मंगलवार, 17 जून 2014

नारी को माँ मानने वाले देश में क्या हो रहा है?

देश में महिलाओं के साथ हो रहे अमानवीय अत्याचारों को देख व् सुन कर हर स्वाभिमानी भारतीय का सिर शर्म से झुक जाना स्वाभाविक ही है। सामूहिक बलात्कार के बाद निर्ममतापूर्वक हत्याओं के इस नये सिलसिले ने तो हमारे युवाओं को विश्व में कहीं मुंह दिखाने का नहीं छोड़ा है। अमेरिका, इंग्लॅण्ड जैसे घोर भोगवादी देश जहाँ महिला को भोग की वस्तु मात्र माना  जाता है, नैतिक मूल्यों के वैश्विक ठेकेदार बन हमें  हमारे देश में महिलाओं पर जो रहे अत्याचार रोकने का उपदेश दे रहे हैं। महिलाओं की उनके यहाँ स्थिति जो भी हो लेकिन हमें उपदेश देने का मौका तो हमने उन्हें दे ही दिया न। अब हम यह तो नहीं कह सकते कि आपके यहाँ इससे भी बुरी स्थिति है इसलिए हमें कुछ मत कहो। आखिर कब तक हमारा युवा अपना झूठा पौरष और पराक्रम इस प्रकार महिलाओं की इज्जत से खेल कर दिखाता रहेगा? क्या हो गया अपने भारत के युवा को? जिस देश में अपनी पत्नि को छोड़ कर हर महिला की इज्जत माँ के बराबर की जाती रही हो वहां ये सब होना क्या आश्चर्य की बात नहीं  है? संस्कृत के एक श्लोक में महिलाओं के प्रति श्रद्धा का यह भाव बड़ी सुन्दरता से व्यक्त हुआ है-
      मातृवत परदारेषु पर द्र्ब्येषु लोश्ठ्वत्।
    आत्मवत सर्बभूतेशु य: पश्यति सा पंडिता:।।
अर्थात हर महिला माँ के समान होती है और दूसरे का धन मिटटी के समान होता है। जो व्यक्ति अपने समान दूसरे को समझता है सही अर्थ में वही ज्ञानी होता है। इस एक श्लोक में ही आज के विश्व की अधिकाँश समयाओं का समाधान निहित है। एक अन्य जगह हमने स्पष्ट घोषित किया है- यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता। अर्थात जिस घर और समाज में महिलाओं की इज्जत की जाती है वहां देवता निवास करते है। जहाँ देवता निवास करेंगे वहां सुख समृधि और प्रसन्नता होना स्वाभाविक ही है। इसी प्रकार सीता की खोज में भगवान श्री राम द्वारा लक्ष्मण को सीता के गहने पहचानने को कहने पर लक्ष्मण का उत्तर महिला हित के चेम्पियन्स के लिए भी मार्गदर्शक हो सकता है। उन्होंने कहा था-  न जानामि कुण्डले, न केयुरे वा।.......
।।  अर्थात भैया! मैं कान के कुंडल या केयूर आदि नहीं पहचान सकता क्यूंकि मैंने कभी भाभी के चेहरे को देखा ही नहीं है। मैंने तो हमेशा उनके चरणों में ही देखा है इसलिए पांव् का कोई गहना हो तो मैं अवश्य पहचानने की कोशिश कर सकता हूँ। जिस देश में महिला को इतना मान सम्मान दिया गया हो वहां बलात्कार जैसे घृणित कांड होना निश्चित ही विचारणीय और घोर चिंता का विषय है। कहते है की दवाई कितनी भी अच्छी या प्रभावी क्यूँ न हो अगर नियम से और नियमित तौर से न ली जाये तो परिणाम नहीं देती है। हमने अपनी संजीवनी बूटी रूपी संस्कृति की हवा अपनी नई पीढी को लगने कहाँ दी? आधुनिकता के फेर में अपनी संस्कृति को जी भर कोसा व्  नकारा है हमने! अंग्रेजी माध्यम, कोंवेंट संस्कृति के स्कूल में बच्चे भेजे, क्लब कल्चर को प्रोत्साहित किया। सह जीवन व् समलिंगी सम्बधों की वकालत करने वालों की संख्या कम नहीं है अपने देश में। ऐसे में ---'बोये पेड़ बबूल के तो आम कहाँ से  आयें-वाली कहावत चरितार्थ होती दिख रही है।
                 जो भी सू्त्र हमें हमारी संस्कृति  व् संस्कारों से जोडते थे हमने अंग्रेज के मानस पुत्रों के छलावे और बहकावे में आकर उससे किनारा कर लिया। और मजेदार बात ये सब करते हुए हम अपने को आधुनिक समझ कर  गौरवान्वित महसूस करते रहे। हमें पश्च्मीकरण के बिना आधुनिक होने का विचार करना होगा। आधुनिक होने का अर्थ है अन्ध बिश्वासों से उपर उठना, दहेज़, कन्या भ्रूण हत्या व् छुआ छुत जैसी सामाजिक कुप्रथाओं से बाहर आना है। अपनी शिक्षा आदि पर नाज करने वाले हम लोग अभी तक इन बुराईओं को तो छोड़ नहीं रहे हैं। हमें आधुनिक होने को परिभाषित करने की जरूरत है। क्या कम कपड़े पहनना, देर रात तक लडके -लड़किओं का क्लबों में नाचना- गाना व् शराब आदि पीना या बिना शादी के जवान लडके लडकी का एक कमरे में वर्षों तक साथ रहना आधुनिकता है? इसका अर्थ ये भी नहीं कि हम लड़कियों को बिलकुल घर में बाँध दें। हमें भारतीय संस्कारों और वर्तमान समय के साथ संतुलन बैठना होगा।  