मंगलवार, 8 जुलाई 2014

संघ ने दिया प्राचीन श्री गुरु दक्षिणा पद्धति को सामाजिक स्वरूप

किसी साफ-सुथरे मैदान या कमरे में  50- 100 लोग भगवा झंडे के सामने  एकत्र हैं। ध्वज प्रणाम के बाद सब बारी बारी झंडे के सामने सर झुका कर लिफाफे में  कुछ अर्पित कर शांत चित से अपने स्थान पर आ कर बैठ जाते हैं। पूजन पूरा होने पर कोई कार्यकर्ता आज के दिन अर्थात भगवा ध्वज और भारतीय गुरु परम्परा तथा वर्तमान परिस्थिति में राष्ट्र के प्रति अधिकतम समर्पण का आह्वान  कर बैठ जाता है। इसके बाद  कार्यक्रम  समाप्त हो जाता है। सब लोग हंसी ख़ुशी अपने घरों को वापिस चले जाते हैं। कौन हैं ये लोग और इन्होंने आज क्या किया ? आप में से कुछ तो समझ ही  गये होंगे कि ये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता ही हो सकते हैं। अगर ये बात सही है तो इन्होने लिफाफे में कुछ राशि के रूप में अपनी गुरु दक्षिणा अर्पित की है। क्या इस समर्पण का प्रचार होता है? अधिक राशि देने वाले का सम्मान होता है  क्या? और इस लिफाफे में कितनी राशी होती होगी? आपकी सारी  जिज्ञासाएं  ठीक हो सकती है लेकिन संघ के कार्यकर्ता आपके सब सवालों पर मुस्करायेंगे जरूर। क्यूंकि वे साल दर साल से देखते आ रहे हैं, स्वयं गुरुदक्षिणा करते आ रहे हैं। वे जानते हैं  कि संघ के लाखों कार्यकर्ता प्रतिवर्ष  प्रचार - प्रसिद्धी से कोसों दूर रह कर अपना समर्पण करते आए हैं। स्वयंसेवक इसी लिफाफे में साधारण पुष्प , 50/100 रूपये से लेकर हजारो ही नहीं तो लाखों की राशि देश के लिए सहज समर्पित  करते हैं। रोचक बात तो यह है कि उसी दरी पर हजारो रूपये अर्पित करने वाला स्वयंसेवक है तो उसी के पास उसके भारी  भरकम  समर्पण से पूरी तरह अंज़ान और बेखबर मात्र पुष्प चढ़ाने वाला स्वयंसेवक भी पूरे आत्मविश्वास से बैठा होता है। ये दृश्य किसी दूसरे ग्रह के नहीं हैं बल्कि इसी पृथ्वी लोक में जुलाई अगस्त में कहीं भी देखे जा सकते हैं। आपके मन में स्वाभाविक ही प्रश्न आयेगा  कि जिस समाज में हर आम और खास आदमी में लोकेषणा इतनी ज्यादा  मन मष्तिष्क में आ बैठी हो कि व्यक्ति बड़ी राशी तो दूर साधारण पंखे या मंदिर में लगने वाली टायल पर भी नाम लिखवाने का मोह नहीं टाल पाता उसी समाज में संघ ने ये चमत्कार कैसे कर दिखाया? इस सब को समझने के लिए संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार के जीवन का अध्ययन करनाआवश्यक है।
अदभुत संगठक डॉ. हेडगेवार-नागपुर में 1889 में जन्मे विश्व् के महान संगठनकर्ता डॉ. हेडगेवार कांग्रेस के अंदर राष्ट्रीय  स्तर के नेता थे। कांग्रेस में सक्रियता के साथ साथ वे उच्च कोटि के क्रन्तिकारी भी थे। सब प्रकार के क्रियाक्लापों में व्यस्त रहने के बाबजूद प्राक्रतिक आपदा आदि में सेवा कार्यों में भी वे सबसे आगे रहते थे। ये सब करते हुए भी वे समाज में आए विकारों का बड़ी पैनी नजर से विश्लेष्ण करते रहते थे। १९१४ से १९२५ तक विशेष रूप से  उन्होंने इसी मर्ज के मूल कारण खोजने पर अपने आपको केन्द्रित किया। उनकी खोज का मुख्य विषय रहता था कि हम बार बार बार गुलाम क्यूँ हो जाते हैं? पिछले डेढ़ दो हजार साल से भारत को अलग विदेशी जातियां गुलाम बनती रही हैं। हम एक हमलावर  से जैसे कैसे निपटते उतने में दूसरी जाति आ चढ़ती थी। किसी कवि ने ठीक ही है कहा है- 
        सोचो कि हम पर हमला  हर दम  होता ही क्यूँ है?
हंसती है सारी दुनिया भारत रोता ही क्यूँ है? 
