गुरुवार, 7 अगस्त 2014

विजय दिवस 16 दिसम्बर 1971 जब भारत के सिंह सपूतों ने बदल दी इतिहास की धारा!

विजय कुमार नडडा

यद्यपि केंद्र में नई सरकार ने विदेश नीति को धार देने की कोशिश अवश्य की है। काफी समय से देश इस दिशा में कुछ सकारात्मक पहल की प्रतीक्षा कर रहा था। मोदी सरकार की इस मर्दानगी वाली पहल से देश ने राहत की साँस ली है। यह घोर बिडम्बना ही है कि भगवान श्रीकृष्ण व चाण्क्य जैसे धुरन्धर कूटनीतिज्ञों के वशंज हम अभी तक विदेश नीति के महत्वपूर्ण मोर्चे पर बुरी तरह असफल ही रहे हैं। हमारी विदेश नीति की असफलता के कारण युद्ध में शहीदों का रक्त बहा कर जीती लड़ाइयां हम वार्ता की मेज पर हारते आयें हैं। अब देशवासी चीन और पाक से आक्रामक सम्बद्ध चाहते हैं। श्री गुरू बाणी  के इन शाश्वत वाक्यों को हमारी विदेश नीति का प्रेरणा सूत्र बनते देखना चाहते हैं -
न काहू को भय देत हैं न भय मानत आप।
अब तक लचर विदेश नीति के चलते हमें घर और बाहर सब जगह घोर अपमान सहन करना पड़ा है । हमारी इसी असफलता के कारण आज भारत के ऐतिहासिक विजय दिवस पर होने वाली ख़ुशी पाक की जेलों में सड़ रहे अपने बहादुर वीर सपूतों को याद कर रफुचक्र हो जाती है। हमारी सरकार ने उन बहादुर नौ जवानों को उपेक्षा के अन्धेरे कुंए में डाल दिया है जिनके बल पर हमारे देश ने इतिहास रचा था। सबसे बड़ा दुःख हमारे समाज का अपने उन जावांज सैनिकों को भूल जाना है । आखिर कब तक हमारे वीर सपूतों का बलिदान इसी प्रकार अपमानित होता रहेगा ?  भारत के रणवांकुरों का युद्ध के मैदान में साहस , शौर्य व पराक्रम वास्तव में देखते ही बनता है । युद्ध में शत्रु के लिए साक्षात काल ही बन जाते हैं हमारे सूरवीर।
जब रण करने को निकलेंगे भारत मां के दीवाने, धरा धंसेगीे तूफान मचेगा व्योम लगेगा थर्राने ’ युद्ध के मैदान में कवि की ये पंक्तियां साकार हो जाती हैं। 1971 के युद्ध में भारतीय सैनिकों का विराट रुप पाक सैनिकों ने देखा तो सकपका गए थे । ठीक ऐसे ही जैसे महाराजा रणजीत सिंह के सेनापति नलवा के पराक्रम को देख कर युद्ध से जान बचा कर भागा कवि मुल्ला रसीद तो जेहाद की भाषा ही भूल गया था । युद्ध की बात चलने पर वह हर बार अपने पांवों को चूमता था। कारण पूछने पर बताता था कि इन्हीं पैरों के बल पर वह युद्ध से जान बचा कर भाग पाया था वरना निहंग तो मेरा कचुमर ही निकाल देते । लेकिन 1971 में भारतीय सैनिकों ने पाक के सैनिकों को भागने का यह मौका भी नहीं दिया था । द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यह अब तक सबसे बड़ा आत्मसमर्पण था। लेकिन यह समर्पण कई देशों की संयुक्त सेना के सामने था । किसी एक देश की सेना के सामने इतनी बड़ी संख्या में शत्रु सैनिकों का आत्मसमर्पण का विश्व रिकार्ड भारत के ही नाम है ।
मात्र 12 दिन में ही उतार दी पाक की हेकड़ी -
