शनिवार, 24 जनवरी 2015

पंजाब में क्रांति के आदि पुरुष, धर्म संरक्षक व् स्वदेशी को जनांदोलन बनाने वाले योद्धा थे पंजाब केसरी लाला लाजपत राय

भारत की खड़गभुजा पंजाब की मिट्टी महापुरुषों योद्धाओं तथा स्वंत्रता आंदोलन में क्रांतिकारियों के जन्म के लिए अत्यंत उपजाऊ रही है। लाल, बाल और पाल की प्रसिद्ध त्रिमूर्ति में पंजाब केसरी लाला लाजपत राय का जीवन अत्यंत प्रेरक है। बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी, अनेक क्रांतिकारियों के प्रेरणास्रोत लाला लाजपत राय के प्रेरक जीवन व् दर्शन को देश विशेष कर पंजाब की युवा पीढ़ी के सामने लाना समय की बहुत बड़ी जरूरत है। युवकों को राष्ट्र व समाज समर्पित जीवन की ओर प्रेरित करने के लिए लाला जी का 150 वां जन्मवर्ष अच्छा अवसर हो सकता है। आश्चर्य है कि समाज और सरकार के स्तर पर इस दिशा में कुछ खास हलचल नहीं दिखाई दे रही है। क्या महापुरुषों को भूलने की हमारी आदत के चलते हमारा यह शेर भी इतिहास के अँधेरे में खो जायेगा? आशा है पंजाब यह भूल कत्तई नहीं करेगा। नशा व् भरष्टाचार के दलदल में डूबे पंजाब की सेहत के लिए लाला लाजपत राय का प्रेरक व्यक्तित्व युवकों के लिए दवाई का काम करेगा। लाला जी जैसे क्रांतिवीरों को याद करना स्वयं हमारी जरूरत है।  किसी ने बहुत सुंदर कहा है-
तुमने दिया देश को जीवन, देश तुम्हें क्या देगा।
अपनी लौ को जीवित रखने, नाम तुम्हारा लेगा।। आइये! उस महापुरुष के प्रेरक जीवन के विशाल समुद्र में थोडा डुबकी लगाने का प्रयास करें।
पिता को धर्म बदलने से रोका- प्रसिद्ध अग्रवाल वंश में पिता राधाकृष्ण तथा माता गुलाब देवी की गोद में 28 जनवरी 1865 को फिरोजपुर के ढुडीके गाँव में इनका जन्म हुआ। ये मूलत: मलेरकोटला के रहने वाले थे। इनके दादा जी व्यवसाय के लिए जगराओं आ बसे थे।  यद्यपि गुलाब देवी अनपढ़ थीं लेकिन वे धर्म और संस्कारों की दृष्टि से अत्यंत सजग और सूझवान थीं। लाजपत राय के मन में अपने देश धर्म और संस्कृति के संस्कार कूट कूट कर भरे थे।  पिता जी उर्दू अध्यापक थे। पिता जी अपने मौलवी अध्यापक के कारण इस्लाम से अत्यधिक प्रभावित थे। रहन-सहन, आदत और सोच से वे पूरी तरह मुसलमान की तरह व्यवहार करते थे। बार बार मुसलमान बनने की इच्छा जताते रहते थे।  इस कारण इनकी माता जी को कितना मानसिक कष्ट होता होगा इसकी कल्पना की जा सकती है। जब लाजपत अभी शिशु ही था उस समय एक बार वे मुसलमान बनने के लिए घर से निकल पड़े थे। लेकिन माता जी के जबरदस्त आग्रह और इस शिशु के भारी क्रंदन के कारण वे अपने मिशन में असफल रहे। माता जी ने धर्म और इज्जत की रक्षा में बालक के जबरदस्त रुदन को कारण माना और इसका नाम लाजपत रख दिया। इसके बाद बच्चे के योग्य पालन पोषण तथा संस्कारित करने के उद्देश्य से गुलाब देवी माता जीजाबाई की तरह शिशु को लेकर मायके ढुडीके आ गयी।
रोगी लेकिन मेधावी छात्र
लाजपत राय बचपन से ही मेधावी छात्र थे। भयंकर रोगों से जूझते हुए भी अनेक परीक्षाओं में वे प्रथम आते थे। 1880 में कलकत्ता विश्व विद्यालय की प्रवेश परीक्षा प्रथम श्रेणी में पास की। उसी वर्ष पंजाब विश्व विद्यालय की प्रवेश परीक्षा भी उत्तीर्ण की। पंजाब विश्व विद्यालय लाहोर में प्रवेश लिया। इसके साथ ही इन्होंने कानून की पढ़ाई भी शुरू की। पढ़ाई के साथ साथ इन्होंने भारत के इतिहास और महापुरुषों की जीवनियों का गहरा अध्ययन किया। यहीं से इनके जीवन का लक्ष्य निर्धारित हो गया।
