सोमवार, 2 मई 2016

कितना जायज है फ़ीस वृद्धि को ले कर अभिभावक आक्रोश !

पंजाब में पिछले दिनों निजी विद्याल्यों के बाहर फ़ीस आदि को ले कर चल रहे धरने प्रदर्शनों का दौर क्या संकेत है? क्या यह अभिभावक केवल आक्रोश है या अभिभावकों के गुस्से को राजनीति के खिलाडी अपने स्वार्थ के लिए उपयोग कर रहे हैं? आखिर राजनेताओं को अभिभावकों से इतना प्यार कहां से उमड़ पड़ा? जिस विद्या मन्दिर में आप अपने बच्चे को पढ़ा रहे हैं उस की फ़ीस आदि आप जानते हुए भी उसे वहीं दाखिल करवाते ही क्यों हैं ? एक ओर आप बच्चे को अच्छा ए सी कमरा, एसी बस, अच्छे अध्यापक और ए क्लास का इंफ्रास्ट्रक्चर चाहते हैं वहीं दूसरी ओर उसके अनुसार फ़ीस भी नहीं देना चाहते हैं तो क्या जादू के बल पर स्कूल मैनेजमेंट यह सब कर करेगी? 'सब कुछ मुफ़्त' के इस खेल में आखिर सरकार को भी हाथ जोड़ने पड़े जिसके पास अथाह खजाना है फिर सामाजिक संस्थाएं या निजी क्षेत्र ऐसे में कितने दिन और स्कूल चला लेंगें? और अगर निजी क्षेत्र या सामाजिक संस्थाएं विद्यालय चलाने में असमर्थ हो कर तौबा कर लेते हैं तो क्या अभिभावक सरकारी स्कूलों में अपने बच्चों को भेजने को तैयार हैं?
 आक्रोश के पीछे है राजनीति-
पिछले समय से निजि विद्यालयों के विरुद्ध अभिभावकों का गुस्सा सार्वजनिक रूप से प्रकट होता दिख रहा है। आगे यह मुद्दा और भी विकट रूप धारण कर सकता है। क्या यह गुस्सा स्वयंस्फूर्त है या कृत्रिम है? यह गुस्सा सभी अभिभावकों का है या शिक्षा जैसे पवित्र मुद्दे पर भी अपनी राजनीति की सम्भावना तलाश रहे लोग अनावश्यक हवा तो नहीं दे रहे है? वैसे तो आज मंहगाई की मार से प्राय: हर व्यक्ति परेशान है। स्थिति कमोवेश यही है - यह मत पूछो कहां दर्द है। जहां हाथ लगाओ वहीं दर्द है! इसीलिए अधिक फ़ीस को कम करने की बात कह कर कोई भी सड़क छाप राजनेता भी अभिभावकों को अपने पीछे लगा ले रहा है। मजेदार बात है कि इस आक्रोश का शिकार भी सामान्य विद्यालय ही हो रहे हैं। क्योंकि इन्हीं विद्यालयों में सामान्य परिवारों के बच्चे पढ़ते हैं। क्या वास्तव में जो विद्यालय खुलेआम शिक्षा को व्यापार में बदल रहे है वहां कोई विरोध हो रहा है? अभी तक तो सभी बड़े निजि स्कूल, कान्वेंट स्कूल इस विरोध से दूर दिख रहे हैं। अभी तो सामान्य निजी विद्यालय ही कथित अभिभावकों के निशाने पर लगते हैं। इसीलिए इस विरोध की नीयत पर प्रश्न खड़े होना स्वाभाविक है। कौन है इस आक्रोश को हवा देने वाले लोग? समाज और अभिभावकों को समय रहते इस विषय की गहराई में जाने की जरूरत है।  