बुधवार, 18 मार्च 2015

सच्चाई से कोसों दूर है वरिष्ठ पुलिस अधिकारी रिबेरियो की बेचैनी

पंजाब के पूर्व पुलिस प्रमुख 86 वर्षीय श्री रॉबर्ट रिबरियो की खीज, घबराहट और निराशाभरे वक्तव्य की ओर देश का ध्यान जाना स्वाभाविक है। लेकिन उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत जी, प्रधानमन्त्री श्री मोदी और हिन्दुत्व को कठघरे में खड़ा करने का जो प्रयास किया है उससे उनकी अपनी छवि को धक्का जरूर लगा है। पंजाब में आतंकवाद के विरुद्ध लोहा लेकर देशवासियों की जो श्रद्धा और सम्मान रिबेरियो के प्रति है ऐसे बयानों से मिटटी होता जाएगा। लोगों के मन में प्रश्न आ रहा है कि क्या आतंकवाद के समय पुलिस का नेतृत्व कर  उन्होंने देश के प्रति अपना कर्तव्य निभाया था या  कोई एहसान किया था? उन्हें याद होगा कि पंजाब में आतन्कवाद के विरुद्ध लोहा पुलिस अधिकारी रिबेरियो ने लिया था न कि ईसाई प्रचारक रिबेरियो ने। और देश की श्रद्धा भी पुलिस अधिकारी रिबेरियो के प्रति है ईसाई रिबेरियो के प्रति नहीं। भारत में सेना और पुलिस में जाति, धर्म नहीं बल्कि व्यक्ति की देशभक्ति और कर्मठता ही सोचने और व्यवहार करने का प्रमुख आधार होता है। आश्चर्य है कि पुलिस अधिकारी रिबेरियो के ऊपर इस उम्र में ईसाई रिबेरियो कैसे हावी हो गया?
काल्पनिक सवाल और आशंकाएं-
रॉबर्ट रिबेरियो द्वारा उठाए गए काल्पनिक सवालों और आशंकाओं से वे पुलिस अधिकारी से ज्यादा ईसाई मिशनरी अधिक लग रहे हैं। क्या इस पुलिस अधिकारी पर उम्र हावी हो रही है? बुढ़ापे में धार्मिक होना, अपने धर्म के प्रति ज्यादा  निष्ठावान होना अच्छी बात है लेकिन सच्चाई का दामन छोड़ देना तो ठीक नहीं। क्या ईसाई मिशनरी और अंतर्राष्ट्रीय शक्तियां उभरते भारत के विजय रथ को रोकने के लिए, दुनिया में सरकार और देश की छबि खराब करने के लिए इस पुलिस अधिकारी को प्रयोग करने में सफल हो गयी हैं? रिबेरियो का यह कहना कि मैं अब भारतीय नहीं रह गया हूँ कम से कम उन लोगों के लिए तो कदापि नहीं, जो हिन्दू राष्ट्र के पक्षधर  हैं...प्रश्न उठ रहा है कि रिबेरियो साहिब को अपने बारे अचानक यह आशंका क्यों हो रही है? क्या किसी ने रिबेरियो को कुछ कहा है? अगर ये महाशय देश में ईसाई मिशनरियों के विरुद्ध दिख रहे गुस्से को अपना व्यक्तिगत विरोध मान रहे हों तो इन्हें स्वामी विवेकानन्द ने ईसाई मिशनरियों के सम्बद्ध में जो कहा था, उसे याद करना ठीक होगा- हिन्द महासागर में जितना कीचड़ है अगर सारे भारतवासी मिलकर उस कीचड़ को ईसाईयों पर फैंकने लगें तो भी यह उस अन्याय जो ईसाईयों ने भारत के साथ किया है, का शतांश भी बदला नहीं होगा। जहां तक हिन्दू राष्ट्र की बात है तो रिबेरियो साहिब जरूर जानते होंगे कि भारत ही है जहां ईसाई और इस्लाम ही नहीं तो पारसी जैसे नगण्य समाज भी पूरा मान-सम्मान और सुविधाएँ प्राप्त कर रहे हैं, इतना ही नहीं तो बहुसंख्यक समाज से कहीं ज्यादा तो यह हिन्दू भाव के कारण ही है। नहीं तो पाक, बंग्लादेश और अरब देशों में अल्पसंख्यकों की स्थिति क्या है, सारी दुनिया जानती ही है। इसलिए किसी को हिन्दू राष्ट्र से एलर्जी का कोई कारण नहीं होना चाहिए। रिबेरियो साहिब, भारत के बड़े दिल का और क्या प्रमाण चाहते हैं कि ईसाई, मुसलमानों का अत्याचार भरा अतीत आदि सब कुछ भूल कर भारत फिर भी ईसाई और मुसलमानों को गले से लगा रहा है। फिर भी ईसाई और मुसलमान अगर भारत में खुश नहीं तो किसी ने ठीक ही कहा है-
हम बाबफा थे इसलिए गिर गए तुम्हारी निगाहों से
तुम्हे शायद किसी बेबफा की तलाश थी।।
बड़पन्न भारत का या ईसाई मुसलमानों का?
रिबेरियो लिखते हैं कि पुलिस प्रमुख, सेना अध्यक्ष और वायुसेना प्रमुख आदि ईसाई रह चुके हैं। तब किसी ने उनकी निष्ठा को लेकर सवाल नहीं उठाये और अब....! महोदय, सवाल तो अब भी कोई नहीं उठा रहा है। ऐसे प्रश्न खड़े कर, सेना और पुलिस अधिकारीयों को धर्म के तराजू में खड़े कर सवालों को जन्म तो आप खुद दे रहे हैं। अगर आपकी नहर से देखें तो ईसाई या मुसलमानों के कड़वे अतीत के बाबजूद इतने बड़े पदों के लिए देश आप पर भरोसा करता है तो इसमें बड़पन्न किसका है? दुनिया में कोई देश बता दो जहां अल्पसंख्यकों को सर्वोच्च पदों पर बिना किसी भेदभाव के बैठाया जाता हो। इतना सब होने पर भी भारत के अहसानमन्द होने के बजाए भारत की मंशा पर सवाल उठाना कौन सी मानसिकता का सूचक है?
