सोमवार, 9 अक्तूबर 2017

***छात्र, विद्यालय एवम समाज समर्पित प्रधानाचार्य समय की मांग ***


बदलते समय के साथ प्रत्येक जीवमान ईकाई को बदलना पड़ता है। यह एक शाश्वत सत्य है कि समय के गतिमान प्रवाह के साथ कदम से कदम मिला कर जो नहीं चल पाता वो दुनिया के इस खेल से बाहर हो जाता है। इसको यूं भी कहा जा सकता है कि समय उसको खेल से ही  बाहर कर देता है। आज की परिस्थिति में समय के साथ कदम ताल करने में विद्यालय के प्रधानाचार्य को सबसे ज्यादा परिश्रम करना पड़ रहा है। आज का युगधर्म है कि हमें अपने कर्मक्षेत्र में अपने परिश्रम, प्रतिभा और परिणाम के माध्यम से अपनी उपस्थिति दर्ज करानी ही होगी। कहा भी  जाता है कि परिणाम के बिना तो घरवाली भी सम्मान नहीं देती फिर ये  दुनिया तो दुनिया है । क्योंकि आज का युवा प्रधानाचार्य पैकेज भी अच्छा चाहता है ( इस में कुछ गलत भी नहीं) और सम्मान भी प्राचीन गुरु का चाहता है।  इस सब में दुःखद पहलू  यह है कि युवा प्रधानाचार्यों में छात्र, समाज व राष्ट्र समर्पित जीवन जीने की मानसिक तैयारी या सिद्धता बहुत कम में देखी जा रही है। शिक्षा क्षेत्र में अपने गत तीन वर्षों के अल्प अनुभव के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि युवा पीढ़ी के प्रधानाचार्य को छात्रों एवम समाज के मन मे सम्मान का स्थान पाने के लिए बहुत परिश्रम करना होगा। इसके लिए उसे अपनी दृष्टि पूर्णतः बदलनी होगी। प्रधानाचार्य का कार्य अत्यंत श्रेष्ठ, महत्वपूर्ण और नॉकरी से बहुत ऊपर है। पद, प्रतिष्ठा व पैसा उसके समर्पित जीवन का सहज परिणाम होने वाला है। इसके विपरीत इन सब के पीछे दौड़ने से पद और पैसा तो शायद मिल भी जाए लेकिन प्रतिष्ठा तो उसके लिए दिवास्वप्न मात्र बन कर रह जाएगी। प्रधानाचार्य को समझना होगा कि राष्ट्र का भावी भविष्य उसके हाथों से हो कर निकल रहा है। प्रधानाचार्य को एक-एक छात्र को तराशने, उसके अंदर के महामानव को प्रकट करने में सक्षम राष्ट्रशिल्पी आचार्य दीदियों का नेतृत्व करना होता है। आज के सामाजिक एवम आर्थिक परिवेश में छात्र एवम समाज समर्पित आचार्य दीदियों का समूह निर्माण करना प्रधानाचार्य के लिए सबसे बड़ी चुनोति होती है। यह सब करने के लिए पहल उसे स्वयं से करनी होती है। हम सब जानते हैं कि व्यक्ति का आचरण बड़े लम्बे एवम दार्शनिक भाषण से कहीं ज्यादा प्रभावकारी होता है।
प्रधानाचार्य को नॉकरी की आत्मघाती मानसिकता से बचना होगा-   अंग्रेजों के समय पनपी यह नॉकरी की मानसिकता अत्यंत विचित्र है। हम अपने घर मे मजदूर लगाते हैं तो उससे बहुत कुछ चाहते हैं और हम कहीं काम करते हैं तो हमारी दृष्टि ओर तर्क पूर्णतः बदल जाते हैं। नॉकरी की मानसिकता में दोनों कर्मचारी और मालिक एक दूसरे को चकमा देने में दिमाग लगते रहते हैं। वास्तव में अंग्रेजों के समय क्योंकि हमें अंग्रेजों की नॉकरी करनी पड़ती थी और अंग्रेज से लोग नफरत करते थे इसीलिए उनके प्रति हमारी मानसिकता विकृत होना स्वभाविक ही था। उस स्थिति में हम अंग्रेजों को छकाने और अंग्रेज  