 डॉ हेडगेवार ने विचार किया कि आखिर भारत कब अपने आपको पहचानेगा? कब और कैसे  भारत अपने प्रकृति प्रदत्त दायित्व- विश्व का मार्गदर्शन करने की स्थिति में आएगा? भयंकर विपरीत आर्थिक परिस्थितियों में अपनी डाक्टरी की पढाई पूरी कर  एक भी दिन धन कमाने के लिए नौकरी या अपनी प्रेक्टिस नहीं की। कालेज प्रिंसिपल द्वारा वर्मा सरकार की बहुत आकर्षक नौकरी के प्रस्ताव को भी अस्वीकार कर दिया। उन्होंने व्यक्तियों की चिकित्सा करने के बजाये समाज और राष्ट्र के रोग का निदान ढूंडा। अपने निदान में उन्होंने देश भक्ति, व् अन्य श्रेष्ठ गुणों से युक्त एक जिमेवार नागरिक खड़ा करने  को अपने जीवन का ध्येय बनाया। ऐसे श्रेष्ठ लोगों से युक्त समाज का संगठन खड़ा करने के लिए अपना जीवन अर्पित कर दिया। इसी लक्ष्य की पूर्ति केलिए विजयदशमी 1925 को नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना की। संघ की स्थापना से भारत माँ की वर्षों पुरानी इच्छा पूरी हो गयी। डॉ. हेडगेवार ने प्रचलित धारा से हट कर संघ के सारे नियम व् परम्पराएँ खड़ी की। ये विशेषताएं ही संघ की आज की सफलता का आधार सिद्ध हो गयी। इन परम्पराओं में श्री गुरु दक्षिणा पद्धति  भी प्रमुख है। 
महान गुरु शिष्य परम्परा- भारत की  गुरु शिष्य परम्परा भी अदभुत है। भौतिकवादी रंग में रंगे  विदेशी  या अब तो भारत में भी विदेशी चश्मा लगाये लोगों को इस परम्परा की गहराई या ऊंचाई समझ में नहीं आती। स्वामी विवेकानन्द अपने साथ अपने गुरुदेव ठाकुर राम कृष्ण का चित्र रखते थे। अमेरिकी शिष्यों के पूछने पर बोले कि ये मेरे गुरुदेव हैं। मैं आज जो भी हूँ इनकी कृपा के कारण हूँ। शिष्यों ने पूछा ये कितने पढ़े हैं? स्वामी जी बोले ,'ये तो निरक्षर भटाचार्य हैं अर्थात पूरी तरह अनपढ़ हैं।' अमेरीकी शिष्यों को विश्वास नहीं हुआ। बोले कि आप जैसे महा विद्वान महापुरुष को इन्होने क्या सिखाया होगा? स्वामी जी बोले, ' ये मेरे जैसे हजारों विवेकानन्द पैदा कर सकते है। खैर, उनको स्वामी जी की अनेक बातों की तरह ये गुरु शिष्य सम्बद्ध भी समझ नहीं आया। हम सब जानते हैं कि भारत में गुरु को भगवन से भी अधिक बड़ा  स्थान दिया गया है। शिष्य गुरुकृपा से जब जीवन की सच्चाई की कुछ थाह पा लेता है तो भाव-बिभोर हो कर उनकी प्रशंसा में अपने मन का आदर उड़ेल देता है। उदाहरण के लिए- 
* गुरु गोबिंद दोउ खड़े काके लागूं पाए। 
   बलिहारी गुरु अपने गोबिं दियो मिलाये।
* यह तन विष की बेलरी गुरु अमृत की खान
शीश दिए गुरु मिले तो भो सस्ता जान।
* गुरु कुम्हार शिश कुम्भ है गढ़ गढ़ काढ़े खोट ।
अंतर हाथ सहार दे बाहर मारे चोट। 
इसी प्रकार एक अन्य सुन्दर भाव देखिये- 
* गुरुर ब्रह्मा गुरुर विष्णु गुरुदेवो महेश्वरा।
       गुरु साक्षात  परब्रह्म  तस्मैव श्री गुरुवे नम:।।
* ध्यान मूलं गुरु मूर्ति, पूजा मूलं गुरु पदम्।
मन्त्र मूलं गुरु वाक्यं , मोक्ष मूलं गुरु कृपा। 
 हमारी संस्कृति में जीवन में अच्छे गुरु का मिलना बहुत बड़ी उपलब्धि मानी जाती है। मनुष्य ईश्वर का अंश होने के बाबजूद मोह माया के जंजाल में उलझ कर पशुवत व्यवहार करने लग पड़ता है। गुरु उसके मन में जमी मोह माया की राख हटा कर भगवद्प्राप्ति की दिशा में बढ़ाता है। यहाँ यह रोचक है कि गुरु को प्रसन्न करने  के लिए जहाँ शिष्य कठोर परिश्रम करता है वहीं गुरु भी शिष्य के निर्माण में अपने को पूरी तरह खपा देता है। इसके आलावा जहाँ गुरु शिष्य की कठिन परीक्षा लेता है वहीं हमारे यहाँ शिष्य भी खूब ठोक बजा कर  गुरु को स्वीकार करता था। इस दृष्टि से विवेकानन्द और राम कृष्ण के अनेक प्रेरक प्रसंग हैं।  यहाँ  ध्यान देने योग्य बात है कि इसमें कोई किसी का बुरा नहीं मानता था। गुरु शिष्य के सम्बद्ध अलग ही प्रकार के होते हैं। भारत में गुरु शिष्य जोड़ी की अनंत श्रृंखला है। इनमे से प्रमुख का जिक्र करना हो तो श्री राम -वशिष्ठ, विश्वमित्र, भगवान श्री कृष्ण - संदीपनी, चन्द्रगुप्त -चाणक्य , शिवाजी -  रामदास,  दयानन्द -स्वामी बिरजानन्द, स्वामी विवेकानन्द - राम कृष्ण परमहंस आदि। हमारे स्वंतत्रता संग्राम में सावरकर - मडल लाल धींगड़ा, चन्द्र शेखर आजाद - शहीद भगत सिंह तथा राम परसाद  बिस्मिल - अस्फाकउल्लाा खां उल्लेखनीय है। हमारी संस्कृति में एक और मान्यता के अनुसार जिस किसी से भी हम कुछ सीखते है, अपने जीवन निर्माण में जिनका  भी योगदान रहता है हमने उन्हें भी आदरपूर्वक  गुरु का स्थान दिया है। इस दृष्टि से माता को प्रथम गुरु का स्थान दिया गया है। 