ईसाई मिशनरियों की मासूमियत के क्या कहने?  रिबेरियो कहते हैं कि ईसाई समाज बहुत ही शांतिप्रिय और छोटा समाज है। पुलिस अधिकारी रह चुके रिबेरियो अगर यह कहते हैं तो जरूर दाल में बहुत कुछ काला लगता है। इनको अगर इनकी भाषा में ही समझाने की कोशिश करें तो- न्यायमूर्ति वेणुगोपाल आयोग अपनी रिपोर्ट में  लिखते हैं- 1982 में तमिलनाडु के कन्याकुमारी जिले में हुए भीषण दंगों के लिए ईसाई पादरियों द्वारा किया जा रहा धर्मान्तरण ही मुख्य कारण है। आयोग ने सुझाव दिया कि मतांतरण को प्रतिबन्धित करने के लिए शीघ्र केंद्रीय कानून बनाया जाए। नागालैंड के राज्यपाल ओ पी शर्मा (4 फरबरी 1994)  Nationalist Socialist Council of Nagaland को world council के 17 चर्चों से धन मिलता है। रिबेरियो साहिब आपने नियोगी कमीशन की केंद्र सरकार को दी सिफारिशें जरूर पढ़ी होंगी। नहीं तो ईसाई मिशनरियों के चेहरे से सेवा और मासूमियत का नकाब उतारने के लिए जरूर पढ़ लें। ईसाई और इस्लाम की शक्तियों को लेकर संघ प्रमुख गोलवलकर, सुदर्शन या भागवत न सही, महात्मा गांधी, वीर सावरकर, स्वामी विवेकानन्द, स्वामी दयानंद जैसे महापुरुषों ने देश को किन शब्दों में सावधान किया है जरूर याद करना चाहिए।
आतंकवाद के पीछे चर्च?
पंजाब और पर्वोत्तर भारत में आतँकवाद के पीछे भारत और दुनिया के चर्च सक्रिय रहे हैं और अभी भी हैं, यह पुलिस अधिकारी के रूप में रिबेरियो से ज्यादा कौन जनता है? क्या रिबेरियो साहिब नहीं जानते हैं कि ईसाईयत के प्रचार के नाम पर इस समय भारत में प्रमुख विदेश संस्थाएं सक्रिय हैं? अरबों रूपये विदेशों से इसी काम के लिए आते हैं? अगर नाम ही गिनाने हों तो - बर्ल्ड विजन, वर्ल्ड रीच, यूनिसेफ, केथोलक बिशप कान्फ्रेन्स ऑफ़ इंडिया, इंडिया बाईबल लिटरेचर, हेल्पेज इंडिया क्राई,तथा समाधान आदि आदि। जहां तक इनके भोलेपन का सवाल है तो फ़िल्मी गीत की पंक्तियाँ याद आती हैं -
भोलापन तेरा खा गया मुझको.... केवल इतिहास का एक उदाहरण ही काफी है-1541में जेवियर नाम के ईसाई विजेता ने लाखों हिंदुओं को बलात् ईसाई बनाया। हिन्दू मन्दिरों को तोड़ कर चर्च बनाए गए। हिन्दू विधि से विवाह, यगोपवीत संस्कार अवैध घोषित कर दिए। सिर पर चोटी, घर के बाहर तुलसी का पौधा पर भारी दण्ड था। इसी समय ईसाई अधिकारियों को हिन्दू महिलाओं से बलात्कार करने का अधिकार प्राप्त था। जिन हिन्दू महिलाओं ने विरोध किया, उन्हें पकड़ कर जेलों में डाल कर अपनी काम वासना पूरी कर हेरेटिक्स अर्थात ईसाई मत के प्रति अविश्वासी घोषित कर जिन्दा जला दिया। (दा गोआ- इन्विजिशन - प्रयोलकर) क्या ये केवल अतीत की बातें हैं? काश! ये सच होता? आज भी देश में ईसाई मिशनरी भोले भाले गरीब हिन्दुओं का किस चालाकी से धर्मान्तरण कर रहे हैं, सारा पूर्वोत्तर ही नहीं तो देश के अनेक राज्यों सहित अब तो पंजाब भी चीख चीख कर अपनी बेदना कहता सुना जा सकता है। भोले-भाले मासूम स्कूली बच्चों के दिल में ईसा की महानता बैठाने के लिए भगवान राम, कृष्ण के नाम से बस को धक्का लगवाना और न चलने पर ईसा का नाम लेकर बस चला देना, भगवान राम, कृष्ण की लोहे की मूर्ति को पानी में डूबने देना और ईसा की लकड़ी की मूर्ति को तेरा कर बच्चों के सामने सिद्ध कर देना कि ईसा ही उन्हें भवसागर में तैरा कर पर लगा सकते हैं। ऐसे और कितने ही चालाकी भरे कृत्य मिशनरी करते हैं कि स्वर्ग में बैठे ईसा भी शरमा रहे होंगे। रिबेरियो साहिब ठीक कहते हैं कि ईसाई लोगों ने शिक्षा, चिकित्सा में बहुत योगदान दिया है यह बात भारत भी स्वीकार करता है, इसके लिए इन्हें धन्यवाद भी देता है, लेकिन इन सेवा संस्थानों और कार्यों की आड़ में कितना धर्मान्तरण हुआ है जब इसका विचार करते हैं तो इन ईसा के दूतों की सज्जनता, भोलेपन और सेवाभाव का सारा नकाब उतर जाता है। क्या रिबेरियो साहिब एक सवाल का जबाब देश को देंगे? देश के उन्हीं हिस्सों में अलगावाद, आतँकवाद, देश के बिरुद्ध गाली-गोली की बात क्यों सुनाई देती हैं जहां ईसाई या मुसलमान अधिक संख्या में होते हैं? जम्मूकश्मीर से लेकर नागालैंड, मिजोरम, मेघालय, त्रिपुरा, मणिपुर, बंगाल आसम और अरुणाचल आदि राज्य इसका सीधा प्रमाण हैं।