हमारा खून चूसने पर स्वयं को शाबाशी देता था। हमें यह स्वीकार करना ही होगा कि स्वतन्त्रता के इतने वर्षों बाद भी इस नॉकरी की मानसिकता से ऊपर न उठ पाने से हमारा बहुत अहित हुआ है। नॉकरी में व्यक्ति अपनी शारीरिक , मानसिक एवम बौद्धिक प्रतिभा का सीमित ( जितने कम से कम से काम चल जाए) ही उपयोग करता है। इस सोच का उस व्यक्ति की प्रगति पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। ऐसा व्यक्ति जीवन भर भाग्य, भगवान  और मालिक को कोसने में ही अपनी प्रतिभा का उपयोग करता रहता है। और अपने पिछड़ने के लिए सारी कायनात को ही दोषी ठहराता रहता है। दुर्भाग्य से आजादी के बाद भी शासन और नियोक्ता के प्रति हमारी मानसिकता नहीं बदली। हमारे देश मे कम्युनिष्टों ने इस सोच को और हवा पानी दिया। सरकारी नॉकरी लगते ही व्यक्ति कर्तव्य भूल कर अधिकारों की पिटारी खोल कर बैठ जाता है। परिणामस्वरूप धीरे धीरे सरकारी क्षेत्र सब जगह घाटे में जाने लगा, मजबूर हो कर सरकार को सब जगह से अपने हाथ खींचने पड़े। कम्युनिस्टों द्वारा प्रेरित अधिकारों की रट लगाने वाला सामान्य व्यक्ति बेचारा फिर निजी क्षेत्र में शोषण की भेंट चढ़ गया। स्थिति न्यूनाधिक 'न खुदा ही मिला न बिसाले सनम... ' वाली ही हुई। कर्मचारी और नियोक्ता दोनों को समग्रता से सोचना होगा। दोनों को समझना होगा कि एक दूसरे के बिना दोनों अधूरे हैं।
युग परिवर्तनकारी प्रधानाचार्य बनने में सहायक विंदु- वैसे तो सफल प्रधानाचार्य बनना एक लंबी साधना का परिणाम है। इसके लिए कोई शॉर्टकट नहीं हो सकता तो भी कुछ विंदु इसमे सहायक अवश्य हो सकते हैं।  प्रधानाचार्य अपनी साधना का प्रारम्भ विद्यालय में सबसे पहले आना और सबसे बाद विद्यालय छोड़ने से कर सकता है। सभी आचार्य/दीदियां तथा अन्य सहयोगी कर्मचारी टीम के रूप में कार्य करें इसके उसे प्रेरणा का केंद्र बनना होता है। उसे विद्या मंदिर परिवार प्रमुख के रुप में सभी का मन जीतना होता है। सफल प्रधानाचार्य का सहयोगी टीम के मन मे सम्मानमिश्रित भय रहना आवश्यक है। प्रत्येक छात्र के जीवन मे रुचि लेना और अभिभावकों  से निरन्तर सम्पर्क में रहना प्रधानाचार्य को बल प्रदान करता है। विद्या मंदिर एवम छात्र विकास के लिए निरन्तर प्रयासरत रहना , नए नए प्रयोग करते रहना सफल प्रधानाचार्य के लिए अत्यंत आवश्यक है। विद्या मंदिर को समाज जागरण एवम समाजिक चेतना का केंद्र बनना आवश्यक होता है। अपनी प्रशंसा स्वयं करने से बचते हुए अपने कार्यों को बोलने देना चाहिए। प्रधानाचार्य के बहुविध कार्यों के योग्य सम्पादन के लिए उसे कल्पक, योजक एवम कुशल प्रशासक बनना होता है। दैनिक, साप्ताहिक एवम मासिक कार्यों की सूची बना कर उनके  सम्पादन पर केंद्रित करना होता है। विद्यालय के कलेंडर पर नजर जमाए रखनी पड़ती है। समाज से योग्य, प्रतिभा सम्पन्न एवम प्रतिष्ठित लोगों को छात्रों के समक्ष निरन्तर लाते रहने से एक ओर जहां छात्रों के समुचित विकास को बल मिलता है वहीं विद्यालय के लिए सहयोगी वर्ग खड़ा होता है।  प्रबन्ध समिति से तालमेल बैठाना प्रधानाचार्य की कुशलता का परिचायक होता है।