क्या सभी विद्यालय इस गुस्से और अविश्वास के काबिल हैं? सनातन धर्म, आर्यसमाज जैसी अनेक संस्थाएं शिक्षा को समर्पित रही हैं। इनका इस क्षेत्र में बहुत बड़ा योगदान भी रहा है। लेकिन कम फ़ीस के कारण अभिभावकों की अपेक्षा के अनुरूप शिक्षक और तन्त्र न दे पाने के कारण आज ये संस्थाएं अपना आकर्षण खोती जा रही हैं। समय की मांग के अनुरूप डीएवी ने अपने को बदला तो अधिक फ़ीस का लेबल भी लग गया। आखिर विकल्प क्या है? सामान्य फ़ीस पर फाइव स्टार सुविधाओं की अपेक्षा कितनी जायज है? आज देश में विद्या भारती संस्कार युक्त शिक्षा देने में सरकार के बाद सबसे बड़ा प्रयास है। विद्या भारती सामान्य फ़ीस में अच्छी शिक्षा देने के लिए संघर्षरत है। 80 से 90 प्रतिशत फ़ीस अध्यापकों के वेतन पर खर्च करती है। इसके अतिरिक्त समाज के गरीब वर्ग तक शिक्षा पहुंचाने के लिए अपनी सामर्थ्य से भी अधिक अनेक प्रयोग और प्रयास करती रहती है। लेकिन कथित अभिभावक आक्रोश की आड़ में 'गेहूं में घुन' भी पिस रहा है। कहां तो समाज को ऐसी संस्थाओं के प्रयास को प्रोत्साहित करना चाहिए और कहां सभी विद्यालयों के विरोध के साथ ही राजनीति प्रेरित या अनजाने में अभिभावक इन विद्यालयों के आगे भी नारे लगा रहे हैं, यह दुर्भाग्यपूर्ण है।
निजि विद्यालयों का शिक्षा में योगदान- निजि स्कूलों का विरोध करने से पहले हमें शिक्षा क्षेत्र में इन विद्या मन्दिरों के योगदान का बारीकी से अध्ययन कर लेना होगा। शिक्षा हमारे यहां अत्यंत साधना का विषय रहा है। हमारे यहां गुरुकुल निशुल्क ही शिक्षा देते आएं हैं। सरकार तो अंग्रेजों के बाद ही योजनापूर्वक इस क्षेत्र में उतरी है। और जब से सरकार ने शिक्षा अपने हाथ में ली तभी से शिक्षा में नैतिक मूल्यों एवम् भवन आदि के रखरखाव में भारी न्यूनता आ गयी। जब तक शिक्षा गुरुकुलों या निजी क्षेत्र के हाथ में थी हम दुनिया में सबसे ज्यादा सुशिक्षित देश थे। आजादी के आंदोलन को गति और दिशा देने के लिए राष्ट्रीय विद्यालय प्रारम्भ हुए। लाला लाजपतराय, मदनमोहन मालवीय, तिलक एवम् स्वामी दयानन्द आदि महापुरुषों ने शिक्षा को अपने हाथ में लिया और देशभक्त पीढ़ी का निर्माण किया। आज भी सरकार से  ज्यादा नहीं तो बराबर अवश्य निजी विद्यालय ही शिक्षा का भार अपने कन्धों पर ढो रहे हैं। इस योगदान के लिए सरकार और समाज की शाबाशी के बदले  निजी विद्यालय अविश्वास और आक्रोश का केंद्र बनते जा रहे हैं। मजेदार बात है कि आज भी अभिभावकों की प्रथम पसन्द निजी विद्यालय ही बने हुए हैं। यह तो 'प्यार भी और इकरार भी सब तुम्हीं से' वाली स्थिति है।