आर्यसमाज में सार्वजनिक की जीवन की शुरुआत- स्वामी दयानन्द द्वारा स्थापित आर्यसमाज उस समय युवकों के आकर्षण का केंद्र था। 1882 में लाला जी आर्यसमाज के सदस्य बने। 1883 में कानून की प्रथम परीक्षा पास की। घर की स्थिति को देखर कर जगराओं में मुख्तारी शुरू की। 1886 में वकालत पूरी कर हिसार में वकीली का व्यवसाय प्रारम्भ किया। भारत में उपलब्ध न होने पर इंग्लैण्ड से इटली के महान क्रान्तिकारी मेझनी की जीवनी मंगवायी।
वकालत अच्छी चली। उस समय इनकी मासिक आय एक हजार रूपये थी। लेकिन अच्छा पैसा कम कर आराम जी जिंदगी बिताना इनका ध्येय नहीं था।  इनकी आय का दशांश देश कार्य के लिए रहता था।
राजनीति में प्रवेश- 1888 में इन्होंने राजनीति में प्रवेश किया। इसके लिए उन्होंने कांगेस को माध्यम बनाया। इन्हीं दिनों सर सैयद अहमद ने कांग्रेस से त्यागपत्र देकर मुस्लमानों को कांग्रेस में नहीं जाने तथा अंग्रेजों का समर्थन करने का आह्वान किया। लाला जी ने इनका जोरदार विरोध किया। दे्शसेवा के अपने कार्य के लिए लाहौर बड़ा मंच उपयोगी लगा। वे 1882 में लाहौर आ गए। लाला जी जननायक होने के साथ साथ एक ओजस्वी लेखक भी थे। इन्होंने मेझनि, गोरीबाल्डी, भगवान श्री कृष्ण, शिवजी तथा स्वामी दयानन्द के जीवन चरित्र लिखे।
ईसाई मिशनरियों को मुंह तोड़ उत्तर-  दीन दलितों की सेवा करने को लाला जी हमेशा तत्पर रहते थे। 1896 में मध्यप्रांत में भीषण अकाल पड़ा। लोगों को ईसाई बनाने के लिए इस अवसर का ईसाई मिशनरियां भरपूर उपयोग कर रही थीं। लाला जी ने स्वयं मोर्चा सम्भाला। जबलपुर, बिलासपुर आदि जिलों के 250 से ज्यादा अनाथ बालकों को पंजाब ला कर अनाथालय में रखा। सन् 1899 में पंजाब, राजस्थान, गुजरात तथा मध्यप्रांत में फिर घोर अकाल पड़ा। लाला जी आर्यसमाज के सैकड़ों कार्यकर्ताओं का नेतृत्व करते हुए पूरे जोरशोर से सेवा कार्य किया। 2000 से अधिक लोगों की सेवा कर उनके धर्म की रक्षा की। इस दौरान कई बार ईसाई मिशनरियों से उनका संघर्ष भी हुआ।
अंग्रेजों को उनके घर में ललकारा- 1905 में इंग्लैण्ड में चुनाव थे। कांग्रेस ने गोपाल कृष्ण गोखले और लाला जी को वहां की जनता के सामने भारत की जनता की स्थिति बयान करने के लिए इंग्लैण्ड भेजने की योजना की। लाला जी को वहां निराशा ही हाथ लगी। इन्हें विश्वास हो गया की भारत का भविष्य हमें स्वयं ही संवारना होगा। इसके लिए संघर्ष, स्वदेशी का उपयोग और विदेशी वशतुओं का बहिष्कार को हथियार बनाना होगा।
शासन का क्रोध- मेरठ में स्वंत्रता संग्राम की 50 वीं वर्षगांठ मनाने की तैयारी चल रही थी। इसी समय पंजाब में अंग्रेजों ने पानी का किराया बढ़ाया। लाला जी तथा कुछ अन्य वकील किसान नेताओं की सहायता के लिए खड़े हो गए। अंग्रेजों का क्रोधित होना स्वभाविक ही था। पजाब के राज्यपाल सर डेन्सिल ईबेट्सन ने भारतीय मामलों के मंत्री लाई मोर्ले को लिखा- ऐसा लगता है कि लाला जी जैसे कुछ नेताओं ने अंग्रेजों को किसी न किसी प्रकार भारत से बाहर करने की प्रतिज्ञा की है। जनता में अंग्रेजों के प्रति विद्वेष निर्माण कर शासन यन्त्र को विच्छिन्न करने का प्रयास चालू है'। इसी समय शासन द्वारा उपनिवेश बनाने का कानून, जमीन तथा पानी के किराये में वृद्धि आदि बातों पर चल रहे आंदोलन इकट्ठे हो गए। अंग्रेजी शासन ने बिना कारण बताए लाला जी तथा शहीद भगत सिंह के चाचा सरदार अज़ीत सिंह को मांडले भेज दिया। जनता के भयंकर विरोध के बाद इन्हें वापिस भारत लाना पड़ा।
विदेशों में जा डटे
