बुधवार, 6 अगस्त 2014

अल्पसंख्यकों के ये प्रेमी! हुए तुम दोस्त जिनके दुश्मन की ..

विजय नड्डा
पंजाब केसरी में छपे एक लेख में वरिष्ठ लेखक श्री कुलदीप नैयर का कहना है कि बी.जे.पी.संघ के हाथों ओजार के रूप में इस्तेमाल हो रही है। उन्हें दुःख इस बात का है भा ज पा संघ जैसे देशभक्त संगठन से सलाह या प्रेरणा क्यूँ ले रही है? ये सरकार शाही इमाम या अन्य कथित सेक्युलर लोगों को घास क्यूँ नहीं डाल रही है? श्री नैयर वरिष्ठ लेखक हैं। सेक्युलरवाद के रोग से बुरी तरह ग्रस्त हैं। इनका रोग इन्हें मुबारक हमे इससे कुछ नहीं लेना है। इन जैसे महानुभावों के कारण ही आज सेक्युलरवाद कोमा में पहुँच गया है। आगे इस का राम नाम सत्य भी ये लोग करने पर तुले हैं तो इसमें देश का भला ही है। गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि जो मुझे जिस रूप में याद करता है मैं उसे उसी रूप में दर्शन देता हूँ। हो सकता है देश में इस अति सेक्युलरवाद  को धरती दिखाने के महत्वपूर्ण कार्य में सहयोग करने का कार्य ईश्वर ने श्री नैयर और उनकी मंडली को दिया हो। श्री नैयर अपनी लेखन शैली में तथ्यों को ऐसे गोल कर जाते हैं कि कुछ कहते नहीं बनता। कम से कम उम्र का ख्याल रखते हुए कुछ तो सच्चाई के नजदीक रहते तो अच्छा लगता। कहते भी हैं न- सज्जन रे झूठ मत बोलो ! खुदा के पास जाना है.....
लेकिन इस विरादरी को तो खुदा का खोफ भी नहीं दिखता। श्री नैयर अमित शाह को माफ़ नही कर पा रहे हैं। इस मंडली को कष्ट ही यह है कि उन्होंने उत्तर प्रदेश में भा ज पा को सत्तर सीटें जीता कर बहुत बड़ा अपराध क्यूँ कर दिया है? अपनी इस खुन्नस में ये महाशय लोकतंत्र के साथ साथ उत्तर प्रदेश के लोगों के राजनैतिक निर्णय का अपमान करने से भी बाज नहीं आ रहे हैं। उससे भी बड़ा दुःख उन्हें लग रहा है कि मोदी ने उन्हें राष्ट्रीय अध्यक्ष क्यूँ बना दिया। श्री नैयर को अंदर ही अंदर डर हैं कि हिंदुत्व ( श्री नैयर के अपने शब्दों में ) की इस लहर में जिसको श्री शाह ने उत्तर प्रदेश में सफलतापुर्वक चलाया है में सेक्युलरवादी पूरी तरह न बह जाएं। हिंदुत्व नाम से तो श्री नैयर ऐसे बिदकते है जैसे लाल कपड़े से सांड! संघ का राजनीति में सक्रिय होना भी ये महाशय पचा नहीं पा रहे हैं। यद्यपि संघ ने इस बार के चुनाव में जो सक्रियता दिखाई वह समय की मांग पूरी करने के सिवाय कुछ नहीं थी। संघ ने एक प्रकार से चुनाव कमिशन जो एक संवैधानिक संस्था है के आह्वान को ही पूरा किया है। संघ ने इस चुनाव में स्वयंसेवकों को तीन काम सक्रियता से करने को कहा- 1 अठारह साल के युवक युवतीओं के वोट बनाना 2 वोट स्थानीय मुद्दों से उपर उठ कर राष्ट्रीय मुद्दों पर करना। 3 शत प्रतिशत मतदान के लिए लोगों को प्रेरित करना।  