मंगलवार, 1 दिसंबर 2015

कैसे बनें हम भऱष्टाचारमुक्त राष्ट्र व् समाज?

जो देश शिष्टाचार और जीवन मूल्यों के लिए जाना जाता था आज वहां सब जगह गहरी जड़ें जमाये बैठे भरष्टाचार को देख कर हैरानी होती है। आज स्थिति यहां तक आ गयी है कि आज ये सब जीवन मूल्य हाशिये पर चले गए लगते हैं। इस में सबसे बड़ी चिंता का विषय भरष्टाचार का समाजीकरण अर्थात प्रतिष्ठा प्राप्त होना है। प्रसिद्ध साध्वी ऋतम्भरा का कहना अत्यंत सार्थक लगता है- कुछ दशक पहले जब कोई व्यक्ति किसी को काम के बदले कुछ देने की बात करता था तो उसकी सहज प्रतिक्रिया होती थी- ना, बाबा ना! हम बाल बच्चे दार हूँ , ऐसा पैसा स्वीकार नहीं कर सकता।' और आज स्थिति यह है कि काम के बदले खुल कर मांगता है और समझाने पर कहता है कि क्या करूं आखिर बाल बच्चेदार हूँ, इसलिए मजबूरी है।' आज सबने भ्रष्टाचार को एक आवश्यक बुराई के रूप मे स्वीकार जैसा कर लिया है। भ्र्ष्टाचार को लेकर थोड़ी चीख पुकार दहेज की तरह तभी होती जब व्यक्ति को स्वयं इसका शिकार हो जाता है, उसे स्वयं रिश्वत देनी पड़ती है। लेते समय व्यक्ति अनेक तर्क देकर रिश्वत को न्यायोचित बता कर स्वीकार कर लेता है। इसलिए यह चीख पुकार चाय के कप मे तूफान से अधिक कुछ नहीं होता। आखिर यह सब कैसे हुआ? कौन है इसके लिए जिम्मेवार? कैसे निकल सकते हैं हम इस भयंकर समाजिक अभिशाप से? भरष्टाचार के कारण कितनी जवानियाँ, उनके अरमान सब तबाह हो जाते हैं? इसलिए इस महत्वपूर्ण विषय पर गम्भीर चिंतन-मन्थन कर कुछ कठोर कदम उठाने की आवश्यकता है। आज जब केंद्र मे भरष्टाचार रहित ईमानदार सरकार देने के लिए प्रधानमन्त्री ओर उनकी टीम संकल्पबद्द है, देश का युवा ईमानदार व्यवस्था चाह रहा है ऐसे में लगता है कि सब मिलकर इस भरस्टाचार रूपी राक्षस पर धावा बोलें तो बात बन सकती है। घोर निराशा के वातावरण में एक अच्छी खबर है कि नई सरकार के थोड़े से प्रयास से ही अब नई रेटिंग में भारत में भरष्टाचार में भरी गिरावट आई है। किसी ने ठीक ही कहा है कौन कहता है कि आसमान में छेद नहीं हो सकता एक पत्थर तबीयत से उछालो तो यारो। जड़ कहाँ है भरस्टाचार की- सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी या प्रकृति कितने भी नियम से चलें तो भी मनुष्य मन की तरह व्यक्ति का स्वभाव नियम में चलने का नहीं है। किसी न किसी प्रकार से कोई न कोई रास्ता निकलने की तिकड़म में व्यक्ति लगा रहता है। भारत में तो आज नियम से, धैर्यपूर्वक काम करवाना तो पिछड़ेपन की निशानी बनता जा रहा है इसके विपरीत जुगाड़ तकनीक से आगे बढ़ने को बहादुरी और स्टेट्स का प्रतीक माना जाने लगा है। यह जीवन शैली ही भरस्टाचार को उतपन्न करती है। इसके अलावा समाज जीवन में पैसे का वर्चस्व भी बड़ा कारण है। सर्वे गुणा: काञ्चनम् आश्रीति... अर्थात जिदे घर दाने उदे कमले भी सयाने। इसलिए देश में धन कमाने की अंधी दौड़ शुरू हो गयी। फिर जीवन मूल्य बेचारे क्या करते? आज समाज जीवन का शायद ही कोई भाग इस गिरावट से बचा हो। कैसे निजात मिले इस बुराई से- हमें धन से ज्यादा गुणों व आचरण को प्रतिष्ठित करना होगा। लोष्ठवत द्रब्येशु... अर्थात दूसरे के धन को मिट्टी समझना चाहिए। इसके अलावा अगर हम धैर्यपूर्वक नियमानुसार अपने काम करवाने के लिए बजिद जो जाएं तो भरस्टाचार रूपी राक्षस का दम घुटने लग जायेगा। हम दूसरें के समय तो नियम कानून की बात करते हैं और अपनी बारी आने पर सब कुछ भूल कर अपना काम करवा लेना चाहता है। हमें भरष्टाचार को आर्थिक से आगे ले जा कर अन्य पहलुओं में भी देखना होगा। वेतन पूरा और काम में चमड़ी बचाना, अपने वचन से पीछे हटना और चारित्रिक अवमूल्यन भी इसी ढंग से देखना चाहिए। जहां तक निजात पाने का विषय है उसमें राष्ट्र का कोई बड़ा लक्ष्य स्थापित करना भी सहायक हो सकता है। लक्ष्य प्रेरित व्यक्ति ओर समाज अपने व्यवहार को स्व नियंत्रित करता है। हमें विश्व गुरु भारत का लक्ष्य प्रत्येक देशवासी में पैदा करना होगा। इस महान लक्ष्य की दीवानगी प्रत्येक नागरिक में पैदा करनी होगी। इसके बाद हमारी अनेक बुराईयां स्वयं ही मिटती और सिर पर पैर रख कर भागती हुई दिखेंगी। और हम एक बार फिर दुनिया में सबसे अच्छे व्यवहार वाले नागरिकों वाला देश बन जाएंगे।