वास्तव में हमें ध्यान करना होगा की जिन पश्चिम देशों की अंधाधुंध नकल हम ऐसी सब बातों के लिए कर रहे हैं वहां महिला पुरुष सम्बधों का अपना अलग मनोविज्ञान है। हमारी समस्या है कि हम रहना, खाना पश्चिम की तरह चाहते हैं और महिला पुरुष सम्बध ठेठ भारतीय चाहते हैं। हमे मानव शरीर और मन के मनोविज्ञान को स्मरण रखना होगा। महिला पुरुष का शारीरिक आकर्षण युग सत्य है। इस तथ्य को हम  नकार नहीं सकते। व्यक्ति को अन्य विषयों की तरह इस संबध में ठीक व्यवहार करने के लिए मजबूत संस्कार या कानून ही प्रेरित या यूँ कहें कि मजबूर करते हैं। जहाँ ये कमजोर पड़ते हैं वहाँ मनुष्य के अंदर का पशु जाग पड़ता है। हम जानते हैं कि समाज के सुचारू संचालन के लिए कठोर कानून आवश्यक हैं लेकिन यह भी सत्य है की हर व्यक्ति के साथ पुलिस नहीं खड़ी की जा सकती। अमेरिका जैसे प्रगत देशों में भी जहाँ प्रति हजार व्यक्तियों पर एक पुलिस मैन ही उपलब्ध है और भारत जहाँ यह प्रतिशत और भी चिंताजनक है वहां केवल प्रशासन के बल पर कानून व्यवस्था कैसे ठीक कर लोगे? इसलिए महिला संरक्षण के कठोर कानून बनाये जाएँ उन्हें लागू करने के तन्त्र को चुस्त दुरस्त किया जाये लेकिन इसके साथ ही इस संवेदनशील मुद्दे पर गम्भीर और समग्रता से विचार करना आज की जरूरत है। हमे आग लगने पर कुआँ खोदने की आदत सी लग गयी है। कोई बड़ी दुर्घटना होती है खूब हाय तौवा मचती है, मोमबती लेकर हजारों लोग सडक पर आ जाते हैं, बड़े-2 प्रदर्शन होते हैं लेकिन थोड़े दिनों बाद सब अपने लून तेल लकड़ी के चक्कर में व्यस्त हो जाते हैं। हमे समाज के इस इस जनाक्रोश को स्थाई परिवर्तन में बदलने पर भी विचार करना होगा। ऐसी किसी दुर्घटना पर समाज का विशेष कर युवाओं का उबल पड़ना यह संकेत तो देता ही है की वो ऐसी दुर्घटनाओं को नहीं चाहते हैं।
   महिलाओं के अपमान की घटनाओं को रोकने के लिए हमें बच्चों को बचपन से ही इस विषय में जागरूक और शिक्षित करना होगा। आज जब घर में माँ और बहन (बहन भी सब को उपलब्ध नहीं है) ही दिखती है। अन्य स्त्री के प्रति  लगाव व् आदर का भाव का शिक्षण उसे मिलता नहीं है। आज सारे रिश्ते अंकल-आंटी में सिमट गये हैं। इसके अलावा घर में टी वी पर लडके लडकी को परस्पर चूमते चाटते सब परिजन एक साथ देखते हैं या यूँ कहें कि देखने को बेबस हैं, ऐसे में नई पीढ़ी महिला पुरुष के शारीरिक सम्बधों के विषय पर कितनी सम्वेदनशील है यह भी सर्वेक्षण का विषय है। शादी से पूर्व शारीरिक सम्बद्ध नई पीढ़ी के लिए कोई बड़ा विषय है, ऐसा नहीं लगता है। इसलिए महिलाओं के साथ हो रहे अत्याचारों पर केवल हो-हल्ला करने के बजाये इस विषय पर योग्य परिणाम लाने के लिए चहूँ और से प्रयास करना होगा। इस समस्या से प्रभावी समाधान के लिए हमारी महिलाओं को ही इस मोर्चे पर भी कमर कसनी होगी। ऐसी किसी दुर्घटना से दो चार होने पर साहस के साथ प्रतिकार करना, कानून आदि का उपयोग कर अपराधी को दण्डित करने के साथ-साथ इस समस्या के मूल में भी जाना होगा। हम विचार करें कि आखिर बलात्कार करने वाला हर लड़का किसी महिला की गोद से ही बड़ा हुआ होता है। यह स्वीकार करने कोई संकोच नहीं होना चाहिए ऐसे बच्चे के पालन- पोषण में माँ से कहीं जरुर कोई चूक हुई होती है। इसका अर्थ ये कतई नहीं कि शेष परिजनों की कोई भूमिका नहीं होती। कहना केवल इतना ही है कि बच्चे के विकास में माँ की विशेष भूमिका होती है।  हमें बचपन से हर बच्चे को महिलाओं की इज्जत करनी सिखानी होगी। यह काम माँ से प्रभावी ढंग से और कौन कर सकता है?
