रविवार, 31 मई 2015

देशभक्ति अर्थात जन जन में हो मिटटी का हर कण पवित्र का भाव

नागरिकता या देशभक्ति- क्या नागरिकता ही देशभक्ति की कसौटी है? अगर विचार करेंगे तो ध्यान में आता है कि नागरिकता देशभक्ति का पहली सीढ़ी हो सकती है लेकिन देशभक्ति कुछ क़ानूनी प्रक्रिया से बहुत आगे की चीज है। यह सहज विकसित होती है या पर्यत्नपूर्वक मन में धारण करनी पड़ती है। देशभक्ति नितांत भाव और भावना का विषय है। इसी बात को स्पष्ट करते हुए प्रसिद्ध चिंतक, राजनेता, संघ के प्रचारक तथा भारतीय जनसंघ के मार्गदर्शक पण्डित दीनदयाल उपाध्याय अपने बौद्धिक में कहते थे कि हमारे लिए भारत मातृभूमि है भूमि मात्र नहीं। ऊपरी तौर से तो यह मात्र शब्दों का क्रम परिवर्तन जैसा लगता है लेकिन चिंतन की प्रक्रिया शुरू होते ही अंतर ध्यान में आना प्रारम्भ हो जाता है। जिन लोगों के लिए भारत भूमि मात्र है वे इस महान भूमि को उपयोगितावाद तथा भोगवाद के सिद्धान्त से देखते हैं। वे प्रकति के दोहन नहीं शोषण में विश्वास रखते हैं। वे मुर्गी के सारे अंडे एक ही दिन निकाल लेना चाहते हैं। लालच के अंधे इन लोगों को मुर्गी के जीवन की भी चिंता नहीं होती। इतना सब होने के बाद भी ए दिल अभी भरा नहीं ... की तर्ज पर हमेशा असन्तुष्ट ही रहते हैं, भारत को गालियां ही निकालते रहते हैं। भारत के प्रति कोई विशेष भावनाएं उनके मन में नहीं होती हैं। हम सब जानते हैं कि भावना विहीन व्यक्ति मशीन से अधिक कुछ नहीं होता। उसे गणेश शंकर विद्यार्थी ने तो मृतक तक की संज्ञा तक दे दी है-
जिसको न निज गौरव तथा निज देश का  अभिमान है।
वह नर नहीं,  नर पशु निरा है और मृतक समान है।।
भावनाएं ही जीवन में रस भरती हैं, इसे जीने लायक बनाती हैं। भावना और प्यार पशु तथा पेड़-पौधों तक को झूमने को मजबूर कर देता है, उसे वश में कर देता है, गुलाम बना देता है फिर मनुष्य की क्या विसात है? विज्ञान ने हमे जहां बहुत कुछ दिया है वहीं इसने हमारी प्रसन्नता छीन कर हमारे जीवन को नीरस बना दिया है। हमसे चन्दा मामा छीन लिया, बिल्ली मौसी नहीं रही, तुलसी, गंगा, गऊ या गीता आदि माताओं से भी हमें दूर कर दिया। हम एक प्रकार से सब कुछ होते हुए भी अनाथ से हो गए हैं। इसका अर्थ हम अन्धविश्वास से घिरे रहें कतई नहीं है। हमें विज्ञान से लाभान्वित होते हुए भी अपनी संवेदनाओं तथा भावनाओं को बचा के रखना होगा। आज समाज में सर्वदूर फैली निराशा, हताशा व् डिप्रेसन से बचने के लिए हमें जीवन को भावना प्रधान बनाने की जरूरत है।
मातृभूमि भारत- अनादि काल से ही हमारे लिए यह भूमि साक्षात् देवी रही है। सवेरे उठते ही हमारे पूर्वज यह श्लोक बड़ी श्रद्धा से बोलते आएं हैं- समुद्र वसने देवी पर्वतस्तनमण्डले ।
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यम पादस्पर्शमक्षमस्वमैव।।
अर्थात समुद्ररूपी वस्त्र धारण करने वाली तथा पर्वत जिसके स्तनमण्डल हैं ऐसी विष्णुपत्नी देवी को मैं प्रणाम करता हूँ। हे देवी! मैं पैरों से तुझे स्पर्श कर रहा हूँ इसके लिए मुझे क्षमा करें। हम इसे सजीव देवी मानते हैं। यही भावना हमारे शास्त्रों में अनेक ऋषियों 'माता भूमि पुत्रोsअहं पृथिव्या:।' इसी प्रकार गुरवाणी में भी यही भाव व्यक्त हुए हैं 'पवनगुरु पानी पिता माता धरत महत'। आधुनिक काल में बंकिम चन्द्र चटर्जी ने आनन्दमठ में भारत माता की स्तुति में इसे साक्षात् दुर्गा कहा है। स्वामी विवेकानन्द, महृषि अरविन्द एवम् संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरूजी आदि सभी इसे साक्षात् ईश्वर मानते थे।