मंगलवार, 13 अक्तूबर 2015

नारी तू नारायणी

* भगवान श्री कृष्ण ने जीवन के आखिरी क्षण तक माँ के हाथों भोजन का वरदान मांगा था।
* आदि शंकराचार्य की मां ने जीवन के आखिरी क्षण पर उपस्थित होने का वायदा ले कर ही उन्हें सन्यास लेने की अनुमति दि थी।
* बासुदेव बलवन्त फड़के मां की बीमारी पर छुटि न मिलने पर नोकरी छोड़ कर घर आ गए थे।
* बिनोबा भावे ने गीता का मराठी अनुवाद मां के लिए किया था। उनके देहांत के बाद गीता को ही मां माँ लिया था।
वैदिक काल मे मैत्रयी, गार्गी अपाला मनत्रदरस्टा
ऋषि थी।
शंकराचार्य को वाद मे एक बार तो हरा देने वाली भारती को कौन नहीं जानता?
वनवास जाने की आज्ञा लेने गए तो मां कौसल्या हवन कर रही थी, बाली की पत्नी तारा मन्तर्वेता थीं।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण- ऋग्वेद मे 300 से अधिक ऋषि महिलाएं हैं। दीरघतमस ऋषि की माता ममता ने ऋग्वेद के दसवें सूक्त मे अग्नि उपायेन मन्त्रों की रचना की है। इनकी पत्नी उशिजा ने 8 मन्त्रों की रचना की है। ऋषि कक्षीवान की पुत्री घोष ने कुष्ठ रोग का निदान मन्त्रों से खोजा था। अम्भुज ऋषि की कन्या बाल ने पदार्थ मे ऊर्जा ओर ऊर्जा मे पदार्थ निहित है इस सिद्धान्त की खोज की थी। सुनीता बिलियमस ने 195 घण्टे स्पेस वाक तथा 105 घण्टे 40 मिनट का कीर्तिमान बनाया है। वे अपने साथ गीता व गणेश की प्रतिमा ले गयी थी।

शनिवार, 3 अक्तूबर 2015

अतीत से अनुप्रेरित वर्तमान चुनोतियों का सामना करने में सक्षम 'शिक्षा नीति' होगी कारगर