लक्ष्य समर्पित जीवन सफल प्रधानाचार्य के लिए पूर्व शर्त-  लक्ष्य समर्पित व्यक्ति के लिए कुछ भी असम्भव नहीं होता। संघ संस्थापक पूज्य डॉक्टर हेडगेवार कहते थे कि हम महान लक्ष्य को समर्पित साधारण लोग हैं। महान लक्ष्य कब हम में महानता के अंश उतपन्न कर देता है हमें भी पता नहीं चलता।' यह सत्य भी हमें स्वीकरना होगा कि हमारे समाज के अन्तःकरण मे ' सेवा परमो धर्मों'  की धारणा अत्यंत गहरी बैठी है। समाज समर्पित जीवन जीने वाले आचार्य व प्रधानाचार्य आज भी समाज जीवन को दिशा देने में सक्षम हैं और दिशा दे भी रहे हैं। विद्या भारती की पाठशाला से निकले सैकड़ों प्रधानाचार्य आज राष्ट्र एवम समाज जीवन को दिशा दे ही रहे हैं। विद्या भारती सृष्टि के बाहर भी अनेक प्रधानाचार्य समाज और राष्ट्र जीवन के लिए श्रद्धा, आशा व विश्वास का केंद्र बने हुए हैं। यह सब उनकी लम्बी साधना के फलस्वरूप ही हो सका है।  ऐसा विराट व्यक्तित्व पाने के लिए  प्रधानाचार्य को अपने कार्य को सही अर्थों में (अक्षरशः ) पूजा मानना होगा। एक बार दृष्टि बदली तो फिर सारा परिदृश्य बदल जाता है। किसी ने ठीक ही तो कहा है- नजरें बदली तो नजारे बदल गए, किश्ती बदली तो किनारे बदल गए। प्राचीन काल मे  हमारे प्रधानाचार्य केवल विद्यालय ही नहीं बल्कि पूरे समाज के प्रमुख व आदरणीय हुआ करते थे। और हमें यह समझना होगा कि यह आदर उनके विराट व्यक्तित्व के कारण ही प्राप्त था। राजा भी उनसे समय ले कर मिला करते थे। लोग घर परिवार, नॉकरी से लेकर जीवन की सब समस्याओं के हल के लिए प्रधानाचार्य की ओर देखते थे। आज प्रधानाचार्य को वह 'सम्मानजनक'  स्थान प्राप्त करना ही होगा केवल अपने लिए नहीं बल्कि समाज के स्वस्थ एवम दीर्घ जीवन के लिए यह अत्यंत आवश्यक है। वर्तमान में समाज मे जितनी भी समस्याएं या परेशानियां - जैसे बलात्कार, भृष्टाचार, टूटते परिवार या तेजी से फैलते वृद्धाश्रम ये सब मां की गोद, अध्यापक की कक्षा या सन्यासी की ध्यान साधना की असफलता ही तो है। इन सबको  ठीक करने की शुरुआत हमारे अध्यापक को छात्र की अंगुली पकड़ कर जीवन के नए पाठ नई पद्धति से पढ़ाने से करनी होगी। क्योंकि मां, सन्यासी, राजनेता से लेकर जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अच्छा या खराब प्रदर्शन करने वाले लोग हमारे अध्यापकों के व्यक्तित्व का विस्तार या प्रकटीकरण मात्र ही तो है।

सोमवार, 25 सितंबर 2017

सेना और संघ को देश सेवा का सामान माध्यम मानते थे गगनेजा जी

लगभग 2006 की बात होगी कि संघ कार्यालय पीली कोठी में विभाग संघचालक (तत्कालीन) ठाकुर बलवंत सिंह जी ने मुझ से कहा कि आपको सेना से सेवानिवृत्त ब्रिगेडियर से मिलवाना है। उस समय मेरे पास जालन्धर विभाग प्रचारक का दायित्व था। संघ की कार्य पद्धति में सामान्य व्यक्ति से भी परिचय होना बहुत अच्छा माना जाता है और नए सहयोगी जुड़ने के कारण कार्यकर्ता को अत्यंत प्रसन्नता एवम सन्तोष की अनुभूति होती है। मुझे सेवा निवृत्त