संघ को कितना जानते हैं रिबेरियो?
अपनी धुन में रिबेरियो प्रधानमन्त्री श्री मोदी के साथ ही संघ और संघ प्रमुख मोहन भागवत को भी लपेट गए। क्या रिबेरियो संघ को जानते हैं? संघ की देशभक्ति की दाद तो संघ के कट्टर विरोधी भी देते रहे हैं। संघ की देशभक्ति सेना या पुलिस से किसी भी अर्थ में कम नहीं है फर्क केवल इतना है की सेना और पुलिस में सेवा के बदले वेतन मिलता है जबकि संघ में घर फूँक तमाशा देखना होता है। लगता है संघ पर प्रश्न उठा कर उन्होंने अपनी अज्ञानता और खीज का ही परिचय दिया है। उन्होंने मदर टेरसा को लेकर मोहन भागवत के जिस वक्तव्य की बात की है क्या वे जानते हैं कि यह बात मोहान भागवत ने नहीं, बल्कि कार्यक्रम के अध्यक्ष ने कही थी। मोहन भागवत ने तो कहा कि मदर टेरसा क्या थी और उनके उद्देशय क्या थे हम नहीं जानते हम तो केवल अपना बता सकते हैं कि हम गरीबों की शुद्ध सेवा भाव से करते हैं। पुलिस अधिकारी रह चुके रिबेरियो ने भी तथ्यों की जाँच पड़ताल किए बगैर ही संघ के बिरुद्ध मोर्चा खोल दिया तो क्या कहा जा सकता है? हालाँकि मदर टेरसा को लेकर अब कोई भ्रम नहीं रहा है। स्वयं उन्होंने कई जगह अपने सारे सेवा कार्यों के पीछ का उद्देशय शुद्ध धर्म परिवर्तन बताया है। अगर सेवा ही उद्देशय था तो क्या ईसाई देशों में गरीबी, भेदभाव समाप्त हो चुका था जो वह भारत में आ डटी? हम मदर टेरसा की इज्जत करते हैं, जो उन्होंने सेवा कार्य किए उसके लिए हृदय से धन्यवाद भी करते हैं लेकिन इस सबके बाबजूद सच्चाई से पीछे भागना कहां तक ठीक है? रिबेरियो साहिब जरूर जानते होंगे कि अपने सेवा कार्यों और मासूमियत के बल पर ईसाईयत देशों के देश निगल गयी। मात्र 2000 सालों में 100 से ज्यादा देश ईसाई हो चुके हैं। क्या यह केवल ईसाईयत की महानता के कारण हुआ या धोखा, धक्का इसके पीछे का  मूल कारण है? अफ़्रीकी देश केन्या के राष्ट्रपति की बेदना सुनें- जब ईसाई मिशनरी इस देश में आए तो अफ्रीकियों के पास जमीन थी और मिशनरियों के पास बाईबल। उन्होंने हमें आँख बन्द करके प्रार्थना करना सिखाया जब हमने ऑंखें खोली तो देखा कि उनके पास जमीन है और हमारे पास बाईबल! संघ को ईसाईयत या इस्लाम से कोई समस्या नहीं है। देशवासी ईसा और मुहम्मद का सम्मान सब करते हैं। भारत में सबकी पूजा पद्धति, मत मतांतर का सम्मान करने की परम्परा है। गोआ में सबसे पहले आए ईसाई पादरियों और इस्लाम के अनुयायियों को चर्च और मस्जिदें हमने स्वयं बना कर दी हैं। लेकिन देश का युवा जानना चाह रहा है हमे हमारी इस उदारता का क्या सिला मिला? पंजाबी गीत की पंक्तियाँ यहां सटीक बैठती हैं-
अच्छा सिला दिया तूने मेरे प्यार का!
यार ने ही लूट लिया घर यार का!!
संघ देश को सावधान और यह सुनिश्चित करने की कोशिश करता रहता है कि ईसाईयत और इस्लाम मजहब के नाते स्वीकार्य स्वीकार्य हैं लेकिन इनकी आड़ में देश विरोधी तत्वों या शक्तियों को पनपने न दें। संघ का कोई अपराध है तो बस इतना ही है। अगर अन्य देशवासियों के साथ-2 ईसाई व् इस्लाम के बन्धुओं से देशभक्ति की अपेक्षा करना अपराध है तो हमारा तो यही कहना है-
वो कौन हैं जिन्हें तौबा को मिल गयी फुर्सत।
हमें तो गुनाह करने को भी जिंदगी कम है।।
अब अपने आप को देशबाह्य शक्तियों से दूर रखना, देश की मिटटी से जुड़े रहना ये जिम्मेदारी ईसाई और इस्लाम नेतृत्व की भी है। किसी को पसन्द आए या नहीं लेकिन भविष्य के भारत में सम्मान और विश्वास प्राप्त करने के लिए यह पूर्व शर्त जरूर है।