प्रेरणास्रोत रही है हमारी पुण्य भूमि- स्वामी विवेकानन्द के जीवन की एक प्रेरक घटना है। जब स्वामी जी पहली विदेश यात्रा से लौट कर भारत में सुमद्री जहाज से उतरे। लोगों को आश्चर्य हुआ तब हुआ स्वामी जी स्वागत के लिए उत्सुकता से इंतजार कर रहे भारी जनसमुदाय की ओर न जाकर मिटटी में लोटपोट होने लगे। पागलों की भांति अपने ऊपर बालू के कणों को अपने ऊपर फैंकने लगे। थोड़ी देर बाद शांत और प्रसन्न मन से जनता की ओर बढ़े। बाद में पूछने पर बोले कि यूरोप के भोगवाद के जो कीटाणु मेरे शरीर और मन में आ गए थे उन्हें भारत की मिटटी से धो रहा था। इसी प्रकार एक अन्य प्रश्न के उत्तर में बोले कि विदेश यात्रा से पहले भारत को प्यार करता था लेकिन अब भारत की मिटटी का एक एक कण मेरे लिए पवित्र है। स्वामी रामतीर्थ तो स्वयं को भारत ही मानते थे। महृषि अरविन्द अपनी धर्मपत्नी को पत्र में अत्यंत सुंदर भाव से समझते हैं कि जब तक अंग्रेज हमारी भारत माता का शोषण कर रहा है भारत के प्रत्येक युवक का प्रथम कर्तव्य रागरंग छोड़ कर माँ की सेवा में स्वयं को समर्पित करे। सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता -' वीरों का कैसा हो वसन्त' में भी यही भाव आएं हैं।
क्रांतिकारियों की आराध्य रही है भारतमाता-
भारत की स्वतंत्रता को समर्पित क्रन्तिकारी भारतमाता को अपनी आराध्य मानते थे। इस माँ की आजादी के स्वयं को न्योछावर करने में धन्यता मानी। सभी क्रन्तिकारी इस श्रेष्ठ भाव से अनुप्रेरित थे-
तन समर्पित, मन समर्पित और यह जीवन समर्पित ।।
चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं।। थोडा विचार करें कि ऐसे समर्पण भाव से युक्त युवाओं के देश के लिए दुनिया क्या कुछ प्राप्त करना असम्भव है?
भारत के प्रत्येक ग्राम नगर को सन्तों ने अपनी साधना से पवित्र किया।
चन्दन है इस देश की माटी, तपोभूमि हर ग्राम है।
हर बाला देवी की प्रतिमा बच्चा बच्चा राम है।। इस गीत में भारत के इस शाश्वत सत्य की अभिव्यक्ति है। भारत में प्रायः हर मत के साधु-सन्तों ने मुक्तकण्ठ से भारतभक्ति में साहित्य सृजन जिया है। भारत में तो प्राचीन काल के शक हूण कुषाण आदि हमलावरों  से लेकर आधुनिक काल के भक्ति आंदोलन ने मुगल, मुस्लिम और अंग्रेज जैसी विश्व शक्तियों से जूझने के लिए समाज को प्रेरित ही नहीं बल्कि सफलतापूर्वक प्रतिकार के लिए खड़ा किया। हमारे ये सन्त सम्पूर्ण देश में यात्रा कर देशवासियों को देश और धर्म के प्रति जागरूक करते रहते थे। समाज जागरण के लिए गुरु नानक की उदासियां प्रसिद्ध हैं। पंजाब में गुरु परम्परा, महाराष्ट्र में समर्थ गुरु रामदास आदि ऐसे हर प्रान्त में सन्तों की लम्बी श्रृंखला है। हमारे सन्तों ने भारतभक्ति तथा धर्म भक्ति को ही इस्लाम और अंग्रेज जैसी अपने समय की अपराजेय शक्तियों से जूझने के लिए मन्त्र के रूप में प्रयोग किया। स्वंतत्रता के बाद अल्पसंख्यक तुष्टिकरण तथा वोट राजनीती ने सेक्ल्यूरिज्म के नाम पर देश का बहुत बड़ा अहित कर दिया। देशभक्ति को जनांदोलन बनाने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लाखों स्वयंसेवक प्रतिदिन महामङ्गले पुण्यभूमे त्वदर्थे का श्रद्धापूर्वक गान करते हैं। संघ आज लाखों युवकों को देशसेवा के मार्ग पर सफलतापूर्वक बढ़ाने में सफल हो रहा है। दुर्भाग्यवश स्वतंत्रता के तुरन्त बाद भारत की प्राणदायनि शक्ति धर्म, सन्तों और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को पुष्ट करने के बजाए अपमानित किया गया। इनके मार्ग में रोड अटकाए गए। इसके परिणामस्वरूप हमारे नागरिकों में देश को विश्व में नम्बर एक बनाने का का उत्साह और जज्वा गायब हो गया। देशवासी तटस्थ और उदासीन जैसे हो गए। आजादी के संघर्ष के समय का देशभक्ति का ज्वार दूध में आए तूफान की तरह शांत हो गया। सौभाग्य से दशकों बाद आज फिर युवकों में देश को दुनिया का सिरमौर बनाने का जज्वा पैदा हो रहा है। यह हमारे देश के लिए शुभ संकेत है। इस जनून को बनाए रखने और आगे बढ़ाने की आवश्यक्ता है।