श्री गुरु दक्षिणा को बनाया संगठन का आधार- संघ की श्री गुरु दक्षिणा की इस प्राचीन पद्धति का समाज हितार्थ सफलतापूर्वक प्रयोग कर लेने में संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार की दूरदृष्टि ध्यान में आती है। उनकी संगठन की कला तो कमाल की थी। शायद बहुत कम लोगों को पता होगा कि विश्व के सबसे बड़े स्वयंसेवी संगठन आर एस एस का आर्थिक आधार भारत की ये प्राचीन गुरु दक्षिणा पद्धति ही है। जिस समय साम्यवादी और अन्य संघ विरोधी संघ को अमेरिका से पैसा आता है ऐसे आधारहीन आरोप लगा रहे थे, संघ चुपचाप स्वयंसेवकों में ध्येयनिष्ठा व् समर्पण का भाव जागृत करने में व्यस्त रहा। संघ की इस साधारण लेकिन अदभुत कार्य पद्धति पर संघ विरोधी ही नहीं बल्कि कई बार नये स्वयंसेवक भी विश्वास नहीं कर पाते हैं कि इसी गुरु दक्षिणा से प्राप्त धन से संघ का साल भर का खर्चा चलता है। संघ ने बहुत पहले ही संघ ने अपने लिए नियम बनाया कि संघ अपने खर्चे के लिए श्री गुरु दक्षिणा को ही आधार बनाएगा। किसी से आर्थिक सहायता नहीं ली जाएगी। स्वयं को ऐसे कठोर नियम में बाँध लेना किसी खतरे से कम नहीं था, वो भी ऐसे समाज में जहाँ भक्त भगवान की आरती के समय आंखे बंद कर गाता तो है- तेरा तेरे अर्पण क्या लागे मेरा लेकिन आंख खोल कर जैसे ही पैसा चढ़ाता है तो जेब में सबसे कम नोट कौन सा है' यह देखता है। इस  नियम के कारण संघ को प्रारम्भ के १०/१२  साल बहुत कठिनाई आई। लेकिन संघ ने भयंकर आर्थिक कठिनयियो के बाबजूद  इस नियम का श्रद्धापूर्वक  पालन किया। 
संघ के लिए वरदान सिद्ध हुई श्री गुरु दक्षिणा पद्धति - आज संघ बड़े बड़े कार्पोरेट हाउस, पूंजीपतियो या किसी राजनैतिक दल पर निर्भर नहीं है। यही कारण है कि राष्ट्र हित में सत्य बोलने में संघ को कोई कठिनाई नहीं आती। यह सुविधा बहुत संगठनों या राजनैतिक दलों को प्राप्त नहीं है। संघ को समाप्त करने के इस देश के शक्तिशाली प्रधानमन्त्री श्री जवाहरलाल नेहरु और उनके बाद उनकी योग्य सपुत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी ने  1948 और 1975 में ईमादार प्रयास किए हैं। संघ को समाप्त करने  में सरकार अपने षढ़यंत्र में सफल नहीं हुइ तो इसमें संघ के कार्यकर्ताओं का अपना सर्वश्व दाव पर लगा देने की सिद्धता का प्रेरणास्रोत्र संघ में गुरु के स्थान पर स्थापित परम पवित्र भगवा ध्वज है। इसी से प्रेरणा प्राप्त कर हजारो स्वयंसेवकों ने भयंकर कष्ट सहे, अपने  न किये अपराध के लिए बहुत बड़ी कीमत चुकाई लेकिन कहीं भी समझौता या कमजोरी नहीं दिखाई। स्वयंसेवकों के त्याग और बलिदान को देख कर  देश भर के पुलिस अफसर हों या अनेक कांग्रेस के नेता भी संघ के प्रति श्रद्धा से भर गये। इससे भी बड़ी बात कि विपरीत समय में भी स्वयंसेवकों ने संघ के आर्थिक स्रोत को सूखने नहीं दिया। प्रतिबंध के दौरान भी श्री गुरुदाक्षिणा चलती रही। संघ की इस गुरु परम्परा से आर्थिक सुविधा से भी ज्यादा संघ को व्यक्तिनिष्ठ के स्थान पर ध्येयनिष्ठ कार्यकर्ता मिले। संघ की इस उपलब्धि  पर अनेक राजनैतिक ही नहीं तो समाजिक और यहाँ तक कि संत महात्मा भी हैरान हैं। संघ शायद अकेली संस्था होगी जिसे आठ दशक की अपनी यात्रा में बिभाजन की पीड़ा सहन न करनी पड़ी हो। पद की होड़ में कार्यकर्त्ता  परस्पर सर फुटबोल न होते हों। किसी व्यक्ति की जयजयक़ार के नारे के बजाये केवल भारत माता की जय के स्वर सुनाई देते हों।