लाला जी 1914 में कांग्रेस के एक कमीशन के साथ इंग्लैण्ड गए। भारत लौट कर अंग्रेजों की जेल में पड़े रहने के बजाए वे अमेरिका चले गए। सार्वजनिक भाषण, इंडियन होम लीग तथा इंडियन इंफॉर्मेशन ब्यूरो की स्थापना की। 'यंग इण्डिया' नामक समाचार पत्र प्रारम्भ किया। यहीं इन्होंने आर्य समाज तथा इंग्लैंड डेट इन इण्डिया ऐसी दो पुस्तकें लिखी। यहां इनका जीवन अत्यंत कठिन था। अपना खाना खुद बनाते थे। लेखन तथा पुस्तक प्रकाशन से अपना खर्च चलाते थे। यहीं इन्हें जलियाँवाला बाग हत्याकांड की जानकारी मिली। दिसम्बर 1919 को वे अमेरिका से लन्दन पहुंचे। यहां प्रसिद्ध लेखक बर्नार्ड शॉ से मिले।
असहयोग आंदोलन-  लाला जी फरबरी 1920 में स्वदेश लौटे। लोकमान्य तिलक एनी बेसेंट तथा जिन्ना ने इनका जोरदार स्वागत किया। कांग्रेस के सितंबर 1920 के विशेष अधिवेशन का अध्यक्ष चुना गया। 1921 के असहयोग आंदोलन में लाला जी के ओजस्वी भाषणों का सेक अंग्रेज के लिए सहन करना मुश्किल हो रहा था। लाला जी ने लाहौर में राष्ट्रीय शाला (नेसनल कालेज ) की स्थापना की। लाला जी प्रतिबन्धित हुए। 18 माह की सश्रम कारावास की सजा सुनाई गयी। जनता के तीब्र विरोध के कारण रात को 1 बजे छोड़े गए। लेकिन दरवाजे पर ही पुन: बन्दी बना लिए गए। एक अन्य आरोप में दो वर्ष की सश्रम सजा मिली। जेल में स्वास्थ्य बिगड़ गया। जनता के भारी विरोध के चलते फिर मुक्त करना पड़ा।
हिन्दू संगठन-  यद्यपि लाला जी हिन्दू मुस्लिम एकता के पक्षधर थे तो भी वे हिन्दू धर्म के कट्टर अभिमानी थे। मुस्लिम सम्प्रदायिकता का मुकाबला करने के लिए इन्होंने हिन्दू शुद्धि तथा हिन्दू संगठन का कार्य प्रारम्भ किया। इसी समय इन्होंने आशंका व्यक्त की कि ' आगे चल कर मुसलमानों द्वारा भारत को विभाजित कर  अपने लिए अलग राष्ट्र निर्माण की मांग रखी जा सकती है।' 1925 में कलकत्ता में हुई हिन्दू महासभा का अध्यक्ष लाला जी को बनाया गया। 1926 में जेनेवा में अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक सम्मेलन में भारतीय श्रमिकों के प्रतिनिधि बन कर गए। लोगों के आर्थिक उत्थान के लिए पंजाब नेशनल बैंक तथा लक्ष्मी इंस्युरेन्स की भी स्थापना की।
पंजाब के सिंह तथा भारत के वीर सपूत का महा बलिदान- 1927 में केथरीन मेयो नामक अंग्रेज महिला ने भारत का अधय्यन कर मदर इण्डिया नामक पुस्तक लिखी। इसमें मात्र भारत की निंदा और आलोचना की गयी। लाला जी चुप नहों बैठ सके। उन्होंने अन्हेपी इण्डिया पुस्तक लिख कर उस पुस्तक का खण्डन किया। असहयोग आंदोलन के बाद भारत के संविधान का विस्तार करने और आवशयक सुधर के लिए अंग्रेज ने जॉन साइमन के नेतृत्व में एक कमिशन का गठन किया। इसमें एक भी भारतीय सदस्य नहीं था। लाला जी के नेतृत्व में इस कमीशन का विरोध करने का निर्णय हुआ। 30 अक्टूबर 1928 को इतिहास का कला दिन। इस दिन साइमन कमीशन लाहोर आने वाला था। लाला जी के नेतृत्व में पूरा लाहोर विरोध में उतर आया। पुलिस ने लाठी चार्ज शुरू कर दिया। सुखदेव यशपाल भगवती चरण बोहरा लाला जी घेर कर खड़े हो गए। पुलिस अधिकारी स्कॉट ने लाला जी के रक्षकों पर प्रहार करने का आदेश से दिया। सांडर्स नामक अधिकारी लाला जी पर लाठियां बरसाने लगा। परिस्थिति और न बिगड़े इस लिए लाला जी ने क्रन्तिकारी मित्रों को वहां से चले जाने को कहा। लाला जी पर हुए हमले के विरोध स्वरूप् पंजाब उबल रहा था। लाला जी ने किसी प्रकार युवकों को कोई भी कदम उठाने से रोके रखा था। 17 नम्वबर 1928 को हृदय आघात से स्वर्ग सिधार गए। पंजाब की जवानी इससे बुरी तरह आहत थी। इनकी मृत्यु के एक महीने बाद ही भगत सिंह ने पुलिस अधिकारी सांडर्स की गोली मार कर हत्या कर दी। गुलामी की जंजीरों में जकड़े भारत के लिए लाला जी का सन्देश था- याचना या प्रार्थना करने से कभी स्वांत्रत्य कभी नहीं मिलेगा। उसके लिए संघर्ष और बलिदान की आवशयकता है।'