विद्यालय और अभिभावकों में अविश्वास क्यों- हमारे यहां बहुत समय से सामाजिक संस्थाएं और कुछ कुछ व्यवसायिक लोग भी सफलतापूर्वक शिक्षादान का कार्य करते आ रहे हैं। पिछले दो दशकों से जब से निजि घरानों ने शिक्षा को शुद्ध व्यवसाय के रूप में अपनाया तब से थोड़ी समस्या खड़ी होने लगी है। कहना होगा कि कुछ लोगों ने अन्य  व्यवसायों की तरह शिक्षा से जी भर कर माया बटोरी। लेकिन यहां भी हमारे अभिभावक इस स्थिति की जिमेवारी से बच नहीं सकते जो फाइव स्टार की सुविधा बच्चों के लिए चाहते हैं और ज्यादा फीस पर हाय- तौबा मचाते हैं। अब जो व्यक्ति विद्यालय पर करोड़ों रुपया खर्च करेगा तो फिर वह वहां से अच्छी आमदनी क्यों नहीं चाहेगा? इस सारे घालमेल में सबसे ज्यादा शिकार सामाजिक संस्थाएं हो रही हैं जो अपनी आय का 80 प्रतिशत से भी अधिक अध्यापकों के वेतन पर खर्च कर देती हैं। अभिभावकों को गुस्सा प्रकट करते समय संस्थागत विद्यालयों और निजि विद्यालयों में अंतर करना होगा। इसके साथ ही निजि विद्यालयों को भी विद्यालय से कितना कमाना है इसकी कोई मर्यादा निश्चित करनी होगी। अधिक लाभ के लिए उन्हें अन्य व्यवसायों में उतरना चाहिए।
विद्या मन्दिर और अभिभावक परस्पर पूरक हैं- विद्या मन्दिर संचालकों को विचार करना होगा आखिर जो अभिभावक अपने बच्चों को विश्वास कर विद्यालयों के हवाले कर देते हैं आज उन्हीं के विरुद्ध यह जनाक्रोश क्यों दिख रहा है। यहीं पर अभिभावकों को भी सोचना होगा कि अगर निजी क्षेत्र विद्यालय समेट लेते हैं तो क्या सरकार हमारे बच्चों को इससे अच्छी शिक्षा दे सकती है? अत्यंत मधुर सम्बंधों अभिभावक- विद्या मन्दिर वाला यह 'माँ -बेटी'जैसा पावन रिश्ता आज 'सास-बहू' के रिश्ते के परस्पर अविश्वास और द्वेष का रूप क्यों लेता जा रहा है? लगता है इस अविश्वास को पाटने के लिए सभी को प्रयास करने होंगें।
सरकार समाज को आगे आना होगा- लगता है कि सरकार और समाज को इस सबमे अपनी सार्थक भूमिका निभानी होगी। बिना मतलब के स्कूल प्रबन्धकों पर दबाब बनाने से कुछ हासिल नहीं होगा। सभी विद्या मन्दिरों को लुटेरों के रूप में चित्रित करने से परस्पर अविश्वास बढ़ेगा इससे किसी का भी भला नहीं होगा। एक ओर सरकार का अध्यापकों को अच्छा वेतन, भवन और प्रयोगशाला आदि की अच्छी सुविधाएँ देने का दबाब और दूसरी और फ़ीस को लेकर तरह तरह की बयानबाजी सस्ती राजनीति के सिवाय और क्या है? सरकार को दरोगा की भूमिका से आगे बढ़कर सहयोगी की भूमिका अपनानी होगी। इसके साथ ही जो लोग वास्तव में ही खुलेआम एक एक लाख की एडमिशन फ़ीस तथा भारी भरकम ट्यूशन फ़ीस लेकर अन्य विद्यालयों को भी कटघरे में खड़ा कर रहे हैं सरकर को ऐसे तत्वों को कठोरता से नियंत्रित करना चाहिए। आज तक तो ऐसे सभी बड़े ब्रांड और क्रिश्चन स्कूल सरकार और समाज के गुस्से से अछूते हैं। अभी तक तो 'गुस्सा सास पर और मारना बिल्ली को' वाली स्थिति अधिक है।