विश्व गुरु भारत के भव्य स्वप्न के लिए राष्ट्र यज्ञ में होम होती जवानियाँ-  विश्व गुरु सिंहासन पर फिर बैठे भारत माता,
                        दिखे पुन:  संसार चरण में माँ को शीश नवाता।। इस श्रेष्ठ लक्ष्य को साकार करने के लिए लाखों लोग अपना जीवन खपा रहे हैं। इनमे कुछ अपनी पूरी जवानी सन्यस्त रह कर राष्ट्र को समर्पित हो कर परिश्रम की पराकाष्ठ कर रहे हैं तो बहुत कार्यकर्ता घर, परिवार, व्यवसाय तथा  समाजसेवा में संतुलन बैठा कर लक्ष्य को समर्पित हैं। सभी के कार्य करने का हेतु निश्वार्थ समाज सेवा व् राष्ट्र सर्वोपरि है। त्याग और बलिदान के प्रतीक परमपवित्र भगवा ध्वज से प्रेरित  हो स्वयंसेवक का यही  प्रेरणा वाक्य  रहता है- 
 कंकड़ पत्थर बनकर हमने, राष्ट्र नींव को भरना है।
 ब्रह्मतेज और क्षात्र तेज के,  अमर पुजारी बनना है।।
सभी स्वयंसेवकों के होठों पर रहता है मात्र यह गान-
तेरा वैभव अमर रहे माँ, हम दिन चार रहे न रहें। 
आइये! हम सब भी संघ इस महान कार्य को समझ कर इसमें हाथ बंटाने के लिए आगे आयें।




शुक्रवार, 4 जुलाई 2014

सुन्दर-सुखी परिवार ही स्वस्थ समाज और राष्ट्र का आधार है

पिछले दिनों बटाला में युवा दम्पति कार्यक्रम भाग लेने का अवसर मिला| कार्यक्रम मे बोलना है तो इस विषय पर कुछ चिन्तन करने की कोशिश की| इसी चिन्तन से उभरे कुछ विन्दु इस लेख की आधार सामग्री है| कुछ साल पहले लन्दन में हिन्दू स्वयंसेवक संघ द्वारा आयोजित मक्कर सक्रांति कार्यक्रम में इंग्लेंड की तात्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती मारग्रेट थैचर ने एक बड़े महत्व की बात की जिसने भारत में आधुनिकता के नशे में डूबे भारतवासियों को काफी निराश किया | अपने देश भारत में आज बड़ी संख्या इस प्रजाति की हो गयी है जो पाश्चत्य जीवन शैली में ही जीवन की सब समस्याओं का हल खोजती है| मजेदार बात है कि ये लोग पाश्चत्य जीवन शैली को ही आधुनिकता समझते हैं| वे भूल जाते हैं कि आधुनिकता और पाश्चत्य दोनों अलग-अलग अवधारणायें हैं| खैर! बात मारग्रेट थैचर के भाषण की चल रही थी तो उन्होंने वहां कहा कि हमने भारत से बहुत सारी बातें सीखी हैं और आज अगर हमने अपने समाज को बचाना है है तो भारत की परिवार व्यवस्था लागू करनी होगी| भारत ने विश्व को जो बहुत कुछ दिया है उसमे परिवार व्यवस्था भी अत्यंत महत्वपूर्ण देन है|'' भारत के महान ऋषियों की तो बात छोड़ भी दें तो यूरोप और पाश्चत्य विद्वानों की अनुभव सिद्ध सीख को भी अनसुना करने के कारण आज भारत के सम्भ्रांत वर्ग में भी यूरोप व् पाश्चत्य जीवन की सारी बुराइयाँ प्रवेश करती जा रही हैं | इसके परिणामस्वरूप  इस वर्ग को मानसिक अशांति ने उन्हें वेचैन कर रखा है| आखिर हमसे कहाँ चूक हो गयी हैं| आज इस पर गम्भीर चिन्तन करने की आवश्यकता है|
विश्व चला भारत की ओर लेकिन हम ?- क्या  हम सब जानते हैं कि इस समय विश्व भारत की हर चीज की ओर बेहद आकर्षित हो रहा है| जीवन के सब भोग विलास से बुरी तरह हताश और निराश पश्चिम जगत किसी भी कीमत पर मन की शांति चाहता है| आज हजारों की संख्या में ये लोग नंगे पाँव, गले में लम्बी माला डाले व् शरीर पर भगवा चोला लपेटे दर दर की ठोकरे खाते हरिद्वार व् वृन्दावन आदि स्थानों में देखे जा सकते हैं| इसके अलावा वहां योग की कक्षाएं, संस्कृत भाषा, भारतीय वेशभूषा व् हिन्दू धर्म अत्यधिक आकर्षण का केंद्र बनते जा रहे हैं| आज इस्लाम व् ईसाईयत वहां के लोगों के प्रश्नों का उत्तर नही दे पा रहे हैं| युवा चर्च के प्रति बेहद उदासीन हैं जिस कारण चर्च बिक रहे हैं| पोप अपने पादरियों के यौन शोषण के अपराधों के लिए माफ़ी मांगते मांगते थक  से गये हैं| इसी प्रकार इस्लाम तो आतंकवाद का पर्यावाची बनता जा रहा है| इस्लाम के अंदर शांतिप्रिय लोगों की आवाज शुरू से ही नक्कारखाने की तूती की तरह