सोमवार, 13 अक्तूबर 2014

विधान सभा चुनाव- परीक्षा मोदी की या जनता की सूझबूझ की?

क्या हरियाणा और महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव के मायने महज दो राज्यों की सरकारें चुनने तक स़ीमित हैं? शायद नहीं! इन राज्यों के चुनाव परिणाम देश में मोदी राजनीति को स्वीकारने या नकारने संबधी जनता के फरमान का संकेत भी होगा। इसीलिए यह चुनाव दोनों राज्यों की जनता पर देश की भावी राजनीति को दिशा देने की बहुत बड़ी जिमेवारी है। मीडिया में एक ही बात की चर्चा है कि क्या  इन चुनावों में मोदी का जादू चलेगा? इसके साथ अधिकांश राजनीति के पंडित इन चुनावों को मोदी और अमित शाह की परीक्षा के रूप में भी देख रहे हैं। लेकिन एक प्रश्न और भी उठता है कि ये चुनाव क्या मात्र मोदी के जादू या अमित शाह के नेतृत्व पर मोहर लगायेंगे या वोटर की राजनैतिक सुझबुझ को भी प्रकट करेंगे? अगर अंग्रेजी की इस कहावत - (people get the govt they deserve for) अर्थात लोगों को वैसे ही नेता मिलते हैं जिनके वे अधिकारी होते हैं' को देखें तो ये चुनाव मोदी मैजिक की परीक्षा से ज्यादा जनता की राजनैतिक समझ की ही परीक्षा लग रहे हैं।
मोदी नेतृत्व में आशा का संचार - देश में वर्तमान राजनीति परिदृश्य को लेकर एक बात पर सर्वदूर सहमति बनती दिख रही है कि सर्व सामान्य व्यक्ति में जबर्दस्त आशावाद का संचार हुआ है। जहाँ कुछ महीने पहले यह जनधारणा बलवती थी कि इस देश का भगवान भी कुछ नहीं संवार सकते आज वहीँ सब जगह 'हो सकता है' यह विश्वास आम से खास सब चेहरों पर झलक रहा है। कहते हैं कि आशा और विश्वाश मृत्यु शैया पर पड़े रोगी में भी नये जीवन का संचार कर देता है। मोदी की बहुत बड़ी उपलब्धि इस थोड़े से कालखंड में जनता में इस विश्वास का संचार कर देना है। मोदी से राजनैतिक असहमति रखने वाले भी जिस ढंग से मोदी ने अपनी प्रधानमन्त्री की पारी शुरूआत की उस पर फ़िदा हैं। दबी जुवान से ही सही ( जोर से इसीलिए नहीं कि कहीं आवाज दिल्ली में सोनिया दरबार तक न पहुँच जाए) मोदी की प्रशंसा किये बगैर नहीं रह पा रहे हैं। भ्रष्टाचार, देश की सुरक्षा और आतंकवाद पर जीरो टौलरेन्स तथा विकास को लेकर हद दर्जे के जनून की नीति से भारत ही नहीं तो विदेशों में भी मोदी के प्रति दीवानगी बढती जा रही है।
गठबंधन की बैशाखी से बाहर आना- राजनीति में दलों में गठजोड़ देश या राज्य की जरूरत से ज्यादा दलों और नेताओं का सत्ता सुख का मोह ही होता है। अभी तक के अनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता है कि गठबंधन की बैशाखी से देश और राज्यों के लाभ से कहीं ज्यादा नुकसान ही हुआ है। बैशाखी लंगड़ेपन से बाहर निकलने के बजाए शरीर की स्थायी जरूरत बन जाए तो वही बैशाखी चिंता का विषय बन जाती है। व्यक्ति उससे मुक्ति के उपाय ढूंढना प्रारम्भ कर देता है।  गठबंधन की राजनीति देश और राज्यों को आर्थिक दृष्टि से लंगड़ा कर जाती है। एक ही दल सरकार बनाये, जनता के हित में अपनी राजनैतिक सुझबुझ और पराक्रम दिखाए ताकि जनता उसका ठीक मूल्यांकन कर सके और आवश्यक होने पर दूसरे दल को अवसर दे सके, यही लोकतंत्र में राजनीति की आदर्श स्थिति है। इसके साथ क्षेत्रीय दलों का भारत की राजनीति में उभरना, उनके राजनैतिक सफर का भी निष्पक्ष मूल्यांकन होना आवश्यक है। एक सरसरी आकलन से तो यही लगता है कि  कुछ अपवाद छोड़ कर अधिकांशत: इन दलों ने राष्ट्रहित को दरकिनार कर अपने राज्य की महत्वकांक्षाओं को हवा देकर देश को कमजोर ही किया है। देश गठबंधन की राजनीति में बुरी तरह पिस रहा है। इसलिए अमित शाह ने इन दोनों राज्यों को गठबंधन की राजनीति से बाहर निकालने का साहस किया है। इनकी देखा देखी कांग्रेस और एन सी पी भी अकेले-2 चुनावी दंगल  में उतर आए।अब इन राज्यों की जनता जर्नार्दन को एक दल को पूर्ण बहुमत देकर इस साहस का सम्मान करना ही चाहिए।