केंद्र की नई सरकार को बधाई देनी होगी कि उसने हाशिये पर डाल दिए शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण विषय पर व्यापक जनसहभागिता आमन्त्रित की है। सरकार का शिक्षा के भगवाकरण का शोर मचा कर आसमान सिर पर उठा लेने वालों की परवाह न कर इस विषय पर आगे बढ़ना सांप को मुंह से पकड़ने जैसा साहसिक कार्य है। अभी अपने बच्चों को शिक्षा के नाम पर हम अंग्रेज द्वारा बनाये सिद्धान्त ही रटाते जा रहे हैं। यही कारण है कि हमारे अधिकांश बड़े सुशिक्षित लोग भी देशभक्ति, स्वाभिमान और सामान्य जीवन मूल्यों में शून्य ही दिखाई देते हैं। 'देर आयद दुरस्त आयद' ही सही लेकिन अब इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए। स्वतन्त्रता के पश्चात शिक्षा नीति बनाने में जनसुझाव मांगना सरकार का यह पहला बड़ा प्रयोग है। सरकार या सिस्टम की आलोचना नहीं सार्थक सुझाव दें- जैसे ही शिक्षा पर जन सुझाव आमन्त्रित करने की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई तो शिक्षा विज्ञानियों में ठण्डी या यूँ कहें नाममात्र की हलचल हुई। हम लोग सरकार, सिस्टम और नेताओं की जी भर कर आलोचना करने में सिद्धहस्त होते हैं। हमारे अधिकांश विद्वान विशेषकर शिक्षा शास्त्री वैसे तो 'सुझाव वीर' ही होते हैं। लेकिन सुझाव भी सरकार तक पहुंचाने के बजाय वे अपने घर के अतिथि कक्ष या चौराहे पर देने में ही अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। वैसे सब लोग निरन्तर महंगी होती जा रही शिक्षा, इस शिक्षा से तैयार हो रही संस्कार विहीन नई पीढ़ी तथा शिक्षा पर भारी खर्चे के बाबजूद बढ़ती बेरोजगारी से बुरी तरह परेशान हैं। लेकिन इस बीच भी नई शिक्षा नीति पर सार्थक सुझाव देने में ज्यादा उत्साह नहीं देखा जा रहा है। यहां छोटी कथा अत्यंत प्रासंगिक लगती है। एक बार किसी भक्त की गरीबी से व्यथित माँ पार्वती के आग्रह पर भगवान शिव ने उसके मार्ग में कुछ मुद्राएं रख दी ताकि इनसे इस भक्त की गरीबी दूर हो सके। लेकिन जब वह व्यक्ति मुद्राओं के समीप आया तो उसने मन में विचार किया कि अंधे कैसे चलते हैं यह अनुभव भी तो करना चाहिए। और इस प्रकार भक्त जी महाराज ऑंखें बन्द कर वहां से निकल गए। इस ऐतिहासिक अवसर पर चुप्पी भी उस भक्त की तरह भाग्य को दरबाजे से वापिस लौटाने जैसा ही। एक ओर इस महत्वपूर्ण विषय पर जहां सामान्य जन की निष्क्रियता निराशाजनक है वहीं नई शिक्षा नीति को लेकर देश में कुछ तत्वों की अति सक्रियता चिंताजनक है। सुझाव देने के लिए कमन्युसिट, ईसाई और विदेशी लक्ष्यों को लेकर भारत में सक्रिय एनजीओ सक्रिय हो गयी हैं। ऐसे में कल अगर नई शिक्षा निति में अपेक्षा के अनुसार परिवर्तन नहीं आये तो दोष किसका होगा? हम जानते ही हैं कि क्योंकि सरकार भवन से ज्यादा फाइलों से चलती है इसलिए जनदवाब बनाते समय हमें चूकना नहीं होगा। अतीत में झांकना होगा- भारत की शिक्षा सम्पूर्ण विश्व के लिए आदर्श और प्रेरक रही है। प्रसिद्ध गाँधीवादी विद्वान धर्मपाल ने तथ्यों के सहित सिद्ध किया है कि अंग्रेजों से हमारे यहां साक्षरता दर लगभग शतप्रतिशत थी। हमारे यहां सम्पूर्ण विश्व के छात्र प्रवेश लेने के लिए लालायित रहते थे। नालन्दा और तक्षशिला विश्विद्यालयों का नाम कौन नहीं जानता? हम केवल अक्षर ज्ञान की शिक्षा नहीं बल्कि सम्पूर्ण व्यक्तित्व विकास पर जोर देते थे। इसलिए शिक्षा पूरी कर लेने के बाद भी कुलपति आखिरी परीक्षा लेते थे। यह परीक्षा अक्षर ज्ञान के बजाय उसके व्यक्तित्व पर केंद्रित रहती थी। इस परीक्षा जिसे गुरु दक्षिणा भी कहते थे असफल रहने के बाद उसे फिर कुछ समय और गुरुकुल में रहने को कहा जाता था। शिक्षा पूरी तरह निःशुल्क, स्वयातत् और सबके लिए समान थी। इसलिए हमारे यहां आज कृष्ण और सुदामा एक साथ पढ़ लेते थे, जो कि आज एक स्वप्न जैसा ही लगता था। इसके अतिरिक्त जीवन मूल्यों, देशभक्ति और समाज प्रेम शिक्षा का मुख्य आधार होता था। जीवन के लिए उपयोगी हो शिक्षा- आज की शिक्षा समग्रता प्रदान न कर खण्डों में व्यक्तित्व को बाँट देती है। संघ के श्रेष्ठ अधिकारी रहे श्री भाउसाहिब भुष्कुटे एक जगह लिखते हैं- 'Modern education is knowing more and more about less and less till one knows everything about nothing.' हमारे यहां नब्ज देख कर केवल रोग ही नहीं बल्कि रोगी का सम्पूर्ण व्यक्तित्व बता देने वाले वैद्य गाँव गाँव थे वहीं आज आँख, नाक और कान के डॉक्टर अलग-अलग हो गए हैं। एक रोग में दूसरा डॉक्टर असहाय सा दिखता है। इसके अलावा बी.कॉम वाला छात्र बैंक के फार्म भरने, इंजीनियरिंग करने वाला छात्र भवन निर्माण आदि में सामान्य जानकारी भी नहीं रख रहा है। इसलिए बेरोजगारों की संख्या सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती ही जा रही है। हमें कार्य संस्कृति और स्व रोजगार को बढ़ावा देने वाली शिक्षा भी देनी होगी। आज बिडम्बना ही है कि एक और रोजगार ढूंढने वालों और दूसरी ओर कर्मचारी ढूंढने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। वर्तमान चुनोतियों का उत्तर हो शिक्षा नीति- हमें अतीत से प्रेरणा लेकर वर्तमान चुनोतियों का सफलतापूर्वक सामना करने वाली शिक्षा नीति बनानी होगी। विद्यालय को मन्दिर बना कर विद्या मन्दिर बनाने की आवश्यकता है जिसमे बालक हमारा आराध्य हो। राजनीति और व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा को विद्या मन्दिर की चौखट से दूर रखना होगा। सम्पूर्ण व्यक्तित्व को विकसित करने के लिए हमारे 16 भारतीय संस्कारों से परिपूर्ण शिक्षा नीति बनाने होगी। बालक को देश और समाज के लिए उपयोगी बनाने के लिए हमे हमारे क्रांतिकारियों, सन्तों व महापुरुषों तथा श्रेष्ठ प्राचीन इतिहास को पाठ्यक्रम में शामिल करना होगा। हमें आज अपने आचार्य और प्रधानाचार्य का सम्मान लौटाना सबसे बड़ी चुनोती है। इसके लिए उसे स्वतन्त्रता और आर्थिक स्वाबलम्वन प्रदान करना होगा। सबसे अंत में लेकिन सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा को साधना के रूप में लेने वाला शिक्षक तैयार करना होगा। आदर्श प्रेरित शिक्षक ही आज की पीढ़ी का सम्मान अर्जित कर सकता है।

शनिवार, 29 अगस्त 2015

जनता तू कितनी नादान है!

वाह रे! वाह रे ! जनता मेरे भारत महान की
क्या तारीफ करें तेरी समझ और ज्ञान की?
तू चुपचाप सहती रही असंख्य जख्म !
ढ़ोती रही इतिहास का दर्द सीने में,
खून के आंसू रोती रही चुपचाप
उस समय तो तू बेबश थी लेकिन
आज जब समय ने करवट बदली,
दिल्ली से मिटी निशानी उस अत्याचारी ओरंगजेब की!
फिर तू चुप क्यों है भला?
कहीं कोई जश्न नहीं, कोई उत्सव नहीं
मेरे भारत महान की जनता!
तू स्थित प्रज्ञा कब से हो गयी हो!
महिमा क्या गाएं इतिहास की चीख न सुन
बहरे हुए तेरे आँख, नाक और कान की!
क्या तारीफ करें......
अपने व्यक्तिगत दर्द पर बिलबिलाने वाली,
अधिकार?  छीनने के लिए गुर्राने वाली
किसी भी हद तक जाने वाली मेरी
भोली जनता तू और कितनी बार ठगी जायेगी?
किसी केजरीवाल और हार्दिक के झांसे में आकर अपनी सम्पति स्वाहा: कर,
घर फूंक तमाशा देखने की तेरी यह आदत
क्या जीभ के लिए दांत उखाड़ फैंकने की मूर्खतापूर्ण जिद नहीं है?
दांत और जीभ दोनों अपने हैं कब समझेगी तू?
पार्टी, व्यक्ति से मतभेद ठीक है लेकिन
देश और समाज ने तेरा क्या बिगाड़ा ?
जो तू आए दिन किसी के उकसावे में आकर करोड़ों का नुकसान कर लेती है
और अपने पैरों पर खुद ही कुल्हाड़ी मार लेती है!
तू कब समझेगी, कब बाज आएगी तू ?
तेरी ऐसी समझ के चलते दुश्मन की क्या जरूरत
जो तू खुद ही दुश्मन जो बन बैठीअपनी इज्जत और जान की 

क्या तारीफ करें तेरी समझ और ज्ञान की....