बुधवार, 7 जनवरी 2015

PK फ़िल्म पर कवि का अभिमत

PK फिल्म पर बन रहे बवाल पर एक कवि मित्र की ताजा कविता:

ना महंत हूँ न पंडा हूँ,ना ही कोई पुजारी हूँ,
निज परम्परा और धरम का ना कोई व्यापारी हूँ,

मैं बस एक सनातन धर्मी,थोडा सा झुंझलाया हूँ,
आज शाम को आमिर तेरी फिल्म देखकर आया हूँ,

सीधे सीधे कुछ सवाल है,ज़रा खोलकर कान सुनो,
सुनो हिरानी,सुनो चोपड़ा,प्यारे आमिर खान सुनो,

इस दुनिया के हर मज़हब में कहाँ नही कमियां बोलो,
और अछूती रीति रिवाजों से है कब दुनिया बोलो,

इंसानों के बने बनाये तौर तरीके शामिल हैं,
हर मज़हब को अपने किस्से अपने लहजे हासिल हैं,

धर्म सनातन आडम्बर है,और कहानी गढ़ लेते,
लेकिन चोट मारने से पहले गीता ही पढ़ लेते,

आडम्बर ही था दिखलाना,तो कुछ और बड़ा करते,
हर मज़हब के आगे,इसका मुद्दा आप खड़ा करते,

केवल धर्म सनातन ही क्यों तुमको चुभा बताओ जी,
कहाँ नही आडम्बर,कोई मज़हब तो दिखलाओ जी,

आडम्बर है यदि शिव जी को दूध चढ़ाना,मान लिया,
गौ माता को चारा देना,तिलक लगाना,मान लिया,

तो फिर सारी दुनिया आडम्बर है बस आडम्बर है,
होली ईद दीवाली वैसाखी क्रिसमस आडम्बर है,

लक्ष्मी दुर्गा शिव गणेश गर राह पड़े आडम्बर है
तो मस्जिद के पत्थर पत्थर बहुत बड़े आडम्बर हैं,

भूल गए तुम टोपी जालीदार दिखाना भूल गए,
आडम्बर नमाज़ पढना है,ये बतलाना भूल गए,

अमरनाथ पर तंज कसे पर हज का चर्चा भूल गए,
मस्जिद बनने पर मिलता सरकारी खर्चा भूल गए,

अगर लेटकर मंदिर में आना जाना आडम्बर है
तो फिर या हुसैन कहकर कोड़े खाना आडम्बर है,

नहीं दिखाए तुमने कटते गाय बैल और बकरे क्यों,
केवल हिन्दू परम्परा के तौर तरीके अखरे क्यों,

हमने  तो धागे बरगद के चारों ओर बंधाएं है,
तुमने हज में जाकर बोलो किसके चक्कर खाए हैं,

