पर नंगापन उचित ठहराया जा सकता है ? देर रात तक क्लबों में जाना, पुरुष बराबरी के उत्साह में शराब तक गटक जाना, लिव इन रीलेशन में सालों साल तक एक छत के नीचे एक साथ रहना ये कुछ ऐसे साहसिक! कार्य हैं जिन्हें नारी स्वतंत्रता और समान अधिकार के तर्क और क़ानूनी दृष्टि से बेशक आपको कोई नहीं रोक सकता लेकिन सांस्कृतिक और व्यवहारिक दृष्टि से इन बातों से जितना बच सकें उतना अच्छा ही है। प्राप्त जानकारी के अनुसार अधिकांश बलात्कार लिव इन रिलेशन में रहे या जिनके साथ कभी इकठे मौजमस्ती की होती है उन्हीं के द्वारा होते हैं। इसका अर्थ ये कतई नहीं है कि क्लब जाने वाली, नशा करने वाली या लिव इन रिलेशन में रहने वाली किसी महिला से ये सब होना जायज है। उन्हें भी सुरक्षित व् सम्मानजनक जीवन का अधिकार है। लेकिन हमें प्रकृति के नियम को स्वीकार करना ही होगा की महिला और पुरुष में प्राकृतिक शारिरिक आकर्षण रहता ही है। जब महिला जाने अनजाने अपने हाव भाव से, कम कपड़ों से समाज में विचरण करती है तो पुरुष उसकी ओर आकर्षित हुए बिना नहीं रहते। संस्कारों की मजबूत पकड़, क़ानूनी डर या सामाजिक प्रतिष्ठा के चलते वे स्वयं पर नियन्त्रण कर लेते हों तो भी उनकी ओर खींचते तो हैं ही।  कालेज के समय एक कल्चरल कार्यक्रम ( संस्कृतिक नहीं) में मंच से नायिका बड़े गर्व से हजारों लोगों को सुना रही थी। एक रात कार्यक्रम के बाद मैंने एक पुलिसमैन को कहा -' कुछ गुंडे मेरे पीछे पड़ गये हैं । कृपया आप सुरक्षा करें।' उस सिपाही ने थोड़ी देर मुझे घूरते हुए कहा , ' मेम! मैं वर्दी में न होता तो मैं भी उनके साथ ही होता।' अब आप क्या कहेंगे? लगातार कम होते कपड़े, अपने पुरुष साथी पर अत्यधिक विश्वास और आधुनिकता के नाम पर जरूरत से ज्यादा खुलापन भी इस तरह की दुर्घटनाओं की नीव डाल जाता है।
उपरोक्त सावधानी के साथ साथ ही आत्मसुरक्षा की दृष्टि से लडकियों को कराटे आदि में भी निपुण होना पड़ेगा। उन्हें संसार के इस सत्य को याद रखना होगा कि लातों के भूत बातों से नहीं मानते। ब्यूटी पार्लर में लगने वाले समय का कुछ हिस्सा कराटे सीखने में भी लगाना चाहिए ताकि संकट आने पर आत्म रक्षा में इस कला का प्रयोग किया जा सकें। संकट न भी आए तो भी कराटे का लाभ स्वास्थ्य को तो मिलेगा ही। सुन्दरता की साधना के साथ-साथ स्वस्थ शरीर का होना सोने पर सुहागा ही होगा। इतना ही नहीं तो कराटे के डर से आगे सास या पति भी थोडा सम्भल कर व्यवहार करेंगे। खैर यह तो विषय को हल्का करने के लिए है। वास्तव में परिस्थिति की मांग है कि महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों का यह सिलसिला तुरंत रुकना चाहिए। हमे अपने लडकों को महिला की इज्जत करनी सिखानी होगी। संयोंग ही है कि संस्कार देने का यह कार्य भी महिला ही सफलतापूर्वक कर सकती है। समाज और राष्ट्र न भी हो तो कम से कम अपने आत्मसम्मान और सुरक्षा के लिए ही सही महिलाओं को यह कार्य करना ही होगा। बहुत महिलाएं यह कार्य करती भी हैं शेष को इस मोर्चे पर डटना होगा। अगर संस्कार देने के इस महत्वपूर्ण कार्य  में हमारी बहने चूकती हैं तो फिर नई पीढ़ी की उदंडता के लिए गिला और शिकवा किससे और क्यूँ? जैसा बोयेंगे वैसा ही तो काटना पड़ेगा। इस सबके बाबजूद हमें विचार करना होगा कि समाज का सबसे महत्वपूर्ण और संख्या की दृष्टि से ठीक आधा भाग अर्थात हमारा महिला जगत जब तक अपमानित, दु;खी या डर में जियेगा तब तक हम स्वस्थ, सुखी और प्रसन्न समाज की आशा कैसे कर सकते हैं?

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