     हमे युवाओं को समझाना होगा
कि अगर दुर्घटनाओं के इस क्रम को प्रभावी ढंग से न रोका गया तो ऐसी किसी दुर्घटना का शिकार हमारी अपनी बहन-बेटी भी हो सकती है। और कोइ भी युवा चाहे कितना ही उदंड क्यूँ न हो अपनी बहन-बेटी के साथ ऐसी किसी दुर्घटना की कल्पना भी नहीं कर सकता है। अपनी बहन बेटी के प्रति लगाव का बचा ये जो भारतीय संस्कृति का अंश युवाओं में शेष है उसका लाभ उठा कर इस सामाजिक बुराई से प्रभावी ढंग से लड़ा जा सकता है।

रविवार, 8 जून 2014

ज्येष्ठ शुक्ल त्रयोदशी 11 जून पर विशेष - राष्ट्रभक्तों के आदर्श छत्रपति शिवाजी

राष्ट्रभक्तों के आदर्श, हिन्दू ह्रदय सम्राट व् राष्ट्रनायक छत्रपति शिवाजी का जीवन अत्यंत प्रेरक व् युवाओं को उर्जा से भर देने वाला है। भीषण विपरीत परिस्त्थियो में शिवाजी का अपने अदभुत साहस, शोर्य व् पराक्रम तथा नीति के बल पर, परिश्रम की पराकाष्ठा कर हिन्दू सम्राज्य की स्थापना कर लेना किसी चमत्कार से कम नहीं है।  शिवाजी का जीवन सामान्य व्यक्ति से लेकर शासकों तक सभी के लिए प्रेरक व् प्रसांगिक है। आज की सामजिक, राजनैतिक परिवेश में जब हिन्दू शब्द मात्र से सेकुलर खेमा घबरा उठता है, देश आतंकवाद से बुरी तरह पीड़ित है तथा हमारे अधिकांश शासकों की सुख सुविधाओं से युक्त जीवन शैली से लोग परेशान हैं ऐसे में छत्रपति शिवाजी का जीवन आशा की नई किरण जगाता है।
        प्रसिद्ध विद्वान स्व. दत्तोपंत ठेन्गडी जी ने छत्रपति शिवाजी के गुणों की चर्चा करते हुए लिखा है कि शिवाजी की तुलना संसार के अनेक गुण सम्पन्न महापुरुषों साथ की जा सकती है। सेना संचालन की दृष्टि से सिकन्दर, सीजर, हानिबाल और नेपोलियन, दारुण निराशा की घड़िओं में जनता का मनोधैर्य टिकाये रखने की क्षमता की दृष्टि से लिंकन और चर्चिल, प्रखर राष्ट्रवाद को जाग्रत और संगठित करने में मेजिनी, वाशिंगटन तथा विसमार्क, राष्ट्रनिर्माण कार्य में आत्म विसर्जन की दृष्टि से कमालपासा और लेनिन,आसक्तिरहित शासन करने में मार्क्स आरेलियस तथा चार्ल्स पंचम। आसक्तिरहित शासन करने में मार्क्स आरेलियस एवं चार्ल्स पंचम से शिवाजी की तुलना की जा सकती है।
  किन्तु सम्पूर्ण गुण समुच्चय की दृष्टि से शिवाजी की तुलना किससे करें? कल्याण के सूबेदार की सुन्दर पुत्रबहू को मातृवत सम्मानित करने वाले छत्रपति शिवाजी की तुलना अन्य किस सत्ताधीस से करें? माओ और चे ग्वेवेरा से लगभग 300 वर्ष पूर्व शिवाजी ने गुरिल्ला युद्ध तंत्र का निर्माण किया।  नेपोलियन और हिटलर के मास्को अभियान के अनुभवों के सैकड़ों वर्ष पहले , युद्ध के दौरान सम्भाव्य आपत्काल में आश्रय स्थान के नाते सुदूर दक्षिण में उपयुक्त प्रदेश सम्पादित करने की दूरदर्शिता उन्होंने दिखाई। शास्त्र के नाते जिओ पोलिटिक्स का विकास होने के 250 वर्ष पूर्व सागरी सत्ता का सूत्रपात उन्होंने प्रयासपूर्वक किया। इतिहास के जिस कालखंड में सेक्ल्युर राज्य की कल्पना पश्चिम में जन्मी भी नहीं थी, उस समय शिवाजी ने हिन्दू परंपरा के अनुकूल साम्प्रदायनिर्पेक्ष धर्मराज्य की स्थापना की।