रविवार, 15 मार्च 2015

समाज मन्थन का कुम्भ है संघ की प्रतिनिधि सभा की बैठक

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की वार्षिक बैठक इस वर्ष मार्च13 से 15 तक नागपुर में सम्पन्न हुई। संघ की नीति निर्धारक इस सर्वोच्च सभा की बैठक देश विदेश में सबके लिए उत्सुकता का विषय रहती है। संघ का चुनाव वर्ष होने के कारण इस बार यह उत्सुकता और रोमांच थोडा ज्यादा ही दिख रहा था। मीडिया ने तो अपनी सीमा पार करते हुए कल्पना के घोड़े दौड़ाते हुए संघ की नई कार्यकारिणी का गठन भी कर दिया था। लेकिन संघ की कार्यकारिणी को देख कर उन्हें थोड़ी निराशा जरूर हुई होगी। एक हजार से अधिक प्रतिनिधि देश की वर्तमान परिस्थितियों, चुनोतियों, कार्यविस्तार तथा संगठन के अनेक पहलुओं पर विचार विमर्श करने के लिए तीन दिन डटे रहे। इस प्रतिनिधि सभा में संघ के नेतृत्व के अतिरिक्त संघ प्रेरणा से चल रहे संगठनों की अखिल भारतीय टोली इस बैठक में रहती है।
संविधान का अक्षरशः पालन होता है संघ में-
           राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने आप में अदभुत संगठन है। वर्तमान में राजनैतिक दलों में सांगठनिक चुनावों में मचती भागदौड़ व उठापटक और अपना वर्चस्व कायम रखने की तिकड़मबाजी सर्वदूर देखी जा सकती है। इतना ही नहीं तो आज जब इस जोड़तोड़ की बीमारी के वायरस की लपेट में आने से बहुत कम सामाजिक व् धार्मिक संगठन बच पाएं हैं ऐसे में संघ संगठन में चुनाव सौहार्दपूर्ण वातावरण में शांतिपूर्वक हो जाना अधिकांश लोगों की समझ से परे है। वास्तव में संघ को समझने के लिए संघ का चश्मा जरूरी है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ एक पारिवारिक संगठन है और इसे इसी नजरिये से देखेंगे तो आसानी से सब कुछ समझ आ जायेगा। प्रसन्नता की बात है कि संघ आज भी  विशुद्ध परिवार भावना से कार्य करता है। इसी कारण यहां चुनाव के समय टांग खिंचाई का सब जगह दिखने वाला चुनावी परिदृश्य गायब रहता है। शायद कम लोगों को पता होगा कि संघ में पहले तो लिखित संविधान भी नहीं था। संघ का मानना है कि परिवार में कोई लिखित संविधान न होने के बाद भी हमारे देश में लाखों वर्षों से परम्परा से परिवार चलते आए हैं। इसी आधार पर सामाजिक संगठन क्यों नहीं चल सकते? यहां अधिकारी मतलब अधिक काम करने वाला और अधिक कष्ट उठाने वाला होता है। संघ में पद से नहीं अपने व्यवहार से सम्मान प्राप्त करना होता है। ऐसे में पद की होड़ सिर पैर रख कर गायब नहीं होगी तो क्या होगा? संघ की इस अदभुत कार्यपद्धति का ही परिणाम है कि प्रतिनिधि सभा में आपके आगे पीछे कौन बैठा है? साथ में भोजन कौन कर होता है किसी को पता नहीं चलता। जिनको मिलने के लिए बाहर लोगों में होड़ रहती है यहां वे भी अनाम और साधारण कार्यकर्ता की तरह देखे जा सकते हैं।
संघ संविधान की यात्रा
     संघ स्थापना की प्रक्रिया, नामकरण, व्यक्ति के बजाए गुरु के रूप में भगवा झंडा स्वीकार करना और कोई औपचारिक सदस्यता आदि न रखना अपने आप में लोगों को हैरान करता है। संविधान को लेकर भी कुछ कुछ ऐसा ही है। प्रारम्भ में संघ का कोई संविधान नहीं था।
सन् 1948 में गांधी हत्या के आरोप में संघ से प्रतिबन्ध हटाने के लिए सरकार की लिखित संविधान की जिद के चलते संघ ने लिखित संविधान स्वीकार किया। एकबार संविधान स्वीकार कर लेने पर संघ पूरी श्रद्धा से मनसा, वाचा और कर्मणा अपने संविधान का पालन करता आया है।
क्या है संघ् का संविधान
वैसे तो संविधान संविधान पढ़ कर संघ में आना और कार्य करने वालों की संख्या अपवाद ही होगी। साधारण स्वयंसेवकों को छोड़ भी दें तो जिन्होंने संघ् के लिए जीवन दिया है ऐसे प्रचारक बन्धुओं में से भी कितनों ने ध्यान से पूरा संघ संविधान पढ़ा होगा यह सर्वेक्षण का विषय हो सकता है। मात्र 8/10 पेज का संघ संविधान शायद सबसे छोटा और साधारण होगा। संविधान के अनुसार प्रत्येक प्रतिज्ञा लिया हुआ 5 साल से सक्रिय स्वयंसेवक शाखा प्रतिनिधि के लिए मतदान कर सकता है, प्रत्याशी भी हो सकता है। प्रत्येक 40 सक्रिय प्रतिज्ञत स्वयंसेवकों पर एक शाखा प्रतिनिधि चुना जाता है। ऐसे 50 शाखा प्रतिनिधि एक अखिल भारतीय प्रतिनिधि चुनते हैं। अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा में सभी चुने हुए प्रतिनिधि, प्रान्त व क्षेत्र प्रचारक, कार्यवाह और संघचालक सरकार्यवाह के चुनाव में मतदाता होते हैं। संघ के अभी तक के इतिहास में सरकार्यवाह का चुनाव सर्वसम्मत लेकिन पूरी चुनावी प्रक्रिया पूर्ण कर होता आया है। संघ् की कार्यपद्धति का ही कमाल है कि सबको लगता है कि नया सरकार्यवाह जैसे उनकी अपनी ही पसन्द है। चुनाव जिस सौहार्द और हंसी मजाक में पूरा होता है आज के इस राजनैतिक द्वेष के वातावरण में उसके साक्षी बनना देव दुर्लभ अवसर ही कहा जा सकता है। यह चुनाव किसी भी प्रकार से देवलोक में हुए घटनाक्रम से कम नहीं कहा जा सकता। हालाँकि देवलोक में भी ईर्ष्या द्वेष की कई कहानियाँ सुनाई देती हैं लेकिन संघ पर ईश्वर कृपा है कि यह संगठन अपनी स्थापना के नो दशक पूरे करने के बाद भी मनुष्य जीवन की सहज कमियों से बचा हुआ है। इसका अर्थ कुछ विषयों पर मतभेद नहीं होते , यह कहना तो ठीक नहीं लेकिन मतभेद स्वस्थ वातावरण में स्नेह के आधार पर सुलझा लिए जाते हैं। संघ की सफलता के पीछे यह बहुत बड़ा कारण कहा जा सकता है। अभी-अभी हुए चुनाव में उतरी क्षेत्र के संघचालक डॉ. बजरँग लाल गुप्त चुनाव अधिकारी थे। उन्होंने पूरी चुनावी प्रक्रिया सम्पन्न करायी।  एक ही नाम आने के कारण सरकार्यवाह के रूप में भैया जी जोशी जी तीसरी बार पुन: चुने गए। चुनाव के बाद नवनिर्वाचित सरकार्यवाह तीन साल के लिए केंद्रीय कार्यकारिणी चुनते हैं। संगठन में संघचालक और सरकार्यवाह का चुनाव और शेष सभी पदाधिकारियों का चयन होता है।
देश समाज की परिस्थितियों का होता है गहन विश्लेषण
प्रतिनिधि सभा में सम्पूर्ण देश की परिस्थितियों का बारीक़ विश्लेषण होता है। समाज, सरकार  और स्वयंसेवकों को दिशा देने के लिए कुछ प्रस्ताव पास किए जाते हैं। संगठन कार्य की गति- प्रगति, दिशा और दशा आदि सब विषयों पर चिंतन- मनन होता है। संघ् कार्य में देशभर में हुए नए प्रयोगों का वर्णन सबके सामने रखा जाता है। इस वर्ष संघ कार्य में सन्तोषजनक वृद्धि दर्ज की गयी। पहली बार 50 हजार  से ज्यादा शाखाएं हुई हैं। अगले वर्ष एक लाख गांवों तक पहुंचने का लक्ष्य तय किया गया। संघ प्रेरणा से चल रहे विविध संगठनों के कार्य का संक्षिप्त वृत्त भी रखा जाता है। हर एक संगठन अपने आप में पूर्ण सृष्टि लगता है। समय आभाव में बड़े बड़े संगठनों को भी तीन चार मिनट में ही अपनी बात कहने के लिए मिल पाते हैं। सब कुछ सुनकर लगता है कि संघ संगठन का यह जगन्नाथ रूपी रथ भारत को विश्वगुरु के पद आरूढ़ किये बिना कैसे रुक सकता है? संगठन कार्य और समाज की नवीन रचना के लिए कैसे कैसे लोग, कितना त्याग और बलिदान कर रहे हैं, सुन कर रोमांच होता है। इस वर्ष दो विषयों पर प्रस्ताव पास किये गए। पहले प्रस्ताव में कम से कम प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में हो इसके सरकार तथा अभिभावकों का आवाहन किया गया तथा दूसरे प्रस्ताव में 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योगदिवस स्वीकार कराने के लिए सरकार, सरकारी अधिकारीयों के परिश्रम के लिए तथा यू एन सबका धन्यवाद किया गया। इसके साथ ही स्वयंसेवकों तथा समाज को योगदिवस को जन-जन का आंदोलन बनाने का आवाहन किया गया। प्रतिनिधि सभा के आखिर में सरसंघचालक जी के पाथेय ने सभी प्रतिनिधि नए जोश और उत्साह के साथ अपने अपने कार्यक्षेत्र में वापिस लौटे।