कब लालू, नितीश, मुलायम और मोदी में अंतर करना सीखेगी? 

तू कब समझेगी कि

लालू , नितीश,  मुलायम, मायावती को तू नहीं तेरे वोट प्यारे हैं इसलिए ये नादान!
ये सत्ता के पुजारी तेरी खूब प्रशंसा करते होंगे
तेरे लिए चाँद लाने की कसमें उठाते होंगे                             किन क्या तू जानती है? 

इनकी चापलूसी उस चालाक मर्द जैसी है

जिसकी नजर औरत के गुणों पर नहीं बल्कि उसके जवान जिश्म पर होती है
और वो भोली उस पर लटू होती जाती है
जब होश आता है तब तक देर बहुत हो चुकी होती है! वो बेचारी लुट चुकी होती है!
मोदी तेरे लिए मीठा नहीं बोलते होंगे! लेकिन एक योग्य डॉक्टर की तरह वे मरीज को खुश करने के लिए नहीं
बल्कि उसे ठीक करने के लिए सच्चाई बोलते हैं, काम करते हैं
कहते हैं न कि राजा जनता को, सचिव राजा को, वैद मरीज को और गुरु शिष्य को खुश करने के लिए अगर सच बोलना छोड़ दें
तो विनाश निश्चित होता है
अब निर्णय तूने करना है कि तुझे उस नादाँ औरत की तरह लुटना है या रक्षा करनी है अपनी इज्जत और जान की!
तेरे निर्णय से ही तारीफ हो सकेगी तेरी समझ और ज्ञान की
वाह ! वाह रे ! जनता मेरे भारत महान की!!!

शुक्रवार, 7 अगस्त 2015

मंगलवार, 16 जून 2015

उधर कोई बेबश बहाता है आंसू....