ब्रिगेडियर से मिलने की उत्सुकता होना तो स्वभाविक ही था। यद्यपि बताया गया कि सेना में जाने से पूर्व गगनेजा जी संघ के अच्छे स्वयंसेवक थे तो भी संघ से इतना समय दूर रहने का ध्यान आते ही आशंका सी भी थी कि क्या वे सामान्य स्वयंसेवक की तरह विनम्र ,सहज और संघ समर्पित होंगे? सैनिकों को सेना की सेवा में रहने के कारण समाज और परिवार से काफी वर्ष दूर रहना पड़ता है। इस कारण बहुत सारे सैनिकों के असामान्य व्यवहार के कारण सेना के सैनिकों और अधिकारियों पर कई चुटकुले भी प्रचलित हैं। लेकिन गगनेजा जी से मिलते ही सारी आशंकाएं दूर हो गईं। ठाकुर बलवंत सिंह जी के घर मे ही हमारा पहला परिचय हुआ। परिचय होते ही उनका खड़े होकर मुझे गले लगाना और पूरे उत्साह से मिलना, लगता है जैसे आज की बात है। उनसे मिलने वाले सभी कार्यकर्ताओं का एक जैसा ही अनुभव था। सभी स्वयंसेवक उनकी इस अदा पर फिदा रहते थे। 'उनसे मिली नजर कि......गीत के शब्दों और भावों की तरह जो भी स्वयंसेवक उनसे एक बार मिल जाता था वह उन्हीं का हो कर रह जाता था। इसका बड़ा कारण था कि स्वयंसेवकों के साथ गगनेजा जी का यह व्यवहार बाहरी दिखावा न होकर उनके निर्मल मन का परिलक्षण था। संघ और सेना में कोई अंतर नहीं - स्व. गगनेजा जी बातचीत में बताए थे कि मैं सेना और संघ को अलग अलग नहीं देखता हूँ। वे इन दोनों को देश सेवा का प्रभावी माध्यम मानते थे। पढ़ाई के समय वे स्वयंसेवक बने। संघ का भूत कुछ इस कदर इन पर चढ़ा था कि वे पढ़ाई पूरी कर प्रचारक निकलना चाहते थे। उस समय बठिंडा में संघ के प्रचारक डा. सत्यपाल जी थे। अपने विद्यार्थी काल के प्रचारक डा. सत्यपाल को गगनेजा जी बहुत याद करते थे। जब मैंने उन्हें बताया कि डा. सत्यपाल जी आजकल कांगड़ा में हैं तो वे बहुत प्रसन्न हुए। गगनेजा जी बताते थे कि सेना के साक्षात्कार में भी उन्होंने संघ विचार, संघ के गीत खुल कर प्रयोग किया ( उन दिनों राजनैतिक कारणों से सरकारी सेवा विशेषकर सेना की नॉकरी के साक्षात्कार में संघ की चर्चा करना किसी खतरे से कम नहीं था) इस सब के बाबजूद सेना में अधिकारी चययनित हो जाने के बाद गगनेजा जी इसे नियति का खेल मान पूरी तन्मयता से सेवा में जुट गए। सेना में गगनेजा जी ने अपनी योग्यता , निष्ठा, समर्पण से सेना में अपनी योग्य पहचान बनाई। जन्म और प्रारम्भिक पढ़ाई- स्व. जगदीश गगनेजा जी का जन्म 19 फरबरी 1950 को बठिंडा में हुआ। आपकी प्रारम्भिक पढ़ाई बठिंडा शहर में सनातन धर्म स्कूल में तथा ग्रेजुएशन राजेंद्रा कालेज में हुई। 14 फरबरी 1972 को अपने सेना में कमीशन लिया। 1972 की लड़ाई लड़ी। आपके नेतृत्व में सेना ने शक्करगढ़ पोस्ट पर जीत प्राप्त की। आप पाकिस्तान में 2 वर्ष उसी पोस्ट की सम्भाल में रहे। आर्थिक विषयों पर आपकी पकड़ थी इसी कारण भारतीय सेना के वित्त विभाग दिल्ली में भी अपने कार्य किया। उत्तर पूर्व में आप भारतीय सेना के प्रवक्ता भी रहे। ऐसे बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी श्री गगनेजा जी के परिवार में धर्मपत्नी, बेटा