आज भी निष्प्रभावी है| इस्लाम से शांति, प्रेम व् भाईचारे की अपेक्षा बेमानी होती जा रही हैं| विश्वप्रेम, सुख व् शांति की बातें करने वाली इन विचारधाराओं ने सबसे ज्यादा निर्दोष लोगों के रक्त से धरती को रंगा है| ईसाइयत दो विश्व युद्ध का उपहार मानवता को दे चुका है, वहीँ इस्लाम सारे विश्व में आतंकवाद का प्रतीक बन गया है| इसके अलावा धरती, औरत व् पर्यावरण आदि को लेकर  इनकी सोच ने मानवता के अस्तित्व पर ही प्रश्नचिंह खड़े कर दिए हैं| यही कारण है कि आज सारे विश्व के लोग बड़ी तेजी से मानवता के सुखद भविष्य को लेकर भारत के दर्शन की शरण आ रहे हैं|
परिवार व्यवस्था को समाप्त करने की साजिश- आज भारत विरोधी शक्तियां भारत को समाप्त करने के लिए भारत की इस अनमोल परिवार व्यवस्था को समाप्त करने की साजिश रच रहे हैं| भारत की आत्मा इसकी संस्कृति में बसती है जिस दिन यह संस्कृति समाप्त हो गयी उसी समय न केवल भारत बल्कि सम्पूर्ण मानवता के अस्तित्व पर संकट के बादल छ जायेंगे| स्वामी विवेकानन्द जैसे अनेक महापुरुष हमे इस सम्बद्ध में सावधान कर गये हैं| भारत की हमारी संस्कृति व् संस्कार लाखों वर्षों से पीढ़ी दर पीढ़ी निरंतर चलते आ रहे हैं| हमे मिटाने असंख्य हमलावर आये, हर तरह के अत्याचार किये परन्तु वे स्वयम मिट गये लेकिन हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सके| एक गीत की पंक्ति में ये भाव सुंदर ढंग से व्यक्त हुए हैं-
                                                                युगों युगों से बनी हुई परिपाटी है, खून दिया है मगर नहीं दी कभी देश की माटी है|
                                                                हमे मिटाने जो चला धूल धरा की  चाटी है, खून दिया है मगर नहीं दी कभी देश की माटी है|
यहाँ माटी का अर्थ देश की सीमा के साथ-साथ अपनी संस्कृति भी है| गुरु तेग बहादुर , बन्दा बहादुर, भाई मतिदास व् सतिदास का बलिदान हो या गुरुपुत्रों का बलिदान हो, वीर हकीकत का बलिदान या फिर रानी पदमनी के साथ हजारों रानिओं का चितारोहण हो यह एक अंतहीन गौरव गाथा है| यहाँ यह उलेखनीय है की ये बलिदान धर्म की रक्षा के लिए हुए| धर्म के उपर थोडा भी समझौता कर लेने पर जीवन के सारे सुख व् आराम के आकर्षक प्रस्ताव इनके सामने थे| प्रश्न उठता है कि पीढ़ी दर पीढ़ी ये संस्कार कैसे दृढ होते गये? धर्म के उपर जीवन तक बलिदान कर देने की दृढ़ता कहाँ से पैदा हो गयी? हमने बच्चों को इसकी  टयूसन तो रखी नहीं फिर ये चमत्कार कैसे हो गया? विचार करने पर इसका उत्तर है कि ये सब हमारी परिवार व्यवस्था के कारण संभव हो पाया है| आज परिवार व्यवस्था थोड़ी ढ़ीली या दिशाहीन होते ही करोड़ों देशवासी थोडा सा संकट या धन आदि के आकर्षण में धर्म परिवर्तन कर मुसलमान या ईसाई बन चुके हैं| आखिर उन्हीं पुर्बजों की सन्तान इतनी कमजोर क्यूँ पड़ गयी? उत्तर साफ़ है कि परिवार में जो संस्कार दूध में मिलते थे वह परम्परा थोड़ी कमजोर पड़ गयी| व्यक्ति निर्माण परिवार में सहज ही होता जाता है| माता-पिता, नाना-नानी, दादा-दादी और अन्य रिश्तेदारों से बच्चा बहुत कुछ अनौपचारिक ढंग से ही सीख लेता था| आज हमें अपने परिवार को बचाना होगा|
विवाह की पूर्व तयारी- आज विवाह से पूर्व लडके और लड़की की तैयारी तथा शादी एक जिम्मेवारी है इसकी सीख देने की कोई व्यवस्थित पद्धति नहीं है | पहले संयुक्त परिवार में शिक्षण का यह कार्य लड़की को सहेलिओं, भाभिओं, मासिओं व् मामिओं से तथा लड़कों को दोस्तों व् मामा, भाई आदि से कुछ मात्रा में ही सही लेकिन पूरा हो जाता था| अब छोटे परिवारों में बच्चों को सुविधा नही मिल पा रही है| आज या तो रिश्ते व् दोस्त उपलब्ध नहीं या फिर सहज प्यार न होने के कारण परस्पर दिल खोल कर बात नहीं हो पाती | व्यक्ति को शादी क्यूँ करनी चाहिए? शादी का उद्येश्य क्या है? जीवन का लक्ष्य क्या है और उस लक्ष्य प्राप्ति में शादी