उधर कोई बेबश बहाता है आंसू, इधर भीग जाता है दामन हमारा।।  ठीक ऐसी ही स्थिति इस युवा गृहणी के मन की है। प्रस्तुत लेख की नायिका जालंधर की है। नाम उजागर करना शायद उसे अच्छा नहीं लगेगा इसलिए चलो काम चलाने के लिए उसका नाम ममता रख लेते हैं। क्योंकि गरीबों, असहायों के लिए उसकी ममता का मानो बांध ही टूट पड़ता है। युवा ममता के पास सम्पन्न घर, सुंदर परिवार, प्यारे बच्चे व हर जगह सहयोगी पति.... अर्थात आनन्द के सागर में डूबे रहने के लिए सब कुछ पर्याप्त है इसके पास !  सब कुछ होते हुए भी फिर भी न जाने क्यों बेचैन और उदास रहती है ममता। समाज के लिए बहुत कुछ कर गुजरने का जज्बा है इस जज्बाती लेकिन धुन की पक्की महिला  में। किसी दुखी को देख कर उसकी सहायता करने का इसको मानों जनून ही सवार हो जाता है। सामन्य तौर पर विनम्र और नाजुक सी दिखने वाली इस महिला में जरूरत पड़ने पर न जाने अदभुत साहस व पराक्रम कहां से आ जाता है?
विवेकानन्द ने उड़ाई नींद - स्वामी विवेकानन्द ने अपने समय में स्वयं और बाद में उनके प्रेरक जीवन और दर्शन ने असंख्य लोगों की नींद उड़ा कर उन्हें देश व समाज के लिए जीवन न्योछावर करने को मजबूर किया है। उन्हीं की पंक्ति में ममता भी स्वयं रे गिनते रहते हैं जब सारा आलम सोता है।                  साल पहले तक लगभग सब ठीक ठाक ही था। समाज की असमानता थोडा परेशान तो करती थी लेकिन घर गृहश्थी और छोटा सा परिवार इसी में ममता भी पूरी तरह डूबी थी। स्वामी विवेकानन्द सार्धशती में संघ के कार्यकर्ताओं के सम्पर्क में आने के बाद स्वामी को थोडा थोडा पढ़ना क्या शुरू किया कि फिर तो पीछे मुड़ कर देखने का कहां समय मिला और कहां मन किया?समाज के दुःख में आंसू बहाता, रोता- बिलखता विवेकानन्द इसे अपने अंदर आकार लेता अनुभव होने लगा। इसी समय इसे  'विवेकानन्द और सेवा' विषय पर पुस्तक के लिए सामग्री जुटाने का कार्य मिल गया। इस पुस्तक के लिए स्वामी जी के विचार और प्रसंग संग्रह करते व पढ़ते रही सही कसर भी पूरी हो गयी।     गरीब बच्चे बन गए आराध्य- इसके बाद तो हर गरीब बच्चा ममता के लिए आराध्य बन गया। उन्हें देखते ही इसकी ममता का सैलाब उमड़ पड़ता। गरीब बस्ती में जाकर बच्चों को एकत्र करना और उन्हें पढ़ाना,  खिलाना और खेलाना तथा अच्छे संस्कार देना इसकी दिनचर्या का हिस्सा बन गया। इसके लिए इसने संभ्रांत परिवारों की महिलाओं की अच्छी टोली बना ली। सब मिलकर साथ लगती स्लम बस्ती में जाने लगी। ममता के साथ साथ इन महिलाओं को भी नर सेवा- नारायण सेवा का मन्त्र भाने लगा। बस्ती में संस्कार केंद्र के आलावा बड़े  बच्चों को खेल के लिए घर के बाहर खुले स्थान को  खेल के मैदान  में बदल दिया। कबड्डी और अन्य खेलें,  हनुमान चालीस, देशभक्ति के गीत व  प्रेरक बातें यहां की कार्य पद्धति का भाग है। इसके परिणाम स्वरूप् बच्चों  ने नशा छोड़ना शुरू कर दिया है। बच्चे ममता के इशारों पर नाचते हैं। बच्चों को  प्रेरित कर काम पर भेजना तथा कुछ बच्चों के लिए काम तलाशना भी ममता के कार्य में शामिल है। इसके लिए वह अपने सम्पर्क का पूरा उपयोग करती है।                                                                            दीदी! कल मैं पढ़ने नहीं आउंगी, मेरी माँ मरने वाली है-एक दिन संस्कार केंद्र में पढ़ने वाली एक छोटी बच्ची ख़ुशी बोली, दीदी मैं कल पढ़ने नहीं आउंगी। मेरी माँ मरने वाली है। मैं बुआ के पास लुधियाना चली जाउंगी। यह सुनते आखिर कौन पत्थर दिल हृदय नहीं पिघलेगा? फिर ये तो गरीबों के दुःख में बेचैन रहने वाली ममता थी। सारी रात आँखों में निकल गयी। सवेरे बिना कुछ खाए पिऐ अकेली उस बच्ची  ख़ुशी के घर पहुंच गयी। सारे मुहल्ले को इकट्ठा कर लिया। मुझे भी फोन आया। भैया! विवेकानन्द पढ़ने नहीं जीवन में उतारने का विषय है। मेरे केंद्र की बच्ची की माँ मर जायेगी। ऐसे हम किस को पढ़ायेंगे? पढ़ा कर क्या करेंगे? तुरन्त यहां आ जाओ।  