गुरुवार, 12 मार्च 2015

सब समस्याओं का हल वैदिक संस्कृति, वैदिक सभ्यता और वैदिक जीवन में ह


नई दिल्ली. दिल्ली में 21, 22 एवं 23 फरवरी को विश्व की अनेक संस्कृतियों को एक सूत्र में पिरोने का सफल प्रयास हुआ. कई दर्शनशास्त्रों और विचारों का मिलन हुआ. पूरब और पश्चिम को समीप लाने की चेष्टा हुई. साथ ही यह बताया गया गया कि आज विश्व में जिस तरह का मजहबी उन्माद है, पागलपन है, धन-सम्पत्ति को लेकर खींचतान है, उन सबका हल वैदिक संस्कृति, वैदिक सभ्यता और वैदिक जीवन में है.

अवसर था विश्व वेद सम्मेलन का. इसमें विश्व के 40 देशों से वैदिक विद्वान और साधक आए. इनमें 40 प्रतिशत ईसाई, 10 प्रतिशत बौद्ध, 5 प्रतिशत यहूदी, 3 प्रतिशत मुसलमान, 5 प्रतिशत नास्तिक और शेष मानवतावादी थे. वक्ताओं ने वैदिक शिक्षा, वैदिक तकनीक, वैदिक विज्ञान, वैदिक समाज, योग, ध्यान आदि विषयों पर शोधपूर्ण बातें कीं. तीन दिवसीय कार्यक्रम इतना प्रभावी था कि लोग सुबह से शाम तक वेद ज्ञान प्राप्त करते रहे. तीनों दिन अध्यक्ष के आसन पर ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य स्वामी वासुदेवानन्द जी सरस्वती विराजमान रहे और विश्व हिन्दू परिषद् के संरक्षक अशोक सिंहल की गरिमामय उपस्थिति रही. सम्मेलन का आयोजन ‘फाउण्डेशन फॉर वैदिक इण्डिया’ और ‘महर्षि वेदव्यास प्रतिष्ठान’ ने किया था.

सम्मलेन का उद्घाटन 21 फरवरी को शंकराचार्य स्वामी वासुदेवानन्द जी ने दीप प्रज्वलित कर किया. इसके बाद महाराजाधिराज राजाराम प्रो. टोनी नादर (अमरीका) ने अपने बीज भाषण में बताया कि भारत को अपने वेद पर गौरव अनुभव करना चाहिये. हालांकि वेद केवल भारत का नहीं है, यह वैश्विक और प्राकृतिक है. वेद हर किसी के लिये है. वेद विज्ञान है और यह हमारे जीवन से अंधेरा दूर करता है, आनन्द देता है. वेद में मस्तिष्क, विज्ञान और तकनीक का समावेश है. वेद हमें आत्मा की साक्षात् अनुभूति कराता है. वेद के अनुसार जीना ही वेद को अपनाना है. उन्होंने कहा कि वेद में ब्रह्माण्ड की पूरी संरचना मिलती है. वेद ही ब्रह्म है. यह सभ्यता और शान्ति को सन्तुलित करता है. उन्होंने कहा कि हमारे गुरु देव महर्षि महेश योगी ने बताया है कि अक्षर, ध्वनि, तरंग सबमें वेद है. वेद शाश्वत है. वेद ज्ञान का भण्डार है. वेद की ऋचाएं पूरी तरह वैज्ञानिक हैं. वेद में प्रयुक्त ‘विराम’,’अल्पविराम’,’पूर्ण विराम’ आदि से जो ध्वनि निकलती है उसका भी महत्व है. वेद तकनीक का प्रतिनिधत्व करता है. विश्व में ऐसी कोई तकनीक नहीं है, जिसका वर्णन वेद में नहीं है. ऋषि-मुनियों ने जो मार्ग बताया है उसी पर चलकर हम वेद को जान सकते हैं.