और उस पर अपने कृत्तव से सम्पादित राज्य के प्रति पूर्ण अनाशक्ति! अध्यात्म प्रवण होने के कारण अर्जित राज्य छोड़ कर संत तुका राम के समक्ष हरी संकीर्तन में ही शेष जीवन व्यतीत करने की इच्छा प्रकट की। एक अन्य अवसर पर तो उन्होंने अपना सम्पुरण राज्य ही समर्थ गुरु रामदास के चरणों में समर्पित कर दिया।
6 जून 1674
के दिन सम्पन्न हुआ राज्यरोहण किसी व्यक्ति का नहीं माना गया बल्कि हिन्दवी स्वराज्य की स्थापना तो घोषणा थी हिन्दू राष्ट्र के सफल प्रत्याक्रमण की, हिन्दू संस्कृति के पुनरुथान की और विश्व धर्म की पुन: पर्तिस्थापना की। स्वयम शिवाजी ने समय पर घोषणा की कि हिन्दवी स्वराज्य स्थापन होना चाहिए, यह श्री भगवती की इच्छा है' राज्य धर्म का है शिव का नहीं।' इस अतुलनीय राष्ट्रपुरुष का स्मरण हमारे राष्ट्र के लिए संजीवनी के समान है।
बचपन में बादशाह के दरवार में सर झुक कर सलाम न बजाना, अपनी अदभुत कूटनीति के बल पर पिता जी को कैद से छुड़ा लेना, आवश्यक होने पर अत्यंत साहसिक निर्णय लेकर आगरा वार्ता के लिए पहुँच जाना तथा अपने से कई गुना शक्तिशाली अफ्जलखान को  उसी की भाषा में जबाब देना ऐसी अनेक घटनाएँ शिवाजी की महानता को दर्शाती हैं। ऐसे समय में जब भारत ने मुस्लिम शासकों के आगे घुटने लगभग टेक ही दिए थे, हिन्दू राजा हो भी सकता है यह आत्मविश्वाश भी हो समाप्तप्राय: हो गया था, इसलिए 'दिलिश्वरो व जग्दिश्वरो' की कहावत निकल पड़ी थी, ऐसे में शिवाजी ने हिन्दू साम्राज्य खड़ा कर लगभग असम्भव को संभव कर दिया। शिवाजी ने जीवन में लगभग 300 लड़ाइयां लड़ी लेकिन एक भी लड़ाई में शिवाजी को कोई चोट तथा हार का सामना नहीं करना पड़ा। आज जब अपने अधिकाश युवा निराशा से घिरे हैं ऐसे में उनके लिए शिवाजी के जीवन की असंख्य  रोमहर्षक, उदबोधक तथा प्रेरणास्पद घटनाएँ हमारे युवा भारत को नये उत्साह, उमंग व् भव्य-दिव्य लक्ष्य से भर सकती हैं

बुधवार, 4 जून 2014

पुण्य भूमि भारत-भारत प्यारा सबसे न्यारा-2

पिछली किश्त में हमने भारत की आध्यात्मिक विरासत से रूबरू होने का प्रयास किया । इस भाग में हम भरत के पवित्र तीर्थ, नदी व् पर्वतों की चर्चा करेंगें। हमारे ऋषियो की जीवन की ओर तथा प्रकृति की ओर देखने की दृष्टि अत्यंत सुंदर और अदभुत थी। हमने प्रत्येक नदी, पर्वत को पूज्य भाव से देखा। उनके साथ अपना रिश्ता जोड़ने का प्रयास किया। आज दुनिया भारत की इस सोच की दीवानी होती जा रही है की अगर हमने प्रकृति,नदियो व् पर्वतों को बचना है तो भारत की सोच को जीवन में अपनाना होगा। अपनी श्रेष्ठ विरासत को भूलने का ही परिणाम है की आज हमें अपनी नदियो को बचाने के लिए करोड़ों रूपये खर्चने पड़ रहे हैं।  नई सरकार ने तो गंगा की स्वच्छता के लिए अलग मंत्रालय तक का सृजन किया है। अपनी जडों से कटने के कारण हमने छ: दशकों में नदियों , पर्वतों को  समाप्त प्राय: कर दिया जिन्हें हमने लाखों सालों  तक संभाल कर रखा। अपनी इस विरासत की उपेक्षा का बड़ा कारण प्रकृति की इस अद्भुत भेंट के प्रति हमारी अज्ञानता ही है। आईये!अपनी इस दैव दुर्लभ विरासत की झलक पाने का प्रयास करते हैं। एक सुंदर श्लोक में प्रमुख पर्वतों का स्मरण होता है-
महेन्द्रो मलय: सह्यो देवतात्मा हिमालय:।
ध्येयो रैवतको विन्द्यो गिरिश्चारावलिस्त्था।।