मैंने अपनी व्यस्तता बतानी चाही लेकिन उसने कहां सुनी? जब हम वहां पहुंचे तो दृश्य देख कर मन बेचैन हो गया। आखिर  कब हमारा भारत गरीबों के लिए रहने लाईक बने बस्ती की स्थिति दिल्ली के विश्व की आर्थिक महाशक्ति बनने के स्वप्न को चिढ़ाती दिख रही थी।  चारों तरफ गन्दगी, एक छोटे से कमरे में मक्खियों के बीच ख़ुशी की ममी सपना असहाय हो कर मानो मौत का ही इंतजार कर रही थी। वह जीना चाहती थी लेकिन कोई भी उसका सहारा नहीं था। मुहल्ले वालों ने बताया कि पति शराबी है। रात को आ कर दवा दारू करने के बजाय इससे लड़ता है। हमें देख कर सपना के असहाय चेहरे पर थोडा विश्वास जरूर लौटा! ममता ने सपना के इलाज के लिए अपने पति के मित्र डॉ को बुलाया। डॉ के कहते ही अस्पताल से एम्बुलेंस मंगवा कर सपना को जिला अस्पताल पंहुचाया गया।  इतना ही नहीं ममता  जिला अस्पताल जा कर बीमार सिस्टम में डॉक्टरों व स्टाफ से लड़-झगड़ कर, सपना का फ्री इलाज का केस बनवा कर, इलाज शुरू करवा कर ही घर आई।                                                 साहस भी कम नहीं- ममता के सेवा कार्य से ईसाई मिशनरी भी दुखी हैं। इस बार उनकी सांता क्लॉज की फेरी भी नहीं निकली। कारण इसके लिए भीड़ के लिए इसी बस्ती से बच्चे आते थे। लेकिन देश भक्ति के रंग में रंग जाने के कारण अब बच्चे कहां से आते? प्रेम, शांति और अहिंसा के पुजारी ये मिशनरी गुंडागर्दी पर उत्तर आए। कुछ दिन पहले रात्रि शाखा  के समय डर का वातावरण बनाने के उदेश्य से दादा और गुंडे जैसी शक्लों वाले तीन चार लड़के मोटर साईकल पर खड़े रहते। उन्हें लगता था कि बच्चे और ये महिला डर जायेगी। इसकी कुछ सहेलियाँ डर भी गयी। लेकिन ममता तो किसी और ही मिटटी की बनी है। जब ईसाई मिशनरियों का यह दाव नहीं  चला तो एक दिन दो लड़के सामान बेचने के बहाने घर में घुसने के लिए आ धमके। संयोग से उस समय ममता दरवाजे पर ही खड़ी थी। इसने तुरन्त निर्णय लेते हुए दरवाजा बन्द कर - पड़ोसी के घर जा कर आती हूँ ' कह कर चली गयी। इस प्रकार  उनका यह बार भी उनका बार भी खाली चला गया। ममता की सूझबूझ एवम्  ईश्वर कृपा से बड़ा हादसा टल गया। इतना सब होने पर भी ममता आत्म्विश्वास से पूरी तरह लबरेज है।  समाज सेवा की अपनी धुन में सेवा कार्य में व्यस्त है। सेवा का इसका जनून बढ़ता ही जा रहा है। गरीबों की सेवा के लिए इसने अपनी सहेलियों की संस्था बनाने का संकल्प लिया है।                   समय का आह्वान स्वीकार करें सम्पन्न गृहिणियां-  भारत को अपनी सम्पन्न महिला शक्ति से बहुत उम्मीदें हैं। महिला का दिल नरम व कोमल होता है। आज उसके अंदर की माँ के ममत्व का दायरा बढ़ाने की जरूरत है। इन सम्पन्न, समझदार माताओं के प्यार की ओवर डोज के कारण इनके बच्चे बिगड़ रहे हैं और करोड़ों गरीब बच्चे ममता की छाँव के लिए तरस जाते हैं। अपने एक-दो बच्चों के लिए सारी ममता लुटाने वाली माताएं गरीब बस्तियों के बच्चों को भी अपनी सन्तान  मान लें तो देश का बहुत कुछ परिदृश्य बदल जायेगा। काश! आज सम्पन्न घरों में  राग- रंग में डूबी, सामाजिक सरोकार के प्रति निष्क्रिय व उदासीन,  अनेक शारीरिक व मानसिक बीमारियों को निमन्त्रण देती असंख्य गृहिणियां ममता का अनुकरण करें तो समाज का चित्र बदलते देर नहीं लगेगी। लगभग 116-117 साल पहले स्वामी विवेकानन्द की प्रेरणा से भारत की सेवा का जज्बा दिल में लिए हजारों किलोमीटर दूर आयरलेंड की मार्गरेट नोबुल भारत की सेवा के लिए स्वयं को प्रस्तुत कर देती है। अपना देश, धर्म व संस्कृति छोड़ क्र मार्गरेट नोबुल से भारत भक्त निवेदिता में बदल सकती है। भारत के गरीबों का दुःख उसे सन्यस्त जीवन जीने के लिए बाध्य  कर सेवा के लिए भारत में ला पटक सकता है तो भारत की हमारी बहनें अपने ही गरीब देशवासियों के दुःख के प्रति उदासीन कैसे हो सकती हैं?