अपने आशीवर्चन में शंकराचार्य स्वामी वासुदेवानन्द जी ने कहा कि महर्षि महेश योगी जी ने विदेशों में भारतीय वैदिक परम्परा का जो एक नया स्वरूप स्थापित किया था उसी का विस्तार यहां दिखाई दे रहा है. जो कुछ ब्रह्माण्ड में है वह सब कुछ शरीर में है. इसी को समष्टि और व्यष्टि कहते हैं. समष्टियों को मिलाकर व्यष्टि बनती है. उन्होंने कहा कि वेद किसी धर्म से बंधा नहीं है. चाहे हिन्दू हों, मुस्लिम हों, ईसाई हों, यहूदी हों, बौद्ध हों सबके लिये वेद है. वेद में सबके सुख और कल्याण की कामना की गई है. इसलिए वेद का ज्ञान जन-जन तक पहुंचे. इसका प्रारंभ इस सम्मेलन से हो गया है.

वरिष्ठ भाजपा नेता डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने कहा कि वेद अनन्त ज्ञान का स्रोत है. सारे ज्ञान वेद से आते हैं. आप जितनी बार वेद का अध्ययन करेंगे उतनी बार आपको नया ज्ञान मिलेगा. आधुनिक ज्ञान और आधुनिक विज्ञान को वेद से जोड़ने का आह्वान करते उन्होंने कहा कि वेद इस सृष्टि के साथ आया है. इस पर जितना अधिक शोध होगा उतना ही अधिक अच्छा होगा. जब तक पिण्ड ब्रह्म नहीं बनेगा, तब तक हम वेद को समझ नहीं सकते हैं. योग के द्वारा हम वेद ज्ञान तक पहुंच सकते हैं. उन्होंने कहा कि वेद हमें बताता है कि आत्मा ही ब्रह्म है. हम सब एक ही ब्रह्माण्ड के भाग हैं. यदि यह विचार पूरे विश्व में जाता तो आज जो सीरिया, इराक आदि देशों में लड़ाई-झगड़े हो रहे हैं वे नहीं होते. इसलिए हमें वैदिक ज्ञान को पूरी दुनिया में ले जाना है. वैदिक संस्कृति हमें बताती है कि आपके पास जो कुछ भी है उसे बांटें. सबके हित और कल्याण की चिन्ता करें. पशु, पक्षी, प्रकृति सबके साथ सामंजस्य बनाकर चलें. यदि ऐसा होगा तो निश्चित रूप से यह दुनिया बहुत सुन्दर होगी.

दूसरे सत्र के प्रथम वक्ता और ‘ग्लोबल यूनियन ऑफ साइंटिस्ट फॉर पीस’ के अध्यक्ष डॉ. जॉन हेगल ने कहा कि अपनी संरचना की अनुभूति हम वेद को जानकर ही कर सकते हैं. विश्व को सुन्दर बनाने के लिये वैदिक ज्ञान को जानना जरूरी है. यह ज्ञान हमें परासत्ता की अनुभूति कराता है. वैदिक ज्ञान की जानकारी रखेंगे तो हमें आधुनिक दवाइयों की आवश्यकता नहीं पड़ेगी. यह ज्ञान त्रिदोष को साम्य रखने में मदद करता है. उन्होंने कहा कि आत्मानुभूति से किया गया उपचार वैदिक उपचार है. वैदिक परम्परा हमें आत्माधारित ज्ञान सिखाती है और आत्माधारित शिक्षा देती है. आत्मानुभूति से हमारा कोई शत्रु भी नहीं होगा और कुछ कारण वश होगा भी तो वह स्वयं ही समाप्त हो जाएगा.

माता अमृतानन्दमयी (अम्मा जी) मठ के उपाध्यक्ष स्वामी अमृतस्वरूपानन्द जी ने कहा कि वैदिक पद्धति जीवन को नकारती नहीं है, उसे अपनाने को प्रेरित करती है. वैदिक दर्शन और ज्ञान को अपनाने के लिये लोगों को मानसिक रूप से तैयार करने की आवश्यकता है. यदि ऐसा होगा तो हमारा जीवन पवित्र हो जाएगा. उन्होंने यह भी कहा कि देश में कई ऐसे सन्त और महापुरुष हैं जिनकी प्रेरणा से लाखों लोग वैदिक पद्धति से जीवन-यापन कर रहे हैं. ऐसे लोगों की संख्या बढ़ाने की जरूरत है.

प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. विजय भाटकर ने कहा कि वेद इस दुनिया को समझने का और शान्ति का उपकरण है. वेद सम्पूर्ण ज्ञान देता है, बाकी चीजें अधूरी जानकारी देती हैं. वेद अप्रतिम और परमज्ञान है. वैदिक सभ्यता शाश्वत है. यह नित्य नूतनता का आभास कराती है. इसलिए यह सबसे पुरानी होते हुए भी अभी तक टिकी हुई है, जबकि इसके बाद की सभ्यताएं समाप्त हो चुकी हैं. वरिष्ठ भाजपा नेता डॉ. सुब्रह्मण्यम स्वामी ने कहा कि वैदिक पद्धति सबकी समृद्धि और कल्याण की बात करती है. वेद ही हमें बताता है कि समाज में कोई कष्ट में न रहे और सब स्वस्थ रहें. ऐसी सोच का दूसरी जगह अभाव है. वेद यह भी बताता है कि आध्यात्मिक और आर्थिक नीतियों में सदैव सन्तुलन रहना चाहिये. महर्षि विश्वविद्यालय प्रबंधन, अमरीका के प्रो. डॉ. मिखाइल डिलबेक ने कहा कि सक्रिय ज्ञान और मानसिक सन्तुलन योग से मिलता है. इसको अमरीका के चिकित्सकों ने भी माना है. पूरी मानव जाति को वैदिक ज्ञान का सहारा लेना चाहिये.