महेन्द्र पर्वत- उड़ीसा ्रान्त के गंजाम जिले में पूर्वी घाट का उतंग शिखिर। इस पर्वत पर चार ऐतिहासिक मन्दिर विद्यमान हैं। चोल राजा राजेन्द्र ने 11 वीं सदी में यहाँ जय स्तम्भ स्थापित किया था। स्थानीय मान्यता है की भगवान परशुराम, इस पर्वत पर विचरण करते हैं। इस पर्वत से महेन्द्र- तनय दो प्रवाह निकलते हैं।
मलय पर्वत- भारतीय बाङ्ग्मय में मलयगिरि का वर्णन अनेक कवियों ने किया है। चन्दन वृक्षों के लिए प्रसिद्ध यह पर्वत कर्नाटक प्रान्त में दक्षिण मैसूर में स्तिथ है। यह नीलगिरी नाम से जाना जाता है।
सह्यो पर्वत-गोदावरी ओर्ब्क्रिश्न नदियो का उद्गम स्थल यह पर्वत महाराष्ट्र और कर्नाटक में स्तिथ है। त्र्यम्बकेश्वर, महाबलेश्वर, पञ्चवटी आदि प्रमुख तीर्थ इसके शिखरों पर या इससे निकली नदियो के किनारे स्तिथ हैं। यह पर्वत शिवाजी महाराज के शोर्य-पराक्रम का क्षेत्र रहा है। अनेक इतिहास प्रसिद्ध दुर्ग इसके शिखरों पर स्तिथ है जैसे शिवनेरी, प्रतापगढ़, पन्हाला, विशालगढ़, पुरंदर, सिंहगढ़ और रायगढ़ ।
हिमालय- भारत के उत्तर में स्तिथ सदैव हिम मंडित विश्व का सबसे ऊँचा  पर्वत हमारे स्वाभिमान का भी प्रतीक है। कालिदास ने इसे देवतात्मा की उपमा दी है। (अस्त्युत्तरस्या दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नगाधिराज:) उत्तर की ओर से विदेशी हमलावरों को रोकने के लिए चट्टान की भांति खड़ा है हिमालय। गंगा यमुना सिन्धु ब्रह्मपुत्र जैसी नदियो का जनक। भगवन शिव का प्रिय निवास हिमालय पर्वत ही है। हिमालय में गंगोत्री यमनोत्री मानसरोवर बद्रीनाथ केदारनाथ जैसे प्रसिद्ध तीर्थ स्थान हैं। देवी पार्वती का जन्मस्थान,  भगवान वेद ब्यास की कर्मभूमि। महाभारत के बाद पांडवों ने वन गमन किया था। युगों-युगों से ऋषियो मुनिओन योगिओ तपस्विओ और दार्शनिकों का वास स्थान रहा है हिमालय।
अरावली- राजस्थान का प्रमुख पर्वत जिसके आश्रय से उत्तर पश्चिम की ओर से होने वाले हमलों कस प्रतिरोध किया गया। महाराना प्रताप के शोर्य कृतव का साक्षी है अरावली। प्रसिद्ध हल्दी घाटी इसीकी चोटियो के बीच है। अरावली के सर्बोच शिखर का नाम आबू है।
इसी प्रकार गुजरात का रैवतक और भारत के मध्य में स्तिथ बिन्द्याचल भारत के प्रमुख पर्वत हैं।
अब नदिओ  का विचार करें तो एक सुंदर श्लोक भारत में अनादि काल से सस्वर बोल जाता है-
गँगा सरस्वती सिन्धुर्बह्मपुत्रश्च गण्डकी।
कावेरी यमुना रेवा कृष्णा गोद महानदी।।
गँगा- भारत की सबसे पवित्र जिसे पापनाशिनी भगीरथी जाह्नवी आदि नामों से पुकारा जाता है। गंगोत्री से निकल कर हरिद्वार में समतल में प्रवेश करती है। उत्तर प्रदेश बिहार बंगाल को अपने पवित्र जल से सिंचित करती हुई गंगा सागर में जा मिलती है। ऋग्वेद के बड़ी सूत्र के अनुसार गंगा भारत की नदिओ में सर्व प्रथम है। गंगा के तट पर हरिद्वार काशी प्रयाग जैसे अनेक सुप्रसिद्ध तीर्थ हैं। इसके तट पर आनादी काल से ऋषि मुनिओ ने साधना की है। भारत के इतिहास की साक्षी है गंगा। इसका जल अत्यंत पवित्र है। पुरानों के अनुसार विष्णु के चरणों से निकली है गंगा। राज भागीरथ अपने पूर्वजों का उद्धार करने इसे धरती पर लाये।