राहुल जो वर्तमान में सेना में कर्नल है, बेटी रुचि, दामाद मोहित तथा दूसरी बेटी शीतल और दामाद प्रशांत हैं। सारा परिवार स्वभाविक रूप से उन्हें यादों में संजोये हुए है। सामान्य स्वयंसेवक भी श्री गगनेजा को याद मात्र कर भावुक हो उठते हैं तो परिवार जनों के दुख की तो कल्पना ही की जा सकती है। और पूरे उत्साह के साथ संघ में सक्रिय हो गए संघ से लम्बी जुदाई के बाद पुनः संघ सक्रिय होते ही उनके चेहरे पर सन्तोष और प्रसन्नता स्पष्ट ध्यान में आती थी। सबसे पहले उन्हें भाग संघचालक का दायित्व दिया गया। श्री गगनेजा जी संघ कार्य मे ऐसे रमे की फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा। उनके संघ कार्य मे सक्रिय होते ही जालन्धर महानगर के संघ कार्य मे नई चेतना का संचार हो गया। काफी समय बाद जालन्धर के संघ को एक योजक, दूरद्रष्टा एवम संगठन कला के पारखी कार्यकर्ता प्राप्त हुआ। उनके संघ समर्पित तेजस्वी व्यक्तित्व का ही परिणाम था कि भाग का दायित्व होते हुए भी महानगर, विभाग और प्रान्त में भी उनको भेजा जाने लगा। इस बीच मेरे दायित्व में परिवर्तन आ गया। मेरा केंद्र जालन्धर से लुधियाना और फिर चंडीगढ़ हो गया। इस समय हमने चीन के विरुद्ध समाज जागरण का अभियान लिया। प्रचारक संस्था के प्रति उनके मन मे अगाध श्रद्धा थी। प्रत्येक सूचना को आज्ञा मान कर तुरन्त हां कर देनी, विषय की पूरी तैयारी और फिर समय से पूर्व कार्यक्रम में पहुंच जाना गगनेजा जी स्वभावगत विशेषता थी। समय पालन की ओर उनका विशेष आग्रह रहता था। संघ के अधिकारियों की नजर गगनेजा जी के व्यक्तित्व पर आ टिकी। उन्हें सह प्रान्त संघचालक का दायित्व दिया गया। और इस के तुरन्त पश्चात उन्हें भाजपा से सम्पर्क का कार्य दिया गया। इस दायित्व की चर्चा करने जैसे ही अधिकारी उनसे मिले उन्होंने बड़ी ही विनम्रता से इस दायित्व के प्रति अपनी रुचि प्रकट की। उन्होंने कहा कि राजनीति का रास्ता काफी कठिन और टेढ़ा मेढा होता है और सेना में रहने के कारण उन्हें घूमा फिरा कर बात करने की आदत नहीं। संघ के चिंतन के प्रकाश में संघ,समाज और संगठन हित में स्वतन्त्रतापूर्वक कार्य करने देने का आश्वासन मिलने के पश्चात ही उन्होंने इस दायित्व को स्वीकार किया। सार्वजनिक जीवन मे छाप छोड़ गए- संघ में कार्यकर्ता का अधिकांश समय संगठन के आंतरिक कार्यों में लगता है। राजनीति क्षेत्र से सम्पर्क का दायित्व आने के कारण संघ कार्य के साथ साथ समाज मे भी यदा कदा वे दिखने लगे। बहुत कम समय मे वे राजनीति में कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं के प्रिय बन गए। सैद्धान्तिक दृढ़ता के कारण अनेक कार्यकर्ताओं को कड़वी दवाई भी मिलती थी। लेकिन आवश्यक कठोर दिशा निर्देश के बाद वही पीठ पर प्यार भरा हाथ कार्यकर्ताओं को अपनेपन का अहसास दिला जाता था। राजनीति में टेढ़े मेढ़े चलने वाले हमारे मित्रों को उनसे बात करने में काफी हिम्मत जुटानी पड़ती थी। संघ के साथ साथ सभी संगठनों और विशेषकर भाजपा को पंजाब में शक्ति के रूप में उभराना, इसकेे