दूसरे दिन के पहले सत्र में महर्षि वेदव्यास प्रतिष्ठान, भारत के संस्थापक और अध्यक्ष स्वामी गोविन्ददेव गिरि जी महाराज ने कहा कि भारतीय संस्कृति को वैदिक संस्कृति कहा जाता है. यही संस्कृति समस्त मानव की बात करती है. यह संस्कृति जन्मभूमि को मां मानती है और अपने पुत्रों को श्रवण बन कर मां की सेवा करने को प्रेरित करती है. यह बहुत ही गहरी सोच है. उन्होंने यह भी कहा कि वेद हमें समस्त जीव-जगत से जोड़ता है. उन्होंने वैदिक संस्कृति को पुन: स्थापित करने पर जोर देते हुए कहा कि वेद में राष्ट्र और समाज कैसा हो, इसका बहुत ही अच्छा वर्णन किया गया है.

भारतीय अन्तरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के पूर्व अध्यक्ष डॉ. जी. माधवन नायर ने कहा कि भारतीय संस्कृति पर हमें गर्व है. यह ज्ञान-विज्ञान का भण्डार है. आज कम्प्यूटर के जरिए हम नक्षत्रों और ग्रहों की स्थिति को देखकर कुछ भविष्यवाणी करते हैं, लेकिन हमारे ऋषि-मुनि हजारों वर्ष पहले ही इस विद्या में पारंगत थे. हमारे यहां हजारों वर्ष पूर्व भी शल्यक्रिया होती थी. यह सब ज्ञान वेद से ही मिला है. उन्होंने यह भी कहा कि संस्कृत की जानकारी के बिना हम वेद के ज्ञान को प्राप्त नहीं कर सकते हैं. इस सत्र को सम्बोधित करते हुए भौतिकशास्त्री डॉ. जॉन हेगल ने कहा कि बुद्धि से परे की बात वैदिक शिक्षा बताती है. वैदिक शिक्षा आत्मज्ञान कराती है. इसलिए हम वैदिक शिक्षा प्राप्त करें. उन्होंने कहा कि योग और यज्ञ एक ऐसा मार्ग है, जो वैश्विक शान्ति ला सकता है.

‘इन्टरनेशनल फाउण्डेशन ऑफ कॉन्सेसनेस-बेस्ड एजूकेशन, अमरीका’ की अध्यक्ष डॉ. सुसेन डेलबेक ने कहा कि चेतना आधारित शिक्षा के तीन माध्यम हैं-ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय. इस पद्धति से शिक्षा प्राप्त करने वाले व्यक्ति का सर्वागींण विकास होता है. जितनी हमारी चेतना जागृत होगी उतना ही हमारा समाज सुन्दर और व्यवस्थित होगा. उन्होंने कहा कि आदर्श जीवन जीने की कला वैदिक शिक्षा बताती है. शाश्वत, नित्य और अपौरुषेय ज्ञान है वैदिक शिक्षा. आर्य विद्या मन्दिर के संस्थापक आचार्य स्वामी परमात्मानन्द सरस्वती जी ने कहा कि आज समाज में स्वतंत्रता के नाम पर स्वच्छंदता बढ़ रही है, यह हमारी संस्कृति के विरुद्ध है. हमारी संस्कृति वैदिक संस्कृति है और यह हमें मर्यादा सिखाती है. वैदिक संस्कृति हमें योगदान देने की प्रेरणा देती है, जबकि आज हम केवल उपभोक्ता बन कर रह गए हैं. इसलिए वैदिक संस्कृति की पुनस्थापना अति आवश्यक है. सन्यास आश्रम, मुम्बई के अध्यक्ष स्वामी विश्वेश्वरानन्द जी ने कहा कि वेद कहता है कि कर्म करते रहो. कर्म ही तुम्हारी पहचान है. कर्म के आधार पर निम्न कुल में पैदा हुआ व्यक्ति एक दिन शिव बन सकता है, तो उच्च कुल में जन्मा व्यक्ति शूद्र बन सकता है. इसलिए हमारे यहां जीव को शिव कहा गया है. उन्होंने यह भी कहा कि अर्थशक्ति और वेदशक्ति दोनों मिलकर सुन्दर विश्व का निर्माण कर सकती हैं.

महर्षि विश्वविद्यालय प्रबंधन, अमरीका के अध्यक्ष डॉ. बेवन मोरिस ने कहा कि वैदिक शिक्षा हमें पूर्ण विकसित करती है. व्यक्ति के अन्दर सहनशक्ति बढ़ाती है, चिन्ता का निराकरण करती है, बौद्धिक क्षमता का विकास करती है और सबसे बढ़कर आत्मा का साक्षात्कार कराती है. एस.जी.वी.पी. इन्टरनेशनल स्कूल के संस्थापक सद्गुरु श्री माधवदास जी ने कहा कि विश्व की समस्त समस्याओं और जिज्ञासाओं का समाधान वेद में है. वेद मार्ग से ही रामराज्य स्थापित होगा. कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के डॉ. कीथ वालेस ने कहा कि प्राकृतिक नियमों का उल्लंघन किए बिना जीवन कैसे जिया जाए, इसकी सीख वेद से मिलती है. जीवन जीने का सही तरीका वेद में निहित है.

सम्मेलन के अन्तिम दिन के पहले वक्ता थे आदिचनचनगिरि मठ (कर्नाटक) के प्रमुख निर्मलानन्द स्वामी जी. उन्होंने कहा कि हमने ही दुनिया को गिनती करना सिखाया. अपने अन्दर जो विकृतियां हैं उनको आधुनिक शिक्षा समाप्त नहीं कर सकती है, इसके लिए हमें वैदिक शिक्षा (भारतीय शिक्षा) की शरण लेनी पड़ेगी. कर्नल डॉ. ब्राइन रीज (अमरीका) ने भावातीत ध्यान की चर्चा करते हुए कहा कि भावातीत ध्यान करने वाला व्यक्ति आनन्दित जीवन जी सकता है. उन्होंने बताया कि अफगानिस्तान में तैनात अमरीकी सैनिकों को भावातीत ध्यान कराया जाता है जिससे कि वे युद्ध की स्थिति में भी आनन्द महसूस करते हैं. उन्होंने कहा कि शस्त्र से कोई स्थाई विजय नहीं प्राप्त कर सकता है, शास्त्र ही स्थाई विजय दिला सकता है. अमरीकी गणितज्ञ डॉ. कैथी गोरिनी ने वेद और गणित के सम्बंधों को बताते हुए कहा कि शून्य की शक्ति, शून्य की सत्ता और शून्य की महत्ता भारत ने ही दुनिया को बताई थी.