      दिसम्बर 3 को रिट्रीट की परेड चल रही थी कि अचानक पाक की सेना ने सारे नियम, मर्यादा तोड़ते हुए भारत पर आक्रमण बोल दिया। ध्वज उतार रहे तीन सैनिक शत्रु की गोली से शहीद हो गए, फिर भी चोैथे सैनिक ने अपनी उखड़ती सांसों के साथ ध्वज को सुरक्षित पहुंचा कर ही दम तोड़ा। इस अचानक आक्रमण से भारत को सैकड़ों सैनिकों के जीवन की कीमत चुकानी पड़ी। आज भी फाजिल्का में उन शहीदों का स्मारक पाक की नीचता व अविशवसनीयता का गवाह है । इसके साथ ही हमारे शूरवीरों का बलिदान चीख -चीख कर देश को सावधान करता रहता है । ये अलग बात है कि सरकार ने ' हम नहीं सुधरेंगे’ का ही रूख अपनाया है। काश! हमारे राजनेताओं व प्रशासनिक अधिकारियों के लाल भी सेना में होते और उनमेें से भी किसी ने शहीदी का जाम पिया होता तो शायद बात कुछ और होती । कवि के शब्दों में हमारा शहीद राजनेताओं से इस प्रश्न में अपना दर्द व्यक्त कर रहा है -
तुमने कितना रक्त दिया है कितने वारे लाल हैं ,
किस किस का उत्तर दोगे मेरे बहुत सवाल हैं ।
तुुमने सदा रक्त पीया है, मेरी हर उम्मीद का,
पूछे रक्त शहीद का यह, बोले रक्त शहीद का ।।‘
पाक के हवा हुए दावे-
भारत के शूरवीरों ने पाक के हमले की हवा 12 दिन में ही निकाल दी । 15 दिसम्बर को पाक की पूर्वी कमान का प्रमुख आमिर अब्दुल्ला खान नियाजी युद्ध रोकने की फरियाद करने लग पड़ा। भारत के हथियार छोड़ने को कहने पर ये पाकि शूरवीर ! जान बचने की आशा में हथियार तो क्या छाती के वैज भी उतार फैंकने को उतावले हो गए थे । भारत के लैफिटीनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने पाक के 93000 सैनिकों ने हथियार डाल दिए। इसके अलावा 3703 पाक के सैनिक पश्चिम कमान में आत्मसमर्पण कर चुके थे । इस प्रकार यह 97000 सैनिकों और पाक के 90 गांव अर्थात 9047 वर्ग किलो मीटर भूमि भी जीतने का विश्व रिकार्ड भारत के नाम आ गया । पाक के धुटने टेकने का दस्तावेज, पाक की बहादुरी! का मुंह बोलता प्रमाण है । इस ऐतिहासिक दस्तावेज में साफ लिखा है -पाकिस्तान की पूर्वी कमान इस बात पर सहमत है कि समस्त पाकिस्तान की सशत्र सेनाएं जिनमें जल, थल, वायु व अर्द्धसैनिक बल भी शामिल हैं भारत और बंग्लादेश सेना के प्रमुख लै. जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के समक्ष आत्मसमर्पण कर दें । लै. जनरल अरोड़ा का फैसला अन्तिम होगा। समर्पण का अर्थ समर्पण ही है जिसकी कोई और व्याख्या नहीं की जा सकती ।‘ यह भी एक संयोग ही था कि लै. जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा और पाक के पूर्वी कमान के प्रमुख नियाजी बचपन के दोस्त थे ।
युद्ध में जीती बाजी टेबल पर हारी - बड़े दुःख के साथ यह कहना पड़ता है कि हर बार की तरह हमारे सैनिकों का बलिदान यहां भी बेकार कर दिया गया। हमारे सैनिकों के खून से प्राप्त ऐतिहासिक उपलब्धि 3 जुलाई के शिमला समझौते में मिट्टी में मिला दी गई । श्रीमति इन्दिरा गान्धी ने साहसिक निर्णय ले कर जो इतिहास रचा था वह उनके अपने ही अदूरदर्शी निर्णय से शुन्य में बदल गया । पाकिस्तान से बंग्लादेश अलग कर हमने अपने एक शत्रु से दो शत्रु खड़े कर लिए । आज बंग्लादेश में हिन्दु नेस्तोनाबूद