सरस्वती- वेदों में उल्लेखित पवित्र नदी,जो हिमालय से निकल कर वर्तमान हरियाणा, राजस्थान, गुजरात के क्षेत्रों से निकलकर सिन्धुसागर से मिलती थी। कालान्तर में यह नदी विलुप्त हो गयी। इसके तट ऋषियो की तपोभूमि रहे हैं। पुरानों सरस्वती को ब्रह्म की पत्नी,तथा वाणी की देवी भी कहा गया। सम्भव है कि इसके तटवर्ती प्रान्तों की विद्या वैभव सम्पन्नता के कर्ण इसे सरस्वती का नाम मिला हो।
सिन्धु- पवित्र नदी, जिसका वैदिक साहित्य में उल्लेख। हिमालय में मानसरोवर के निकट से निकल कर सिन्धु नदी कश्मीर पंजाब और सिंध प्रान्त से होती हुई सिन्धु सागर में जा मिलती है। ऐसी मान्यता है कि हिन्दू नाम सिन्धु से ही मिला है। सिंध ओर्न्सात सहायक नदिओन के कर्ण इस क्षेत्र कस नाम सप्त सैन्धव कहलाता था। वैदिक सभ्यता और संस्कृति यहीं फली फुली थी। आज यह नदी और प्रदेश दोनों ही पाकिस्तान में है।
ब्रह्म पुत्र- इसका उद्गम स्थल हिमालय में मानसरोवर के समीप स्थित  एक विशाल हिमानी है। यह महानद पूर्व की ओर बढ़ता हुआ असम और बंगाल में होते गंगा सागर में मिलता है। भारत में यह  सबसे लम्बी नदी है। तिब्बत में सांपों नदी के नाम से बहने के बाद अरुणाचल की उत्तरी सीमा से भारत में प्रवेश करती है। गुहावटी में इसके किनारे कामाख्या देवि का शक्ति पीठ है।
कावेरी- मुख्यत: कर्नाटक और तमिलनाडू में बहने वाली पवित्र नदी,जो कुर्ग में सह्याद्री के दक्षिण छोर से निकल कर गंगा सागर में मिल जाती है। इसके प्रवाह के बीच में आदिरंगम, शिव समुद्रम तथा अंतरंगम नाम के तीन पवित्र द्वीप समूह हैं जिन पर विष्णु मन्दिर हैं। जो स्थान उत्तर भारत में गंगा यमुना को प्राप्त है वही दक्षिण भारत में कावेरि और ताम्रपर्णी को प्राप्त है। कावेरि से निकली नहरों नें तमिलनाडु को कृषि समृद्धि प्रदान की है।
यमुना- उत्तर भारत की पवित्र नदी, जो हिमालय में यमनोत्री के शिखर से निकलकर प्रयाग क्षेत्र में गंगा से मिल जाती है। गंगा यमुना का यह संगम आस्तिकों के लिए तीर्थराज है। इस नदी के तट पर इन्द्रप्रस्थ, मथुरा, और वृन्दावन जैसे ऐतिहासिक नगर बसे हैं। नीलवर्ण नदी के साथ श्री कृष्ण का गहरा सम्बद्ध है। पुराणों में यमुना को सुर्यकन्या माना गया है। वेदों और ब्राह्मण ग्रथों में इसका उल्लेख कई बार हुआ है।
गोदावरी- ब्रह्मपुराण के अनुसार गौतम ऋषि शिव की जटा से गंगा को बर्ह्मगिरी में अपने आश्रम के के समीप ले आये। इसलिए वहां प्रकट हुई गोदावरी को गौतमी और दक्षिण की गंगा भी कहते हैं। इसका उद्गम दक्षिण के त्र्यम्बकेश्वर से है। गोदावरी महाराष्ट्र से आंध्र की ओर बढती हुई गंगासागर में विलीन हो जाती है । भगवान राम चन्द्र ने गोदावरी के समीप पंचवटी में निवास किया था। समर्थ रामदास ने इसी स्थान पर 13 वर्ष तपस्या की थी। गोदावरी के किनारे नांदेड में गुरु गोबिंद सिंह की समाधि विद्यमान है। ब्रह्म पूराण में गोदावरी के किनारे लगभग 100 तीर्थों का उल्लेख है। पंचवटी का कालाराम मन्दिर दक्षिण के पश्चिम भारत के सर्वोत्तम मंदिरों में गिना जाता है।
इसी प्रकार नेपाल के मुक्तिनाथ के समीप दामोदर कुंद से निकली गण्डकी, रेवा नदी जो नर्मदा के नाम से प्रसिद्ध हैऔर आंध्र की प्रसिद्ध पुण्यसलिला नदी कृष्णा अत्यंत पवित्र और जनमानस में गहरे बैठी नदियाँ विशेष रूप से उल्लेखनियां हैं।