बुधवार, 3 जून 2015

शिक्षा और शिक्षक विकास को समर्पित विद्या भारती का आचार्य प्रशिक्षण वर्ग

नर से नारायण बना देने, समय की धारा का मुख मोड़ देने, भगवान से भी पहले पॉन्व छूने के अधिकारी हमारे गुरु अपनी यात्रा में आज शिक्षक, अध्यापक के पड़ाव पार करते हुए शुद्ध वेतनभोगी कर्मचारी या टयूसन में पूरी तरह डूबे प्राणी के रूप में देखे जा सकते हैं। किसी समय  का यह श्रेष्ठ वर्ग कुछ अपवाद छोड़ कर आज सरस्वती के स्थान पर लक्ष्मी की आराधना में जुट गया लगता है। आखिर यह सब क्यों और कैसे हुआ? हमारी इस महान संस्था का यह पतन क्यों और कैसे हुआ? इस विषय पर चिंतन इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि यह गिरावट केवल इस गुरु संस्था की नहीं बल्कि हमारे राष्ट्र के पतन का मूल भी इसी मे छिपा है। इस गम्भीर विषय पर योग्य विद्वान चिंतन कर चुके है आगे भी करेंगे।  लेकिन आज सबसे बड़ी चिंता का विषय है कि हमारी प्राचीन शिक्षा पद्धति को समाप्त कर गुरु को केवल वेतनभोगी कर्मचारी में बदलने का जो काम अंग्रेजों ने किया वह आज भी उसी तरह चल रहा है। वर्तमान परिस्थिती में हमारे अध्यापकों की स्थिति - न खुदा मिला न बिसाले सनम' जैसी हो गयी है। आर्थिक दौड़ में भी हम अध्यापक आज कहीं नहीं दिखते और इज्जत की तो बात ही क्या? यद्यपि सबकी स्थिति ऐसी नहीं, आज भी हमारी श्रेष्ठ गुरु परम्परा की टिमटिमाती ज्योति को कुछ महानुभाव कहीं-कहीं थामे देखे जा सकते हैं।
आचार्य की महान परम्परा- आज से 2072 साल पहले एक आचार्य ने इतिहास की धारा का मुंह मोड़ दिया था। सत्ता के नशे में चूर राजा को न केवल सत्ताच्युत किया बल्कि विदेशी आक्रमणकारी को भी करार जबाब दिया। इसके बाद सैकड़ों वर्षों तक विदेशी हमलावरों को भारत की ओर बुरी नजर से देखने का साहस नहीं हुआ। इतिहास के इस महान नायक और उनके सभी साथियों के नाम हम निश्चित जान ही गए होंगे। इसके साथ ही हमारी गुरु शिष्यों की लम्बी श्रृंखला है। इसमें प्रमुख शिवाजी- समर्थ गुरु रामदास, बन्दा बहादुर- श्री गुरु गोबिंद सिंह और आधुनिक काल के रामकृष्ण परमहंस-स्वामी विवेकानन्द तथा बिरजानन्द - स्वामी दयानन्द आदि गुरु- शिष्य की जोड़ी ने नया इतिहास रच दिया दिया था। हमारे आचार्य अदभुत मिटटी से बने होते थे। इनके तेजस्वी व्यक्तित्व का ही परिणाम था कि दशरथ जैसे महान पराक्रमी राजा नंगे पान्व उन्हें लेने दरवाजे  पर आते थे। कुलपति से मिलने के लिए राजा को प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। हमे देश के उत्थान के लिए अपने आचार्यों का वह तेज वापिस लौटाना होगा। इसके लिए आचार्यों को भी वहुत कुछ करना होगा और समाज को भी। समाज को आचार्य के आर्थिक पक्ष की चिंता करनी होगी। दुनिया के कई देशों की तरह भारत में भी  शिक्षण को सबसे ज्यादा आकर्षक बना होगा ताकि समाज का प्रतिभशाली वर्ग इस क्षेत्र में आगे आए। आज कुछ अपवाद छोड़ कर जिसको कहीं नॉकरी नहीं मिलती वह अध्यापन के क्षेत्र में आ जाता है। शिक्षक जैसा कोई गुण इनमे नहीं दिखाई देता। विद्यालय के तुरन्त बाद प्रॉपर्टी या अन्य व्यवसाय में ये महानुभाव खोये देखे जा सकते हैं। आचार्य वर्ग को अपना स्तर स्वयं ऊँचा उठाना होगा।
आचार्य को प्रतिष्ठत करने मे प्रयासरत विद्या भारती- शिक्षा जगत की उपरोक्त समस्या का वर्णन एक बात है लेकिन प्राचीन गौरव के प्रकाश में समाधान की दिशा में कुछ कर लेना यह अलग विषय है। वर्तमान अध्यापक को आचार्य या गुरु जैसे श्रेष्ठ पद का दायित्व बोध कराने की दिशा में हुए प्रयास भी नगण्य जैसे कहे जा सकते हैं। सन्तोष और प्रसन्नता का विषय है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रेरणा प्राप्त कर नाना जी देशमुख ने  सन् 1952 में एक छोटे से शिशु मन्दिर के रूप में एक चिराग जलाया। वर्तमान में इस संस्थान के द्वारा लगभग 15000  विद्या मंदिर तथा 10000 के आसपास संस्कार केंद्र सफलतापूर्वक चलाये जा रहे हैं। सरकार के बाद सबसे बड़ी स्वयंसेवी संस्था बन गयी है विद्या भारती। भारतीय जीवन मूल्यों के आधार पर आधुनिक एवम् संस्कारप्रद शिक्षा देने के लिए एक बड़ा प्रयास चल रहा है। अध्ययन, अध्यापन  पुस्तक लेखन एवम् शोध के लिए गम्भीर प्रयास चल रहे हैं।
आचार्य प्रशिक्षण वर्ग का अदभुत वातावरण- विद्या भारती शिक्षा एवम् शिक्षकों का स्तर ऊँचा उठाने के लिए प्रतिवर्ष आचार्य प्रशिक्षण वर्गों का आयोजन करती है। पंजाब में सर्वहितकारी शिक्षा समिति द्वारा दस दिवसीय प्रशिक्षण वर्ग का आयोजन नाभा में किया गया। 40 विद्यामन्दिरों से 168 आचार्य दीदियों ने प्रशिक्षण ग्रहण किया। शिविर के उद्घाटन पर कोटकपूरा से  स्वामी 1008 हरि गिरी जी महाराज तथा समापन केंद्रीय विश्वविद्यालय धर्मशाला के कुलपति डॉ. कुलदीप अग्निहोत्री उपस्थित थे। शिक्षा का भारतीय स्वरूप्, आदर्श शिक्षक, शिक्षण की वैज्ञानिक एवम् आधुनिक पद्धतियाँ आदि विषयों  के अतिरिक्त सामाजिक सरोकारों पर भी शिक्षकों का मार्गदर्शन किया गया। इसके साथ प्रात: जागरण से लेकर रात्रि सोने तक अनुशासित दिनचर्या का अभ्यास कराया गया। शिक्षा स आदर्श आचार्य बनने का संकल्प एवम् शिक्षण के अनुरूप कक्षा में अध्यापन के उत्साह के साथ सभी आचार्य-दीदियां अपने घरों को लौटे।

