बुधवार, 22 जून 2011

बच्चों के बचपन को संवारे ताकि वे आपके बुढ़ापे को सम्भाल सकें

                                                 विजय कुमार नडडा
दैनिक भास्कर में छपे एक समाचार ने मन को अन्दर तक बेचैन कर दिया । समाचार के अनुसार कोटा ( राजस्थान ) के एक दम्पति अपनी मां को घर में बंद कर पांच दिन के लिए मुम्बई चले गए । बुढी मां के लिए पांच दिन का खाना एक साथ बना कर रख गए थे । पडोसियों को जब पता चला तो उन्होंने पुलिस और स्वयंसेवी संस्थाओं से सम्पर्क कर उसे अपनों की कैद से मुक्त कराया । पुलिस के पूछने पर बुढीया बच्चों के ब्यबहार को ले कर चुप ही रही । पुलिस के बार-बार कहने पर भी उसने बच्चों के बिरुद्ध शिकायत पुलिस से नहीं की । मां ने बच्चों के प्रति अपने सहज प्यार के चलते शिकायत नहीं की या बच्चों के डर ने उसे रोके रखा यह साफ नहीं हो सका ।
बुढिया जानती है कि पुलिस और संस्थाओं ने तो चले जाना है और उसे बुढापा तो बच्च्चों के साथ ही काटना है । हां उसके आंसू जरूर उसकी बेबशी  ब्यान कर रहे थे ।
आखिर श्रबण के देश में यह क्या हो रहा है? हमारे बच्चे हमें हमारी किस भूल की सजा दे रहे हैं? क्या यह बच्चों को योग्य संस्कार और पूरा प्यार न मिलने का परिणाम है? और आगे तो लगता है यह समस्या और पेचीदी होने वाली है। दो से एक बच्चे पर आ गए और उसकी भी चिंता करने के लिए समय का अभाव ..... दौड , दौड़ और पैसे के लिए अन्धी दौड .. आखिर इस दौड से और क्या परिणाम की उम्मीद की जा सकती है । बच्चा मन से ठीक होने के बाद भी इसी पैसे की दौड में जिसमें कभी वे स्वयं थे और उन्होंने अपने मां-बाप को छोडा था अब वही बच्चा इन्हें छोड कर जाने में गुरेज नहीं करता या उसके पास ओर कोई बिकलप नहीं होता । इसमें सबसे ज्यादा समस्या उलझी है मां की नौकरी के प्रति दीवानगी से । इससे उसकी जेब अवश्य भारी  और गर्म हो गई होगी लेकिन इसकी कीमत उसे रिश्तों में आई ठण्डक से चुकानी पड रही है। इसी दौड के कारण रिश्ते नाम के रह गए हैं । जब तक बात केबल दूर के रिश्तों तक सीमित थी तब तो उसकी आंच सहन की जाती रही लेकिन बात जब खुद के बच्चों की बेबफाई तक आ गई तो बेचैनी बढनी स्वाभाविक ही है । पैसे के बल पर आप सुख-सुबिधाएं तो जुटा सकते हैं लेकिन आखिर उस दिल का क्या इलाज है जो केबल पैसे की गर्मी नहीं बल्कि अपनेपन की गर्मी से मानता है? पैसे की दौड में शामिल दम्पति जब पीछे मुड कर देखता है तो उसे अपने पीछे अपना साया भी
नजर नहीं आता है। एक-दो बच्चे वे भी उपेक्षा में पले  बेचारे प्यार की तलाश में  किसी की जुल्फों की छांव ढूंढते ढंढते अपना जीवन साथी बिना मां -बाप की सलाह से स्वयं ही चुन लेते हैं । तो ये असहाय से सोते से जाग कर पहले तो खूब हाय तौबा मचाते हैं, कभी-कभी तो गुस्से में उनकी शादी का जोरदार बिरोध कर और एक गलती कर बैठते हैं। मां-बाप के प्यार और संस्कारों से बंचित ये बच्चे कहां बात सुनने वाले हैं? ये बच्चे गुस्से में मां बाप को ही पहचानने से मना कर देते हैं । जीवन के आखिर पडाव में बच्चों के ऐसे अजनवी और रूखे व्यबहार से बुजुर्ग दम्पति अपने को लुटा सा अनुभव करता है । लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होती है।