मोदी ने अपनी सुझबुझ का मनवाया लोहा-  अपने शासन की छोटी सी कालाब्धि में मोदी ने हर मोर्चे पर अपनी सुझबुझ का लोहा मनवा लिया है। मोदी ने विदेश नीति में भूटान, नेपाल, जापान और अमेरिका की यात्रा में अपना जौहर दिखा दिया है। स्वाभिमान क्या होता है, हमारी संस्कृति क्या है? पहली बार देश ने इसका अनुभव किया। देश के स्वाभिमान को लेकर सब जगह कीर्तिमान बना, पहली बार हुआ ऐसी बातों की लिस्ट बनाने लगेंगे तो इसी में लेख पूरा हो जायेगा। परिणाम भी सामने है जापान और अमेरिका से रिकार्डतोड़ निवेश, चीन और पाकिस्तान को करार जबाब, मंहगाई में कमी  इतना ही नहीं तो अविरल गंगा, स्वच्छ भारत अभियान, गरीबों के लिए जनधन योजना और आदर्श ग्राम योजना जैसी कई मूल कल्पनाओं से मोदी सरकार ने सुखद भविष्य का हसीन स्वप्न ही नहीं तो ठोस प्रवेश भी कराया है। बेचारा कांग्रेस नेतृत्व!अभी एक योजना की आलोचना के लिए तैयारी पूरी नहीं कर पाता कि उतने में दूसरी योजना आ धमकती है। इसी प्रकार कांग्रेस ने जिस गाँधी के नाम पर इतने वर्ष सत्ता सुख भोगा आज उसी जादुई गाँधी जी के छीने जाने के गम से अभी उभर भी नहीं पाई थी कि अब नेहरु के हाथ से निकल जाने की चर्चा से कांग्रेस में मायूसी और बढती जा रही है। इसी प्रकार जय प्रकाश नारायण के खिसक जाने से मुलायम नितीश की नींद उडी हुई है। इस सब के बीच पूर्ण परिणाम के लिए अगर मोदी देश की जनता से थोडा समय और राज्यों में भी पूर्ण बहुमत मांगते हैं तो गलत क्या है? इच्छा, उत्सुकता और उत्साह कितना भी छलांगे मार रहा हो प्रकृति द्वारा अपेक्षित समय तो लगता ही है। फिर चाहे पौधे के पेड़ बनकर फल देने में हो या शादी के बाद बच्चे का मुंह देखने का हो! सब जगह धैर्यपूर्वक इंतजार तो करना ही पड़ता है। क्या मोदी के प्रयासों को जनता का पूर्ण समर्थन और दिल खोल कर सहयोग नहीं मिलना चाहिए? अमेरिका में मोदी को सुन कर एक सज्जन के मुंह से निकला- क्या मोदी जैसे व्यक्ति को चुने जाने के लिए भी चुनाव की आवश्यकता है? इसी तर्ज पर पूछा जा रहा है कि क्या मोदी को चुनाव में वोट मांगने आना पड़ना चाहिए था? वर्षों बाद देश के स्वप्नों को हवा देने वाले,सब जगह आशा और विश्वास का माहौल बना देने वाले नेतृत्व को जनता को कम से कम कुछ साल बिना मांगे पूरा सहयोग देना नहीं देना चाहिए? क्या महाराष्ट्र और हरियाणा के वोटर अपनी जिम्मेवारी पर खरा उतरेंगे?

शुक्रवार, 10 अक्तूबर 2014

सुन रे भुट्टो

बिना सिंध के हिन्द कहाँ है
रावी बिन पंजाब नहीं।
गंगा कैसे सुखी रहेगी
जब तक संग चिनाब नहीं।
लाहौर बिना तो संविधान की
अपनी बात अधूरी है
बिना कराची कैसे कह दें
यह आजादी पूरी है
आजादी का जश्न मनेगा
पेशावर की गलिओं में
तभी तो खुशबु आ पायेगी
कश्मीर की कलियो में
दिल्ली तुझे कसम है
अबकी मत रोड़े अटकाना
ताशकंद व् शिमला जैसे
समझौते मत दोहराना
वचन हमारा रणभूमि में ऐसी तान बजाएंगे
गाढ़ तिरंगा सिन्धु तट पर
बंदे मातरम गायेंगे
सांप सपोलों ने दिल्ली को ललकारा है
घोप कटारी कह दो उनको
पाकिस्तान हमारा है।