संघ की इस सक्रियता और संघ प्रमुख डॉ. मोहन भागवत के इस वक्तव्य कि संघ ऐसे समय आंख बंद कर अपने राष्ट्रीय दायित्व से मुंह नहीं मोड़ सकता को लेकर अगर ये महाशय परेशान हैं तो क्या किया जा सकता है? श्री नैयर को याद होगा 1975 में आपातकाल से बचने और मुंह मांगी सुविधाओं का लाभ उठा लेने सम्बधी श्रीमती इंदिरा गाँधी के प्रस्ताव को संघ ने स्पष्ट तौर पर नकार दिया था। श्रीमति गाँधी  आपातकाल पर संघ का सक्रिय न सही केवल मौन समर्थन मात्र चाहती थी। संघ ने आपातकाल का विरोध करने की भारी कीमत चुका दी लेकिन समझोता नहीं किया। अब अगर इसमें किसी को राजनीति दिखती हो तो यही कहा जा सकता है-
वे कौन हैं जिन्हें तौबा को मिल फुर्सत, हमें तो गुहाह करने को भी जिन्दगी कम है।'
संघ की चुनावी सक्रियता में क्या राजनीति नैयर साहिब को दिख रही है यह तो वो ही बता सकते हैं। हां, संघ ने देश्वसिओं को गंगा, गाय, श्री राममन्दिर, श्रीरामसेतु अल्पसंख्यक तुष्टिकरण व्  जम्मू कश्मीर जैसे मुद्दों पर राष्ट्रीय सोच रखने वाले दल के उम्मीदवारों को मतदान करने का आह्वान जरुर किया। अब ऐसे में लोगों ने संघ पर भरोसा कर लिया और भा ज पा को दिल्ली की सत्ता सौंप दी तो इसमें संघ पर नाराज होने का क्या कारण है नैयर साहिब?
श्री नैयर ने संघ की राजनीति में सक्रियता का सवाल उठाया है। वे यह भूल रहे हैं कि संघ ने चुनावी सक्रियता में भाग न लेने का स्वयं निर्णय लिया था। किसी ने यह बात संघ पर थोंपी नहीं है। आज भी संघ के दायित्व का कोई दायित्ववान कार्यकर्ता किसी राजनैतिक द्ल का पदाधिकारी नहीं हो सकता। किसी भी राजनैतिक दल में जिम्मेवारी लेने से पहले संघ का दायित्व छोड़ना पड़ता है। श्री पटेल तो कंग्रेस में संघ का विलय चाहते थे। संघ प्रमुख श्री गुरु जी ने श्री पटेल को विनम्रतापूर्वक लेकिन स्पष्टता से चुनावी राजनीति में भाग न लेने के संघ के निर्णय को बता दिया था। इस बात को लेकर पटेल संघ से नाराज भी हो गये थे। कथित सेक्युलर के चश्मे से, दृष्टि से श्री नैयर को संघ के श्री सोलंकी या कोई और कैसे भा सकते हैं? इन्हें तो भारत माता को सरेआम गलियां देने वाले शाही इमाम, हैदराबाद के ओबैसी या सहारनपुर के.... या मुस्लिम वोटों पर जीने वाले,अल्पसंख्यकों के आगे हमेशा बिछने वाले मुलायम, लालू या मायावती अपने लगते हैं। उनकी हर बात अच्छी लगती है। इनको लेकर किसी ने ठीक ही कहा है- देशभक्त जनता इन लोगों के दोहरे व्यवहार को लेकर तिलमिला कर रह जाती है। उनके मुंह से बरबस ही निकल पड़ता है-
वो कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होती ।
हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम। देश की जनता इस चौकड़ी से देशभक्त लोगों को शाबाशी के शब्द सुनने को भी तरस गयी है।