योग गुरु स्वामी रामदेव ने कहा कि वैदिक योग ही वास्तविक योग है. उन्होंने कहा कि इस समय विश्व की तीन प्रमुख समस्याएं हैं. एक, मजहबोन्माद, दूसरा, युद्धोन्माद और तीसरा भोगोन्माद. एक वर्ग मजहबी उन्माद का पागलपन दिखा रहा है. यही पागलपन युद्धोन्माद खड़ा करता है. भोगोन्माद वाले हर चीज का भोग स्वयं ही करना चाहते हैं, जबकि वैदिक संस्कृति हमें बताती है कि जितनी आवश्यकता है उतना ही लो. वेद के मार्ग पर चलने से ही इन समस्याओं का समाधान हो सकता है. वेद सम्पूर्ण ज्ञान का मूल स्रोत है. उन्होंने वैदिक भारत और फिर वैदिक विश्व बनाने के लिए सबका आह्वान करते हुए कहा कि हर कोई इसके लिए प्रयास करे. भारत सरकार भी वेद को बढ़ावा देने के लिए सार्थक प्रयास करे. वेद ही शक्ति और समृद्धि का मार्ग खोलेगा. डॉ. ई. हर्टमन ने वास्तु शास्त्र पर जोर देते हुए कहा कि वास्तु के अनुसार बनाया गया घर व्यक्ति में सकारात्मक सोच पैदा करता है और वह उसी के भरोसे अपने जीवन में सफल होता है. इन सबके अलावा अनेक विद्वानों ने भी सम्मेलन को सम्बोधित किया.

सम्मेलन का समापन वैदिक भारत और इसके बाद वैदिक विश्व की स्थापना के संकल्प के साथ हुआ.

‘वैदिक विश्व बनाएंगे’ —- ‘फाउण्डेशन फॉर वैदिक इण्डिया’ के अध्यक्ष और विश्व वेद सम्मेलन के सूत्रधार स्वामी ब्रह्मस्वरूपानन्द से बातचीत…..

इस सम्मेलन का उद्देश्य क्या है?

वेद में वह शक्ति है, जो पूरे विश्व को मार्ग दिखा सकती है. वेद भारत की धरोहर है. दुर्भाग्यवश आज वैदिक ज्ञान, वैदिक शिक्षा, वैदिक तकनीक आदि की उपेक्षा भारत में ही हो रही है, जबकि विदेशों में वेद पर शोध हो रहे हैं और उसके ज्ञान-विज्ञान का उपयोग समाज को सुखी बनाने के लिये किया जा रहा है. भारत में भी ऐसा हो इसलिए इस सम्मेलन का आयोजन किया गया. इस सम्मेलन में जो लोग आए वे कई संस्कृतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं. भारत एक नए प्रयोग की भूमि बन रहा है. हिन्दुत्व की भूमि होने के कारण ही भारत में ऐसा हो पा रहा है. इस प्रयोग से जो नई संस्कृति और विचार निकलेंगे वही इस विश्व को शासित करेंगे, यह हमारा विश्वास है.

सम्मेलन में जो विदेशी वैदिक विद्वान आए, उन तक वेद कैसे पहुंचा ?

महर्षि महेश योगी जी ने इन सबको वेद से जोड़ा. 1960 में महर्षि महेश योगी अमरीका गए थे. तब वहां का धनिक वर्ग अनेक व्यसनों का शिकार था. उन्होंने उन्हें समझाया कि वेद पर आधारित जीवन जीयो सब कुछ ठीक हो जाएगा. उन लोगों ने उनकी बात मान ली और उनका जीवन संभल और संवर गया. आज वही लोग और उनके बच्चे वेद के प्रकाण्ड पंडित हैं और शोध कर रहे हैं. शोध के द्वारा उन्हें जो ज्ञान प्राप्त हो रहा है उसी को और लोगों के बीच बांटा जा रहा है. उन्हीं लोगों के सहयोग से महर्षि जी ने अमरीका सहित अनेक देशों में अनेक केन्द्र खोले और आज वही केन्द्र लोगों तक वेद पहुंचा रहे हैं. उम्मीद है ये केन्द्र विश्व में वैदिक संस्कृति, वैदिक जीवन, वैदिक समाज और वैदिक सभ्यता की पुनस्थपना करने में सफल होंगे. इस समय प्रतिदिन 6 लाख लोग विदेशों में ध्यान करते हैं. इनकी संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है.

इस समय विश्व के किन-किन देशों में वैदिक शिक्षा दी जा रही है ?

अमरीका के सभी शहरों में वैदिक शिक्षा दी जा रही है. इसके अलावा चीन, जापान, इण्डोनेशिया, मलेशिया, थाईलैण्ड, कनाडा, हालैण्ड, जर्मनी, स्वीडन, नार्वे, आईसलैण्ड, इंग्लैण्ड आदि देशों में वैदिक शिक्षा दी जा रही है.

कौन हैं महाराजाधिराज राजाराम प्रो. टोनी नादर

ये लेबनान के सबसे धनी व्यक्ति थे. अमरीका में इनकी पहचान जाने-माने न्यूरोलॉजिस्ट के रूप में है. महर्षि महेश योगी जी के सम्पर्क में आने के बाद इन्होंने वैदिक जीवन जीना शुरू किया. 30 वर्ष तक इन्होंने वेद का अध्ययन किया. इनके वैदिक विज्ञान से महर्षि महेश जी इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने इन्हें महाराजाधिराज राजाराम की उपाधि दे दी. 2008 में योगी जी के स्वर्गगमन के बाद यही राजाराम उनके उत्तराधिकारी हैं. इन्हीं के नेतृत्व में योगी जी के लाखों भक्त विश्वभर में वेद का प्रचार-प्रसार कर रहे हैं.
साभार पाञ्चजन्