रविवार, 31 मई 2015

देशभक्ति अर्थात जन जन में हो मिटटी का हर कण पवित्र का भाव

नागरिकता या देशभक्ति- क्या नागरिकता ही देशभक्ति की कसौटी है? अगर विचार करेंगे तो ध्यान में आता है कि नागरिकता देशभक्ति का पहली सीढ़ी हो सकती है लेकिन देशभक्ति कुछ क़ानूनी प्रक्रिया से बहुत आगे की चीज है। यह सहज विकसित होती है या पर्यत्नपूर्वक मन में धारण करनी पड़ती है। देशभक्ति नितांत भाव और भावना का विषय है। इसी बात को स्पष्ट करते हुए प्रसिद्ध चिंतक, राजनेता, संघ के प्रचारक तथा भारतीय जनसंघ के मार्गदर्शक पण्डित दीनदयाल उपाध्याय अपने बौद्धिक में कहते थे कि हमारे लिए भारत मातृभूमि है भूमि मात्र नहीं। ऊपरी तौर से तो यह मात्र शब्दों का क्रम परिवर्तन जैसा लगता है लेकिन चिंतन की प्रक्रिया शुरू होते ही अंतर ध्यान में आना प्रारम्भ हो जाता है। जिन लोगों के लिए भारत भूमि मात्र है वे इस महान भूमि को उपयोगितावाद तथा भोगवाद के सिद्धान्त से देखते हैं। वे प्रकति के दोहन नहीं शोषण में विश्वास रखते हैं। वे मुर्गी के सारे अंडे एक ही दिन निकाल लेना चाहते हैं। लालच के अंधे इन लोगों को मुर्गी के जीवन की भी चिंता नहीं होती। इतना सब होने के बाद भी ए दिल अभी भरा नहीं ... की तर्ज पर हमेशा असन्तुष्ट ही रहते हैं, भारत को गालियां ही निकालते रहते हैं। भारत के प्रति कोई विशेष भावनाएं उनके मन में नहीं होती हैं। हम सब जानते हैं कि भावना विहीन व्यक्ति मशीन से अधिक कुछ नहीं होता। उसे गणेश शंकर विद्यार्थी ने तो मृतक तक की संज्ञा तक दे दी है-
जिसको न निज गौरव तथा निज देश का  अभिमान है।
वह नर नहीं,  नर पशु निरा है और मृतक समान है।।
भावनाएं ही जीवन में रस भरती हैं, इसे जीने लायक बनाती हैं। भावना और प्यार पशु तथा पेड़-पौधों तक को झूमने को मजबूर कर देता है, उसे वश में कर देता है, गुलाम बना देता है फिर मनुष्य की क्या विसात है? विज्ञान ने हमे जहां बहुत कुछ दिया है वहीं इसने हमारी प्रसन्नता छीन कर हमारे जीवन को नीरस बना दिया है। हमसे चन्दा मामा छीन लिया, बिल्ली मौसी नहीं रही, तुलसी, गंगा, गऊ या गीता आदि माताओं से भी हमें दूर कर दिया। हम एक प्रकार से सब कुछ होते हुए भी अनाथ से हो गए हैं। इसका अर्थ हम अन्धविश्वास से घिरे रहें कतई नहीं है। हमें विज्ञान से लाभान्वित होते हुए भी अपनी संवेदनाओं तथा भावनाओं को बचा के रखना होगा। आज समाज में सर्वदूर फैली निराशा, हताशा व् डिप्रेसन से बचने के लिए हमें जीवन को भावना प्रधान बनाने की जरूरत है।
मातृभूमि भारत- अनादि काल से ही हमारे लिए यह भूमि साक्षात् देवी रही है। सवेरे उठते ही हमारे पूर्वज यह श्लोक बड़ी श्रद्धा से बोलते आएं हैं- समुद्र वसने देवी पर्वतस्तनमण्डले ।
विष्णुपत्नि नमस्तुभ्यम पादस्पर्शमक्षमस्वमैव।।
अर्थात समुद्ररूपी वस्त्र धारण करने वाली तथा पर्वत जिसके स्तनमण्डल हैं ऐसी विष्णुपत्नी देवी को मैं प्रणाम करता हूँ। हे देवी! मैं पैरों से तुझे स्पर्श कर रहा हूँ इसके लिए मुझे क्षमा करें। हम इसे सजीव देवी मानते हैं। यही भावना हमारे शास्त्रों में अनेक ऋषियों 'माता भूमि पुत्रोsअहं पृथिव्या:।' इसी प्रकार गुरवाणी में भी यही भाव व्यक्त हुए हैं 'पवनगुरु पानी पिता माता धरत महत'। आधुनिक काल में बंकिम चन्द्र चटर्जी ने आनन्दमठ में भारत माता की स्तुति में इसे साक्षात् दुर्गा कहा है। स्वामी विवेकानन्द, महृषि अरविन्द एवम् संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरूजी आदि सभी इसे साक्षात् ईश्वर मानते थे।
प्रेरणास्रोत रही है हमारी पुण्य भूमि- स्वामी विवेकानन्द के जीवन की एक प्रेरक घटना है। जब स्वामी जी पहली विदेश यात्रा से लौट कर भारत में सुमद्री जहाज से उतरे। लोगों को आश्चर्य हुआ तब हुआ स्वामी जी स्वागत के लिए उत्सुकता से इंतजार कर रहे भारी जनसमुदाय की ओर न जाकर मिटटी में लोटपोट होने लगे। पागलों की भांति अपने ऊपर बालू के कणों को अपने ऊपर फैंकने लगे। थोड़ी देर बाद शांत और प्रसन्न मन से जनता की ओर बढ़े। बाद में पूछने पर बोले कि यूरोप के भोगवाद के जो कीटाणु मेरे शरीर और मन में आ गए थे उन्हें भारत की मिटटी से धो रहा था। इसी प्रकार एक अन्य प्रश्न के उत्तर में बोले कि विदेश यात्रा से पहले भारत को प्यार करता था लेकिन अब भारत की मिटटी का एक एक कण मेरे लिए पवित्र है। स्वामी रामतीर्थ तो स्वयं को भारत ही मानते थे। महृषि अरविन्द अपनी धर्मपत्नी को पत्र में अत्यंत सुंदर भाव से समझते हैं कि जब तक अंग्रेज हमारी भारत माता का शोषण कर रहा है भारत के प्रत्येक युवक का प्रथम कर्तव्य रागरंग छोड़ कर माँ की सेवा में स्वयं को समर्पित करे। सुभद्रा कुमारी चौहान की कविता -' वीरों का कैसा हो वसन्त' में भी यही भाव आएं हैं।
क्रांतिकारियों की आराध्य रही है भारतमाता-
भारत की स्वतंत्रता को समर्पित क्रन्तिकारी भारतमाता को अपनी आराध्य मानते थे। इस माँ की आजादी के स्वयं को न्योछावर करने में धन्यता मानी। सभी क्रन्तिकारी इस श्रेष्ठ भाव से अनुप्रेरित थे-
तन समर्पित, मन समर्पित और यह जीवन समर्पित ।।
चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं।। थोडा विचार करें कि ऐसे समर्पण भाव से युक्त युवाओं के देश के लिए दुनिया क्या कुछ प्राप्त करना असम्भव है?
भारत के प्रत्येक ग्राम नगर को सन्तों ने अपनी साधना से पवित्र किया।
चन्दन है इस देश की माटी, तपोभूमि हर ग्राम है।
हर बाला देवी की प्रतिमा बच्चा बच्चा राम है।। इस गीत में भारत के इस शाश्वत सत्य की अभिव्यक्ति है। भारत में प्रायः हर मत के साधु-सन्तों ने मुक्तकण्ठ से भारतभक्ति में साहित्य सृजन जिया है। भारत में तो प्राचीन काल के शक हूण कुषाण आदि हमलावरों  से लेकर आधुनिक काल के भक्ति आंदोलन ने मुगल, मुस्लिम और अंग्रेज जैसी विश्व शक्तियों से जूझने के लिए समाज को प्रेरित ही नहीं बल्कि सफलतापूर्वक प्रतिकार के लिए खड़ा किया। हमारे ये सन्त सम्पूर्ण देश में यात्रा कर देशवासियों को देश और धर्म के प्रति जागरूक करते रहते थे। समाज जागरण के लिए गुरु नानक की उदासियां प्रसिद्ध हैं। पंजाब में गुरु परम्परा, महाराष्ट्र में समर्थ गुरु रामदास आदि ऐसे हर प्रान्त में सन्तों की लम्बी श्रृंखला है। हमारे सन्तों ने भारतभक्ति तथा धर्म भक्ति को ही इस्लाम और अंग्रेज जैसी अपने समय की अपराजेय शक्तियों से जूझने के लिए मन्त्र के रूप में प्रयोग किया। स्वंतत्रता के बाद अल्पसंख्यक तुष्टिकरण तथा वोट राजनीती ने सेक्ल्यूरिज्म के नाम पर देश का बहुत बड़ा अहित कर दिया। देशभक्ति को जनांदोलन बनाने वाले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के लाखों स्वयंसेवक प्रतिदिन महामङ्गले पुण्यभूमे त्वदर्थे का श्रद्धापूर्वक गान करते हैं। संघ आज लाखों युवकों को देशसेवा के मार्ग पर सफलतापूर्वक बढ़ाने में सफल हो रहा है। दुर्भाग्यवश स्वतंत्रता के तुरन्त बाद भारत की प्राणदायनि शक्ति धर्म, सन्तों और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को पुष्ट करने के बजाए अपमानित किया गया। इनके मार्ग में रोड अटकाए गए। इसके परिणामस्वरूप हमारे नागरिकों में देश को विश्व में नम्बर एक बनाने का का उत्साह और जज्वा गायब हो गया। देशवासी तटस्थ और उदासीन जैसे हो गए। आजादी के संघर्ष के समय का देशभक्ति का ज्वार दूध में आए तूफान की तरह शांत हो गया। सौभाग्य से दशकों बाद आज फिर युवकों में देश को दुनिया का सिरमौर बनाने का जज्वा पैदा हो रहा है। यह हमारे देश के लिए शुभ संकेत है। इस जनून को बनाए रखने और आगे बढ़ाने की आवश्यक्ता है।