संघ का स्पष्ट कहना है कि अल्पसंख्यक बंधु भी इसी देश के नागरिक हैं । दुनिया में अल्पसंख्यक की परिभाषा के अनुसार भारत में पारसी समुदाय को छोड़ कर शेष सब भारतीय इसी धरती के पुत्र हैं। सब बराबर हैं। लेकिन वोट राजनीति के कारण उन्हें जरूरत से ज्यादा महत्व देकर इन लोगों ने अल्पसंख्यकों की महत्वकांक्षाएं असमान पर चढ़ा दी। ये अगर भारत के साथ सुर मिलाना भी चाहें तो ये इनके कथित खैरख्वाह और भड़का देते हैं। इस स्थिति के लिए किसी ने ठीक ही कहा है - रांड तो रंडेपा काट भी ले लेकिन रंडवे नहीं काटने देते। अर्थात विधवा तो अपना विधवा जीवन किसी प्रकार काट भी ले लेकिन शरारती लोग उसे जीने नहीं देते। आज के अपने इन कथित अल्पसंख्यक हितैषियों की यही भूमिका रही है। संघ का कहना है की उचित मांगे सबकी अवश्य पूरी होनी चाहिए। लेकिन वोटों के कारण इस अति अल्संख्यक प्रेम के कारण इस वर्ग में असमाजिक तत्वों को ही बढ़ावा मिलता है। जो जितनी ज्यादा और जितने जोर से अलगाव की भाषा बोलता है उसे उतना ही ऊँचा स्थान अल्पसंख्यक राजनीति में मिलता है। इससे इनका भी भला नहीं हो रहा है और बहुसंख्यक वर्ग के मन में भी इनके प्रति कटुता का भाव पैदा हो रहा है। यह सब समाजिक सोहार्द व् समरसता के लिए तथा दूरगामी दृष्टि से अल्पसंख्यक वर्ग के लिए भी ठीक नहीं है। क्यूँ आइये! जरा विचार करें । अल्पसंख्यक वर्ग को बहुसंख्यक वर्ग से इतना ज्यादा अधिमान दुनिया के किसी भी देश में नहीं दिया जाता। अगर किसी दिन इस देश का बहुसंख्यक वर्ग अल्पसंख्यकों को कम नहीं तो कम से कम बराबर सुविधाएँ देने की जिद पकड़ ले तो क्या होगा? सत्ता के पुजारी हमारे ये अल्पसंख्यक हितैषी राजनेता और इनके बौद्धिक सेनापति इन्ही के विरुद्ध बोलने वालों में सबसे आगे होंगे। लोकतंत्र में संविधान में संशोधन के लिए कितना समय लगता है? अगर कभी ऐसा कुछ इस देश में घटता है तो इसके लिए यही अल्पसंख्यक प्रेमी! जिम्मेवार होंगे। वर्तमान राजनैतिक परिदृश्य अल्पसंख्यकवाद की अति का ही परिणाम है इसमें संघ या अमित शाह को दोष देने का कोई कारण नहीं है। अब समय आ गया है कि अल्पसंख्यक बंधु अपने इन कथित हितचिंतकों का शांत मन से विश्लेष्ण करें। इनके अपने प्रति प्यार को जरा सचाई के धरातल पर जा कर परखें। देखें कि ये प्यार उनके प्रति है या सत्ता पाने को लेकर ये सारा प्रपंच है। किसी भी प्राकृतिक आपदा के समय देश ने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की बिना भेदभाव की सेवा देखी है। अनेक अल्पसंख्यक बन्धु इसी कारण संघ के नजदीक आ रहे हैं। इसी बात को लेकर अल्पसंख्यकवाद के ये बौधिक झंडाबरदार और इनके वोटों पर सत्ता का आनन्द लेने वाले राजनेता परेशान हैं। जरूरत है की अल्पसंख्यक लोग अपने इन कथित हितैषियों को अपने से दूर करें । किसी ने ठीक ही कहा है- हुए तुम दोस्त जिनके दुश्मन की उनको जरूरत क्या?

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