सोमवार, 2 जून 2014

पुण्यभूमि भारत- सबसे न्यारा देश हमारा

अपना देश विश्व का सबसे प्राचीन देश  होने के साथ साथ सबसे श्रेष्ठ व् पवित्र देश होने का गौरव प्राप्त देश है। मनुष्य का स्वभाव है कि जो चीज उसे सहज मिल जाती है उसका महत्व वह नहीं समझ पाता है। उदा. मछली को पानी में रहते  जल सामान्य पदार्थ लगता है। इसी प्रकार मनुष्य ओक्सीजन का महत्व एक तो क्षण सांस न आये तो समझता है। गंगा, अयोध्या, काशी या चार धाम आदि के दर्शन करना हम सौभाग्य मानते हैं लेकिन इनके समीप रहने वाले लोग इस बात को लेकर हैरान-परेशान रहते हैं कि आखिर ऐसा क्या है यहाँ कि असंख्य लोग चले आते हैं। इस दोहे में यही भाव प्रकट हुए हैं-
अति परिचय से होत है, अरुचि, अनादर, अभाय
मलय गिरी की भीलनी , चन्दन देत जराय।।
अर्थात सहज समीपता से अरुचि उपेक्षा और अभी पैदा होना स्वभाविक ही होता है जैसे मलय पर्वत की भीलनी चन्दन को साधारण लकड़ी समझ कर जला देती है। अति समीपता के कारण अर्जुन भी  धोखा खा गया था। अर्जुन श्री कृष्ण को दोस्त ही समझता रहा। श्री कृष्ण का विराटरूप देख कर उसके मुंह से निकल पडा-
सखेति मत्वा प्रसभम यद्युक्तं, हे कृष्ण, हे यादव, हे सखा ! अर्थात कृष्ण का विराट रूप देख कर अर्जुन कहते हैं कि मैं तो अभी तक आपको अपना दोस्त ही समझता था। और कई बार मैंने उसी प्रकार आपको सम्बोधित भी किया है।  यह ध्यान देने योग्य है की जहाँ समीपता पूरी जानकारी के आभाव में उदासीनता पैदा करती है वहीं जानकारी हो जाने के बाद निकटता सौभाग्य में बदल जाती है। स्वामी विवेकानन्द के जीवन की घटना अत्यंत प्रासंगिक है। स्वामी जी जब पश्चिम में थे तो कई बार भारत भूमि को याद कर प्रत्यक्ष रो पड़ते थे। और जब उन्होंने वापिस लौटने पर पहला पैर भारत की धरती पर रखा तो स्वागत के लिए आये लोगों से मिलने के बजाए सीधे समुद्र के किनारे बालू की मिटटी पर लोट गये। पूछ्ने पर बोले कि भारत पवित्र भूमि है। पश्चिम में रहते मेरे शरीर और मन में चिपक गये दूषित कण इसकी छू मात्र से दूर चले जायेंगे। महर्षि अरविन्द, बंकिम चन्द्र चट्टोप्धाय एवं संघ के दूसरे प्रमुख श्री गुरु जी इसे साक्षात् जगजननी मानते थे। बंकिम चन्द्र ने अपने प्रसिद्ध गीत वन्दे मातरम में भारत माता के इसी दैवीय रूप का वर्णन कियस है। भारत की महानता को हमारे ऋषिओं ने एक स्वर से गाया है । इस सम्बद्ध में एक सुन्दर श्लोक है-
गायन्ति देवा: क़िलगीत्कानि धन्यास्तु ते भारत भूमिभागे।
स्वर्गाप वर्गास्पदहेतुभूते भवन्ति भूय: पुरुषा: सुरत्वात।। विष्णुपुरण।। 2-3-4 , ब्रह्म्पुरण 19-25
अर्थात अपनी भारत भूमि की प्रशंसा देवताओं तक ने गाई है। इसी प्रकार भारत को माँ मान कर वंदना करने सम्बधी भी एक श्लोक देखें-
माता भूमि पुत्रोsहम पृथ्वीव्या: । (अथर्ववेद) 13/1/12
प्रसिद्ध विद्वान् और संघ के वरिष्ठ प्रचारक स्व. पंडित दीनदयाल उपाध्याय कहते थे -  हमारे लिए भारत भूमि मात्र नहीं बल्कि मातरू भूमि है। यह सोचते ही हमारा इसको लेकर दृष्टिकोण ही बदल जाता है। हमारे यहाँ बजुर्ग सवेरे उठकर धरती पैर रखने से धरती से क्षमा मांगते थे।
समुद्रवसने देवी पर्वत स्तनमण्डले ।