कैसे सहायक हो सकती है? शादी के बाद ससुराल पक्ष के प्रति , मायके के प्रति तथा अन्य नये रिश्तों के प्रति हमारा क्या दायित्व है? इन रिश्तों का महत्व क्या है? जीवन सब रिश्तो का कुल योग होता है आदि आदि बहुत सी बातें बच्चों को बताने की आवश्यकता रहती है| इसके अलावा शादी के बाद शादीशुदा जीवन की स्वास्थ्य सम्बधी जानकारियां या काम विज्ञान की बारीकियाँ बताने देने भी जरूरत होती है| आज शादी के लिए लडके लडकी का व्यस्क होना, नौकरी आदि लग जाना या व्यवसाय में सेटल हो जाना ही पर्याप्त योग्यता मान लिया जाता है| आज हमे अपने युवा दम्पतियो को बताना होगा कि शादी बहुत बड़ी जिमेवारी का नाम है| शादी केवल काम सुख का माध्यम नहीं है काम सुख शादी का एक छोटा सा भाग है| अपने जीवन से समाज और राष्ट्र का पोषण करना और राष्ट्र को योग्य संतान अर्पित करना वास्तव में गृहस्थ जीवन का लक्ष्य होना चाहिए| हमारे शास्त्रों में गृहस्थ जीवन को सब आश्रमों का आधार व् सबसे श्रेष्ठ बताया गया है| इसके अनरूप गृहस्थ जीवन खड़ा करने की प्रेरणा व् शिक्षण देने की आवयश्कता है|
परिवार नियोजन अर्थात क्या? - परिवार नियोजन का प्रचलित अर्थ तो भगवान के कार्य में हस्तक्षेप से ज्यादा कुछ नहीं  रह गया है| अर्थात बच्चा कब चाहिए, कितने चाहिए ? ये तो सरकार ने रोक दिया नहीं तो लड़का या लडकी जो चाहिए उसको लेने की योजना करना ही परिवार नियोजन हो गया है| वास्तव में परिवार नियोजन का व्यापक अर्थ है इसे उसी प्रकार लेना चाहिए| आपके कितने बच्चे होने चाहिए क्या ये केवल आपका विषय है? ये केवल आपका नहीं तो पूरे देश व् समाज का भी विषय है| आज महिलाएं अपनी फिगर की चिंता में《 नाम बेशक जनसंख्या वृद्धि का दिया जाता है〉एक या दो से अधिक बच्चों से आगे नहीं सोच रही हैं| लेकिन आज प्रश्न पैदा होना शुरू हो गया है कि एक ही बच्चा होने के कारण आगे सेना में बच्चे कहाँ से आएंगे? संत कहाँ से आएंगे? जीवन को दाव पर लगाने वाले कार्यों में बच्चों को कौन भेजेगा? अपनी फिगर बचाते बचाते देश की फिगर बिगड़ गयी तो? इसी कारण बहुत सी माताएं अपना दूध तक बच्चे को नहीं पिलाती| आज के पढ़े लिखे युवा दम्पतियों को विचार करना होगा कि देश में तेजी से हो रहे जनसंख्या असंतुलन का सामना कैसे होगा? `हम दो-हमारे दो' से हम, `हम दो-हमारा एक' पर आ रहे हैं और इस्लाम में `हम पांच हमारे -पचीस' का पहाडा अभी भी गौरव से पढ़ा जाता है| बच्चे पैदा करना भी वे कौम की सेवा मानते हैं| इसी प्रकार इसाइयत भी धर्म परिवर्तन कर अपनी जनसंख्या तेजी से बढ़ा रही है| अगर जनसंख्या इसी अनुपात् से बढती रही तो प्रसिद्ध विद्वान डॉ. जितेन्द्र बजाज के अनुसार आने वाले पचास साल बाद हम हम अपने ही देश में बेगाने हो जायेंगे अर्थात हम अल्पसंख्यक हो जायेंगे| भारत इस्लामिक देश बन जायेगा| आज ये बात बेशक कोरी कल्पना लगती है लेकिन अगर हमने इस पर गंभीरता से विचार नहीं  किया तो इसे हकीकत में बदलते देर नहीं लगेगी| 15 अगस्त से पहले देश बिभाजन भी बहुतों को कल्पना ही तो लगती थी| हम अपने बच्चों को कैसा देश छोड़ कर जायेंगे इस पर भी तो विचार करना ही होगा| फिर एक और मजेदार स्थिति है कि जिन गरीबों के कम बच्चे होने चाहिए उनके  ज्यादा हैं और जो बच्चों को सम्भाल सकते हैं उन घरों में एक और दो बच्चे हमारी समझदारी का मजाक उड़ाते दिखते हैं? इसलिए घर में कितने बच्चे हों ये नितांत निजी मामला नहीं है|  इसके आगे परिवार नियोजन का अर्थ अपने परिवार की पूरी योजना करना अर्थात कब तक बच्चे अपने पैरों आर खड़े हो जायेंगे? हमने कब तक पैसा कमाने के लिए दिन रात एक करना है? समाज के लिए मेरा या मेरे परिवार का क्या योगदान रहेगा? अधिकांश व्यक्ति नितांत स्वकेंद्रित जीवन जीते हैं| राष्ट्र व् समाज के प्रति उनके योगदान का पन्ना खाली ही रह जाता हैं आखिर में वे यह गुनगुनाने के लिए बेबस होते हैं- मेरा जीवन कोरा कागज कोरा ही रह गया....