लिए दूरगामी योजना और कठोर परिश्रम कार्यकर्ताओं के लिए यही उनका मन्त्र रहता था। अपनी इस बात को बड़े ही आत्मविश्वासपूर्वक और तार्किक ढंग से सब जगह रखते थे। राजनीति में सब कुछ बोलना आवश्यक नहीं होता, कुछ पचाना भी होता है, ऐसा मैं अपने सम्बधों के आधार पर उनसे आग्रह करता था। वे इसे मानते भी थे लेकिन लगता है निष्कपट मन होने के कारण वे अपने स्वभाव में ज्यादा परिवर्तन नहीं कर पाए। इस कारण बहुत लोग उनसे नाराज भी होते रहते थे लेकिन इस सबसे बेपरवाह वे अपने साधना मार्ग पर आगे बढ़ रहे थे। स्वामी विवेकानन्द सार्धशती में सम्भाला नेतृत्व- स्वामी विवेकानन्द सार्ध शती में मुझे प्रान्त के संयोजक का दायित्व मिला था। श्री सतीश जी ( तत्कालीन सह प्रान्त प्रचारक) एवम श्री गगनेजा जी के साथ समाज जागरण की प्रभावी योजना बनी। बड़ी संख्या की उपस्थिति के युवा सम्मेलन से संगठन को नया रक्त मिला। बादल सरकार से हिंदुत्व के प्रतीक स्वामी विवेकानन्द के मुद्दे पर सब प्रकार का सहयोग अनेक लोगों के लिए आश्चर्य एवम सन्तोष का विषय था। इस सब मे श्री गगनेजा जी का सम्पूर्ण सहयोग एवम उत्साहपूर्वक हर योजना को आगे बढ़ाने में परिश्रम।याद आते ही रोमांच हो जाता है। जब कभी मन मे कुछ निराशा आ जाती थी गगनेजा जी के साथ किया भोजन या चाय ऊर्जा का कार्य करता था। समय के गतिमान प्रवाह में मेरे पास विद्या भारती का दायित्व आया तो वे विद्या मन्दिरों की स्थिति सुधारने के लिए हमेशा उत्साह देते रहते थे। हमने सरकार से बात कर विद्या मन्दिरों को आर्थिक सहयोग करने का विषय रखने को कहा तो वे मुझ से भी ज्यादा उत्साही दिखे। शायद उनके प्रभावी व्यक्तित्व का ही परिणाम था कि पंजाब सरकार का अभी तक प्राप्त सबसे ज्यादा सहयोग अपने विद्या मन्दिरों को प्राप्त हुआ। पंजाब के विद्या भारती संगठन में नया उत्साह भर गया। विश्वास नहीं होता कि गगनेजा जी नहीं हैं- 6 अगस्त 2016 शाम को विद्या धाम से मैं और प्रान्त प्रचारक श्री प्रमोद जी किसी कार्य वश निकले ही थे कि इस घटना बारे फोन आ गया। पता चला कि ज्योति चौक के पास किसी सिरफिरे ने इस जाबांज को गोलियों से भून दिया। भागते दौड़ते, सभी कार्यकर्ताओं को सूचित करते हम पटेल हॉस्पिटल पहुंचे। क्या हो रहा है किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था। सैकड़ों कार्यकर्ता हॉस्पिटल पहुंच गए। सभी हाथ जुड़े थे, एक ही प्रार्थना सब कर रहे थे कि ईश्वर कार्यकर्ताओं की श्रद्धा, आदर और प्रेम के केंद्र श्री गगनेजा जी स्वस्थ हो जाएं। बस उसके बाद तो घटनाक्रम इस तेजी से घूमा कि 22 सितम्बर 2016 को गगनेजा जी अपने हजारों चाहने वालों को निराश करते हुए स्वर्गलोक की यात्रा पर चल निकले। डा. बताते हैं कि आखिर समय तक गगनेजा जी अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति से मौत से जूझते रहे। लगता था कि गगनेजा जी मौत को भी शत्रु देश का आक्रमण समझ कर एक सैनिक की तरह बचाव में पूरी तरह मोर्चे पर डटे थे। आखिर में विधाता की इच्छा को शिरोधार्य कर उन्होंने