तुम ज्ञानी हो अगर तुम्हे मंदिर आडम्बर लगते हैं,
हमको भी मस्जिद के सब मंज़र आडम्बर लगते हैं,

सत्यमेव जयते के नायक,आधा सत्य दिखाया क्यों,
छुपा लिया इस्लाम,सनातन धर्म मिथक बतलाया क्यों,

ये सवाल कुछ ऐसे हैं जिनका जवाब देना होगा,
कलाकार हो समानता का भी हिसाब देना होगा,

इस पीके से खूब कमा लो,मौका तुमको दिया चलो,
पक्षपात जो किया आपने,माफ़ आप को किया चलो,

शर्त यही है थोड़ी हिम्मत लानी होगी छाती में,
अगली पीके फिल्म बनाओ जाकर आप कराची में

रविवार, 4 जनवरी 2015

India Pak relationship

For a any successful foreign policy it is required that you know the nature, aims & intentions of your neighbors. It is sorry to say that we miserably failed on this front may it be Pak, Bangladesh or China. It will be more accurate to say that we hardly felt any need for this as well. We as a nation are satisfied with our territory but may it be Pak or China they are very much interested in expanding their empires. While China wants to engulf the whole Asia, the Pak wants to rule India again like their Muslim ancestors. They have made plans and are behaving accordingly. But we because of our innocence while dealing these brothers of Mohammad  Gouri  are failing badly & paying heavy price of our beloved land, money & valuable lives of our soldiers.
Before discussing the present Indo- Pak relationship scenario it will be better to go back in history. It is said- History if studied & discussed honestly happens to be the best teacher. Our history will help us in answering many questions like how Pakistan was born? Who is responsible for the partition of this great country? Why in spite of continuous & honest efforts of Delhi relations with Pak are not getting normal? Instead our all efforts badly  back fired. Here Hindi proverb seems right- मर्ज बढ़ता ही गया ज्यूँ ज्यूँ दवा की...!
          We know that ours is ancient country having a glorious past. We faced many invaders for last two thousand years. It is interesting to know that we have spent more years in battle field than the total age of many countries in the world. We fought, struggled with our full strength. Many times we lost but never accepted defeat permanently.
Our this period of two thousand years is mixer of defeats & victories.
The one thing to notice is that after defeating we  successfully digested these invaders within us. This is not less than any wonder. It happened only here in Bharat that we made them either to go back or get mixed with this great culture. We made great warrior of their time Shak, Hun,  kush an,  Mughal to love & respect our culture. Many of them accepted Hinduism and became part of this great nation. We had successfully started this process of  Indianisaton of Islam too but at the same time Britishers entered India. The clever Englishmen started process of breaking Hindus & Muslims who had fought together 1857 ie 1st war against England. Unfortunately our the then leadership could not understand the Britishers notorious designs. This way we can say that  the birth of Pakistan is failure of our leaders & victory of the cunning  Englishmen.
This glimpse of history will help us to understand the real problems with our cordial Indo Pak relationship. Actually our New Delhi always worked with the minority appeasement policy within & even outside when dealing with neighbors too. Delhi never dared to speak & follow the truth just with a theory that with our tough dealing with Pak our Muslims will get annoyed. This gave Pak's & some elements of our own Muslims brother S's  nuisance as well as a undue value & encouragement from its very birth.
Let's have a brief look on blunders committed by Delhi
We gave our countrymen's hard earned 55 crores rs as help to start Pak as a nation.
We stopped our army when we were to win a handsome piece of pak territory.
We lost on table but we won in the battlefield at the cost of our jawans.
We never talked of our prisoners of war of 1965 & 71 as well when we left their 93000 soldiers well fed for months. interestingly it was a world record but it was for no use for our  pow.
We left Pak unpunished for its Kargil misadventure.
We always took & dealt pak soft for regular unprovoked selling on border paying high cost of the valuable lives of our soldiers.
This list is very long then how can u dream peace with our neighbor who is always misdealt. U can Cant buy peace always. It should be good wish of all concerned. We will have to talk to pak in the languages it understands. We have to place shri Guru Gobind Singh's words as the guiding principles of our foreign policy- न भय काहू को देत है न भय मानत आप। first we have to work how China leaves Pak. And make America to understand Pak's designs. We should tell America that she Cant expect our favor while playing soft with Pak unless this our foolish child nation pak stops playing the game of terrorism. For this we should take the UNO to attack terrorists camps in Pak.
So We will have to draft our foreign policy on realistic ground to yield required results.