महान अतीत से कटते जा रहे हैं हम- प्राचीन भारत के साहित्य या किसी कथा कहानी में तीन शब्द मिलते ही नहीं हैं -तलाक, आत्महत्या और वृद्धा आश्रम| आज दुर्भाग्यवश ये शब्द आम सुनने को मिल रहे हैं| अहंकार की भरमार व् सहनशीलता के आभाव के कारण तलाक बढ़ते जा रहे हैं| आज युवा को कैरियर में जबरदस्त दबाब झेलना पढ़ रहा है| उधर घर में  शांति न होने पर वह डिप्रेसन में जा रहा है| इस कारण आत्महत्या के मामले बहुत तेजी से बढ़ रहे हैं| तनाव के वातावरण में जो बच्चे पनपते हैं वो स्वभाव से चिडचिडे, दब्बू या फिर बहुत हिंसक होते हैं| घर में मिले असहज माहौल का परिणाम उनके व्यक्तित्व पर झलकता है| माता पिता से मिले कम प्यार की पूर्ति वह छोटी उम्र में नशों या फिर बलात्कार आदि कर पूरी करता है| इन बच्चों को माता-पिता से प्यार न के बराबर होता है रिश्तेदारों से लगाव तो दूर की बात है| समय आने पर ये बड़े आराम से अपने माता-पिता को वृद्धाआश्रम छोड़ आते हैं| इन्हें किसी की आँख की शरम भी नहीं होती  है| अगर समय रहते इस समस्या का हल नहीं खोजा तो आने वाले समय में  वृद्धाआश्रम की मांग और बढ़ने वाली है| यह भारत जैसें महान देश के लिए शुभ सुचना नहीं है|
क्यूँ टूट रहे हैं परिवार- आज अधिकांश नव दम्पति एक साथ चलने में कठिनाई अनुभव कर रहे हैं| जिस देश में सात जन्म तक साथ निभाने की कसमे होती थी वहीं आज कोई जोड़ा बिना लड़ाई झगड़े के जीवन की शुरुआत कर ले तो बड़ी बात मानी जाने लग पड़ी ही| तलाक सामान्य होते जा रहे हैं| समाज शास्त्रियों को इस पर विचार करना होगा| वैसे तो ये कहानी घर घर की जैसा मामला होने का कारण एक  सूत्र खोजना कठिन होगा तो भी कुछ समान बाते ध्यान में आती हैं| आज घर में कम बच्चे होने के कारण घर में उनकी ही चलती है| उनका हर शब्द, हर मांग अंतिम होती है| पंजाब में मजाक में कहते भी हैं की आजकल बच्चे बच्चे कम प्यो ज्यादा होते हैं| इस पृष्ठ भूमि में पले बच्चों में सहनशक्ति का आभाव दिखता है जो कि सफल दाम्पत्य जीवन का आधार माना जाता है| स्वाभिमान के नाम पर अहंकार सारी सीमा पार करता दिखाई देता है| जहाँ दोनों कमाने वाले हैं वहां स्थिति और भी बिस्फोटक रहती है| थोड़ी सी चिंगारी मिली नहीं की धमाका! फिर छोटा परिवार होने के कारण रूठने पर मनाये कौन? व्यक्ति अपने मन का गुब्बार निकाले तो कहाँ? परिवार की एकता में बाधक लडके लडकी की परिवार के रहन सहन को लेकर मत भिन्नता भी होती है| शादी के बाद पति-पत्नी परस्पर एक दुसरे को लेकर फ़िल्मी कल्पनालोक में डूबे होते हैं, सभी की अपनी-2 कल्पना की उडान होती है, रंगीन हसीन स्वप्न होते हैं जैसे ही जीवन की कटु सच्चाई से सामना होता है वे एक दम आसमान से धरती पर आ गिरते हैं| लडके लड़की के शादी से पूर्व के सम्बद्ध, लिव इन रिलेशन जैसी नई पाश्चत्य जीवन शैली ने तो हमारे वैवाहिक जीवन की कमर ही तोड़ कर रख दी| इस सारी नई परिस्थिति के लिए हमें बच्चों को तैयार करना होगा|