समर्पण किया होगा। गगनेजा जी की याद को स्थायी बंनाने का लघु प्रयास- तुमने दिया देश को जीवन , देश तुम्हें क्या देगा अपनी लौ को जीवित रखने नाम तुम्हारा लेगा।। महापुरुषों की याद को स्थायी बनाना सरकार और समाज की जिम्मेवारी होती है। सरकार को इस दिशा में कार्य करना चाहिए। विद्या भारती की प्रान्त ईकाई सर्वहितकारी शिक्षा समिति ने जालन्धर के लाडोवाली रोड पर स्थित अपने विद्या मंदिर को उनकी पुण्य याद को समर्पित करने का निर्णय किया है। श्री गगनेजा की प्रथम पुण्य तिथि को इस विद्यालय का नाम कारण ब्रिगेडियर जगदीश गगनेजा सर्वहितकारी विद्या मंदिर के नाम से जाना जाएगा। असहनीय है आक्रमण के रहस्य से पर्दा न उठ पाने का दर्द ब्रिगेडियर स्व.जगदीश गगनेजा जी पर हुए आक्रमण और उसके कारण असमय हुई मृत्यु का जख्म आज भी हजारों स्वयंसेवकों को बेचैन किए हुए है। प्रशासन, उस समय की पंजाब सरकार की उदासीनता से स्वयंसेवकों के मन मे भयंकर आक्रोश था। स्वयंसेवकों के आक्रोश को समाज विरोधी शक्तियां दुरुपयोग न कर सकें इसलिए देश एवम समाज के व्यापक हित को सामने रखते हुए संघ ने स्वयंसेवकों के आक्रोश को बड़ी कुशलता एवम परिश्रम से शांत किया था। केंद्र सरकार द्वारा सीबीआई की जांच की घोषणा से हत्यारों को कानून द्वारा सजा मिलने की आशा जगी थी। इसके साथ हत्यारों के पीछे की समाज और राष्ट्र विरोधी शक्तियों के पर्दाफाश होने की कुछ आशा बंधी थी । लेकिन समय बीतने के साथ साथ अब वह आशा भी धूमिल होती जा रही है। आज प्रत्येक स्वयंसेवक सोचने को बेबश हो रहा है कि आखिर संघ कब तक अपनी समझदारी की कीमत सब जगह अपने कार्यकर्ताओं को खो कर चुकाता रहेगा? केरल, बंगाल, कश्मीर तथा उत्तर पूर्व में हजारों स्वयंसेवक देश हित मे कार्य करने की कीमत अपनी जान दे कर चुका चुके हैं। आशा की जानी चाहिए कि सीबीआई शीघ्र दोषियों तक पहुंचेगी और उन्हें न्यायलय के कटघरे में खड़ा कर कानून के हाथों कठोरतम सजा दिलवाने में सफल होगी।

गुरुवार, 29 जून 2017

बहुत नाज उठा लिए तेरे ये जिंदगी


बहुत नाज उठा लिए तेरे ये जिंदगी, लगता है मैं तेरे काबिल नहीं,
निभेगी नहीं कत्तई शायद हमारी, बेहतर होगा तू मेरा हिसाब कर दे ,

हमारा मिलना महज एक संयोग था, ये तो तू भी जानती है
साथ निभाने की कोशिश ईमानदार थी ये तो तू भी जानती है।
रिश्ते मिलना और निभना एक संयोग है ये तो तू भी मानती है
लाख जतन से भी नियति से जीतना कठिन है ये तो तू भी जानती है

वैसे मुझे तो कोई शिकवा या शिकायत नही है तुझसे, ये जिंदगी
क्या करूँ तेरे रोज रोज के दुख औऱ रोने से परेशान हूं ये जिंदगी
बहुत हो गया तेरी आँखों मे आंसू अब देखे नहीं जाते, ये जिंदगी
खुशी न दे सके तुझे मेरा यह साथ, तो जा बिछुड़ जा, ये जिंदगी

इस मोड़ पर पटक दिया तूने,  तू ही बता मैं क्या करूँ? कहां जाऊं?
छोड़ साधना खुदा की अब संसार सागर में गोते लगाऊं, डूब जाऊं?
तूने तो वायदा किया था खुश रहने और मुझे खुश रखने का ये जिंदगी
मेरा साथ बस एक साधना है समझ ले, सोच ले औऱ बता दे ये जिंदगी