कर दिए गए हैं । पाकिस्तान से मुक्त कराई गई अपनी ’सोनार बंग्ला ‘ भूमि को हम भारत में मिला कर मातृभूमि के विभाजन के पाप को कुछ कम कर सकते थे । इस समय हम पाकिस्तानरुपी ’सांप के मुंह से मणी निकाल कर‘ उसे सदा के लिए श्रीविहीन कर सकते थे। अपने बंदी सैनिकों के कारण पाक प्रधानमन्त्री जुल्फीकार अली भुटटो अत्यंत दबाव में था । उससे कश्मीर तो क्या हम चाहते तो लाहौर भी ले सकते थे । लेकिन हर बार की तरह इस बार भी डूबी किश्ति वहीं जहां पानी कम था ‘ की तर्ज पर वार्ता की मेज पर सब गुड़ गोबर कर दिया गया । हमने पाक के 97000 हजार सैनिक साल भर खिला पिला कर छोड़े, पाक से जीती 9047 वर्ग कि. मी. जमीन छोड़ी लेकिन अत्यंत शर्म की बात यह है कि हम उसी युद्ध में अपने 76 युद्धबंदियों को नहीं छुड़ा पाए । भारतीय नेतृत्व के लिए इससे बढ़ कर लज्जा की और क्या बात हो सकती है ? भारत सरकार अपने बहादुर सैनिकों के प्रति अपराधिक हद तक उदासीन है । अपने 76 युद्धबंदियों की बात हमारी संसद भी स्वीकार कर चुकी है। 1971 में अमरीकी जनरल जैक मैकर ने अपनी पुस्तक में भारतीय युद्धबंदियों के सम्बंध में लिखा है । इसी प्रकार बी.बी.सी की संवाददाता विक्टोरिया स्कोफिल्ड ने अपनी पुस्तक ’भुटटो ट्रायल एण्ड एक्सीक्यूशन में लिखा है कि जिस जेल में भुटटो थे वहां रात को रोने -चिल्लाने की आवाजें आती थी । भुटटो रात को सो नहीं पाते थे । लेखिका ने जेलर से पूछा कि ये कौन हैं ? इस पर जेलर ने बताया कि ये भारतीय सैनिक हैं । स्वयं बेनजीर भुटटों 1981 में 41 युद्धबंदियों की बात स्वीकार कर चुकी है । क्या भारतीय सैनिकों की वे चीखें भारत के शौर्य , स्वाभिमान व बढ़ते प्रभाव को चुनौती नहीं हैं ? क्या दुनिया में भारत के अलावा और भी कोई देश अपने सैनिकों के प्रति इस हद तक निर्मोही व उदासीन है ? अपने सैनिकों को भूलने में सरकार के साथ साथ हमारे समाज ने भी कोई कसर नहीं छोड़ी है । आज का दिन हमें अपने सैनिकों के बलिदान की इज्जत करने का आहवान करता है । हमें युद्ध की जीती बाजी वार्ता की मेज पर हारने का सिलसिला अब रोकना होगा । पाक के स्वभाव को ठीक समझ कर उससे निपटने के लिए व्यावहारिक नीति बनाने की आवश्यकता है । पाक की बहादुरी हमारे सैनिकों ने कई बार तोली है । आज उसकी सारी उछल कूद उसको ले कर हमारी स्पष्ट और व्यावहारिक रणनीति न होने के कारण है । वह हमारी एक गम्भीर धमकी मात्र से रास्ते पर आ जाएगा । हमारी उदासीनता को कमजोरी मान कर पाक हमें युद्ध के बाद अब आतंकवाद के जख्म देता रहता है और हम असहाय हो न जाने किस मजबूरी के चलते सब सहन करते जाते हैं । आज जरुरत है कि हम कल्पना की दुनिया से बाहर निकल कर अपने सैनिकों व आतंकवाद का शिकार हो रहे नागरिकों के मूल्यवान जीवन से खेलना बंद करें । ’विजय दिवस‘ पर हम पाक की जेलों में सड़ रहे अपने बहादुर सैनिकों को शीघ्र मुक्त कराएं ,यही हमारे अपने शहीद सैनिकों के प्रति दे की श्रद्धांजलि होगी ।

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