विष्णुपत्नी नमस्तुभ्यम पादस्पर्शमक्षमस्वमैव।। अर्थात समुद्र जिसके वस्त्र है और पर्वत जिसके स्तन हैं उस विष्णु पत्नि को मैं नमस्कार करता हूँ। और इस पर पैर रखने के लिए क्षमा मांगता हूँ। भारत माता के प्रति ऐसा श्रद्धाभाव रख कर हमारे साधु, संतों व् विद्वानों ने विचार जगत की अदभुत उचाईं को छुआ। आईये! संक्षेप में थोड़ी झलक देखने का प्रयास करते हैं।
ॐ-  इसे प्रणव मन्त्र भी कहा जाता है। यह सृष्टि का आदि नाद माना जाता है। यह शब्द ब्रह्म सृष्टि में अव्यक्त रूप में व्याप्त रहता है। हर मन्त्र के प्रारम्भ और आखिर में इसका उचारण शुभ माना जाता है। आधुनिक मेडिकल साईंस भी ॐ के उचारण को स्वास्थ्य के लिए अत्यंत उपयुक्त मानती है।
प्रकृति- हमें दिखने वाली प्रकृति स्वभाव से जड़, निराकार और त्रिगुणात्मक है। यह तीन गुणों से युक्त है-सत्व, रजस और तमस। साम्यावस्था में सब कुछ अमूर्त रहता है। चेतन के सम्पर्क में आने पर साम्य भंग हो जाता है। इसी से सृष्टि का क्रम शुरू हो जाता है।
पंचभूत- यह सृष्टि पांच तत्वों से बनी है और आखिर में इन्हीं में समा जाती है। ये है जल, वायु, अग्नि, आकाश और पृथ्वी। रामायण में कहा भी गया है। क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा।
ग्रह - हमने नव ग्रहों का विचार गहराई से किया है। ये वो ग्रह हैं जो पृथ्वी और इस पर रहने लोगों को प्रभावित करते हैं। चन्द्र ग्रहण में समुद्र में ज्वार भाटा का उदाहरण।
लोक- वेदों में अनेक लोकों का वर्णन है। इनमें प्रकाश पूर्ण दैविलोक भी हैं और अंधकार में डूवे आसुरी लोक भी हैं। पुराणों में चौदह लोकों का उल्लेख - इनमें 7 उर्ध्व लोक- भूर्लोक, भुवर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपोलोक और सत्यलोक। इसी प्रकार 7 लोक ये हैं- अतल, वितल, सुतल, रसातल, तलातल, महातल और पाताल।
स्वर-  आकाश में शब्द गुण व्याप्त है। शब्द की ध्वनिमय अभिव्यक्ति स्वर है। ध्वनि की मूल इकाई श्रुति है। कुल 22 श्रुतियाँ हैं । एक से अधिक श्रुतिओं के नादमय संयुक्त रूप को स्वर कहते हैं। स्वर सात हैं। सा रे गा मा पा धा नि।
दिशा- दस दिशाओं का उल्लेख हमारे यहाँ है। उत्तर, पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, आग्नेय (दक्षिण पूर्व) नैर्त्या (दक्षिण पश्चिम) वायव्य (उत्तर  पश्चिम) ईशान (पूर्वोत्तर) उर्ध्व, अध्:
काल- भूत वर्तमान व् भविष्य ऐसे तीन कालों का वर्णन। हमने काल की छोटी से छोटी इकाई निमेश ( एक सेकंड का 17550 वां भाग) का विचार किया है वहीँ समय की सबसे बड़ी ईकाई युग और महायुग का भी। सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापर युग तथा कलियुग। इन चार युगों को मिला कर एक महायुग बनता है जिसकी कुल आयु 43,20,000 साल है। ऐसे 1000 महायुगों का एक कल्प होता है। पुराणों के अनुसार एक कल्प ब्रह्मा का एक दिन होता है और सृष्टि की एक बार की आयु होती है। सृष्टि के कल्प के बराबर ही प्रलय कल होता है। इसके बाद फिर सृष्टि का क्रम शुरू हो जाता है।  और ब्रह्मा की आयु 100 साल होती है। इसकी गणना मानवीय क्षमता के बहार ही है। इसके बाद फिर महाप्रलय होता है। भारत की पुण्याई का एक संक्षिप्त वर्णन करने का प्रयास है।