बच्चों को कैसे सभालें- आज के समय में बच्चों को सम्भालना, पालना अत्यंत धैर्य व् सुझबुझ का कार्य है| परिवारों में बच्चों को सुधारने के नाम पर या तो पूरी तरह डरा धमका कर रखा जाता है या फिर पूरी तरह स्वतंत्र छोड़ दिया जाता है| माँ हाथ में कटोरी चमच लिए उसके पीछे दौडती रहती है| इन दोनों के बीच का रास्ता लेने की जरूरत है| आज हर माता अपने बच्चे को ए.सी.स्कूल, इंग्लिश माध्यम के स्कूल में डालना चाहती है| स्कुल का वातावरण, पढ़ाई व् संस्कार उसके लिए आखिरी प्राथमिकता होती है| इस मामले में वो किसी नहीं सुनती| माताओं का  ये प्यार बहुत बार बच्चों के भविष्य से खेल जाता है| माताओं को अपना दृष्टिकोण बदलने की जरूरत है| आज बच्चे बहुत समझदार हैं इसलिए उनके समुचित विकास  के लिए माता पिता की बच्चों से दोस्ती होना और तर्कपूर्ण ढंग से समझा कर उसे मनाना चाहिए| बच्चे की सारी बातें मान कर हम न चाहते हुए भी उसका अहित ही कर जाते हैं| बच्चों को परिवार की पूरी कल्पना देनी, सब रिश्तों का महत्व समझाना और सब रिश्तों के प्रति मन में आदर विकसित करना आवश्यक है| इसके आलावा गरीब, मजदूर, संत भिखारी व् बजुर्गों इतना ही नहीं  तो पशु-पक्षी, पेड़-पौधों के प्रति भी लगाव व् आदर का भाव पैदा करना स्वस्थ समाज जीवन के लिए आवश्यक है| आज महिलाओं के प्रति बढ़ रहे अपराधों को भी हमे यहीं से ठीक करना होगा| हर बच्चे के मन में महिला के प्रति आदर का भाव अभी से पैदा करना होगा..... मातरि वत परदारेषु......... का अर्थ व् भाव उसके दिल में गहराई से बैठाने होंगे| कभी-2 उसे गरीबों की बस्तियों में भी ले जा  कर उसकी सम्वेदनाये जागरित करनी चाहिए| आप देखेंगे घर में उसका व्यवहार नियंत्रित हो जायेगा| घर एक समय सारा परिवार मिल के भोजन करे इसकी योजना करनी चाहिए| सवेरे उठ कर धरती को प्रणाम करना, बड़ों के पैर छूने आदि आग्रहपूर्वक लागू करना चाहए| घर में सामुहिक पूजा भी अच्छा वातावरण बनाने में सहायक होती है| परिवार में समय पर देश व् समाज की चर्चा जरुर करनी चाहिए| महापुरुषों की जीवनियां अवश्य रखें| ये बच्चे के जीवन को दिशा देने में अत्यंत सहायक होती हैं|
पढ़ी लिखी माँ बने राष्ट्र व्  समाज की प्रेरणा- हमारे लिए ख़ुशी की बात है कि अब हमे पढ़ी लिखी माताएं मिलेंगी| पढ़ी-लिखी समझदार माता एक बच्चे के साथ-साथ समाज के लिए भी वरदान सिद्ध हो सकती है! सबसे पहली बात जिनको आर्थिक कारणों के चलते नौकरी आवश्यक नहीं हो वे नौकरी से परहेज करें तो अच्छा है| या दो में से आपसी सहमति से  एक नौकरी करे| आवश्यक होने पर दूसरा सदस्य अपना व्यवसाय करे ताकि वो हमेशा बच्चों या परिवार व् समाज आदि के लिए उपलब्ध रहे| नौकरी न करने वाली माहिलायें समाज सेवा में अपनी पढाई व् योग्यता का उपयोग करें. आज समाज में बहुत सारे कार्य हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं | करोड़ो लोग आज भी स्वतन्त्रता का स्वाद अभी तक नहीं चख पायें हैं| हम दो चार बच्चों की ही माँ बन कर संतुष्ट क्यूँ  हो जाएँ? हम अपना दायरा व्यापक करें| जब हमारे प्रयत्नों से किन्हीं दो चार चेहरों पर हमें मुस्कान दिखेगी तो अनंत आन्तरिक प्रसन्नता का अनुभव होगा| यही जीवन की सार्थकता और सफलता है| अच्छा, सुखी, प्रसन्न परिवार न केवल बच्चे के लिए बल्कि सम्पूर्ण देश व समाज के लिए वरदान हो सकता है|