इसके अलावा एक और समस्या जो नई पीढ़ी के बच्चों को झेलनी पड रही है वह है माता-पिता में
बढ रही अनबन । नौकरी के कारण दोनों का स्वाभिमान छोटी-छोटी बातों पर आहत हो जाता है। कोई झुकने को तैयार नहीं होता है । इसका परिणाम रोज-रोज के झगडे और परिणाम स्वरुप घर में तनाव । यह तनाव बच्चों के नाजुक मन पर बुरी तरह असर करता है। अधिकांतशत: अब इस तनाव की परिणीती तलाक में होने लगी है। यह बच्चों के लिए और भी बुरी खबर  होती है। अब ऐसे माहौल में जो बच्चा पलेगा उसे किसी के प्रति कितना प्यार और अपनत्व होगा इसकी कल्पना की जा सकती है?  कुछ साल पहले चण्डीगढ में एक आई.ए.एस दम्पति जो इसी अहम के चलते अलगाव का जीवन ब्यतीत कर रहे हैं उनकी १८ साल की बच्ची ने डिप्रैसन के चलते स्कुल की चौथी मंजिल से छलांग लगा कर अपनी इह लीला समाप्त कर ली । अब उम्र के इस पडाव पर ऐसा जखम झेल कर क्या कोई व्यक्ति सुखी जीवन जी सकता है? जिस सम्रद्धि व कथित स्वाभिमान जिसके लिए कभी इन्होंने अपना रिश्ता व बच्चों के प्रति अपने दायित्व को दाव लगाया था यही सम्रद्धि और पराए से लगने वाले बच्चे इन्हें काटने को दौड ते हैं ? चर्चा  चलने पर प्रायः इसका जबाब दिया जाता है कि यह घोर कलयुग का परिणाम है । इसका कोई इलाज नहीं है। लेकिन थोडा विचार करने पर ध्यान में आता है कि यह उतर भी अपने दायित्व से भागने जैसा है। इसी कथित कलियुग में ऐसे सैकडों उदाहरण हैं जहां बच्चे अपने मां-बाप की बहुत सेवा करते हैं । वास्तव में
सच्चाई यही है कि जहां बच्चों के संस्कार पर ठीक ध्यान दिया जाता है । बच्चों को पूरा प्यार मिलता है वहां कलियुग भी कुछनहीं कर पाता है। आखिर इस में से मार्ग क्या है? भौतिक दौड़ में और संस्कृति में सामंजस्य कैसे बैठाया जाए यह सोचना होगा । दम्पतिं में से एक नौकरी और बहुत आवश्यक होने पर एक अपना काम करे ताकि परिवार का एक सदस्य बच्चोंके लिए हर समय उपलब्ध रहे। अपने काम में से पैसा भी आ जाता है और घर पर रहने के कारण बच्चे भी आंखों के सामने रहने के कारण नौकरों के असंवेदन और असभ्य व्यवहार से बचे रहते हैं । नौकर व नौकरानियां पीछे बच्चों के साथ क्या करते हैं यह कई बार सामने आ चुका है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमें वही काटने को मिलता है जो हम बोते हें । इसलिए हम देश समाज के लिए योग्य नागरिक देने के लिए नही तो अपने स्वार्थ के लिए ही सही बच्चों को पर्याप्त समय देने की अपनी समय की रचना करें नही तो कोटा जैसे प्रकरण के लिए तैंयार रहना ही होगा । यह एक ध्रुव सत्य है की बच्चों के बचपन की ओर ध्यान से वे निश्चित हमारे बुढ़ापे की चिंता करेंगे।

गुरुवार, 9 जून 2011

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