मंगलवार, 13 अक्तूबर 2015

नारी तू नारायणी

* भगवान श्री कृष्ण ने जीवन के आखिरी क्षण तक माँ के हाथों भोजन का वरदान मांगा था।
* आदि शंकराचार्य की मां ने जीवन के आखिरी क्षण पर उपस्थित होने का वायदा ले कर ही उन्हें सन्यास लेने की अनुमति दि थी।
* बासुदेव बलवन्त फड़के मां की बीमारी पर छुटि न मिलने पर नोकरी छोड़ कर घर आ गए थे।
* बिनोबा भावे ने गीता का मराठी अनुवाद मां के लिए किया था। उनके देहांत के बाद गीता को ही मां माँ लिया था।
वैदिक काल मे मैत्रयी, गार्गी अपाला मनत्रदरस्टा
ऋषि थी।
शंकराचार्य को वाद मे एक बार तो हरा देने वाली भारती को कौन नहीं जानता?
वनवास जाने की आज्ञा लेने गए तो मां कौसल्या हवन कर रही थी, बाली की पत्नी तारा मन्तर्वेता थीं।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण- ऋग्वेद मे 300 से अधिक ऋषि महिलाएं हैं। दीरघतमस ऋषि की माता ममता ने ऋग्वेद के दसवें सूक्त मे अग्नि उपायेन मन्त्रों की रचना की है। इनकी पत्नी उशिजा ने 8 मन्त्रों की रचना की है। ऋषि कक्षीवान की पुत्री घोष ने कुष्ठ रोग का निदान मन्त्रों से खोजा था। अम्भुज ऋषि की कन्या बाल ने पदार्थ मे ऊर्जा ओर ऊर्जा मे पदार्थ निहित है इस सिद्धान्त की खोज की थी। सुनीता बिलियमस ने 195 घण्टे स्पेस वाक तथा 105 घण्टे 40 मिनट का कीर्तिमान बनाया है। वे अपने साथ गीता व गणेश की प्रतिमा ले गयी थी।

शनिवार, 3 अक्तूबर 2015

अतीत से अनुप्रेरित वर्तमान चुनोतियों का सामना करने में सक्षम 'शिक्षा नीति' होगी कारगर

केंद्र की नई सरकार को बधाई देनी होगी कि उसने हाशिये पर डाल दिए शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण विषय पर व्यापक जनसहभागिता आमन्त्रित की है। सरकार का शिक्षा के भगवाकरण का शोर मचा कर आसमान सिर पर उठा लेने वालों की परवाह न कर इस विषय पर आगे बढ़ना सांप को मुंह से पकड़ने जैसा साहसिक कार्य है। अभी अपने बच्चों को शिक्षा के नाम पर हम अंग्रेज द्वारा बनाये सिद्धान्त ही रटाते जा रहे हैं। यही कारण है कि हमारे अधिकांश बड़े सुशिक्षित लोग भी देशभक्ति, स्वाभिमान और सामान्य जीवन मूल्यों में शून्य ही दिखाई देते हैं। 'देर आयद दुरस्त आयद' ही सही लेकिन अब इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए। स्वतन्त्रता के पश्चात शिक्षा नीति बनाने में जनसुझाव मांगना सरकार का यह पहला बड़ा प्रयोग है। सरकार या सिस्टम की आलोचना नहीं सार्थक सुझाव दें- जैसे ही शिक्षा पर जन सुझाव आमन्त्रित करने की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई तो शिक्षा विज्ञानियों में ठण्डी या यूँ कहें नाममात्र की हलचल हुई। हम लोग सरकार, सिस्टम और नेताओं की जी भर कर आलोचना करने में सिद्धहस्त होते हैं। हमारे अधिकांश विद्वान विशेषकर शिक्षा शास्त्री वैसे तो 'सुझाव वीर' ही होते हैं। लेकिन सुझाव भी सरकार तक पहुंचाने के बजाय वे अपने घर के अतिथि कक्ष या चौराहे पर देने में ही अपने कर्तव्य की इतिश्री मान लेते हैं। वैसे सब लोग निरन्तर महंगी होती जा रही शिक्षा, इस शिक्षा से तैयार हो रही संस्कार विहीन नई पीढ़ी तथा शिक्षा पर भारी खर्चे के बाबजूद बढ़ती बेरोजगारी से बुरी तरह परेशान हैं। लेकिन इस बीच भी नई शिक्षा नीति पर सार्थक सुझाव देने में ज्यादा उत्साह नहीं देखा जा रहा है। यहां छोटी कथा अत्यंत प्रासंगिक लगती है। एक बार किसी भक्त की गरीबी से व्यथित माँ पार्वती के आग्रह पर भगवान शिव ने उसके मार्ग में कुछ मुद्राएं रख दी ताकि इनसे इस भक्त की गरीबी दूर हो सके। लेकिन जब वह व्यक्ति मुद्राओं के समीप आया तो उसने मन में विचार किया कि अंधे कैसे चलते हैं यह अनुभव भी तो करना चाहिए। और इस प्रकार भक्त जी महाराज ऑंखें बन्द कर वहां से निकल गए। इस ऐतिहासिक अवसर पर चुप्पी भी उस भक्त की तरह भाग्य को दरबाजे से वापिस लौटाने जैसा ही। एक ओर इस महत्वपूर्ण विषय पर जहां सामान्य जन की निष्क्रियता निराशाजनक है वहीं नई शिक्षा नीति को लेकर देश में कुछ तत्वों की अति सक्रियता चिंताजनक है। सुझाव देने के लिए कमन्युसिट, ईसाई और विदेशी लक्ष्यों को लेकर भारत में सक्रिय एनजीओ सक्रिय हो गयी हैं। ऐसे में कल अगर नई शिक्षा निति में अपेक्षा के अनुसार परिवर्तन नहीं आये तो दोष किसका होगा? हम जानते ही हैं कि क्योंकि सरकार भवन से ज्यादा फाइलों से चलती है इसलिए जनदवाब बनाते समय हमें चूकना नहीं होगा। अतीत में झांकना होगा- भारत की शिक्षा सम्पूर्ण विश्व के लिए आदर्श और प्रेरक रही है। प्रसिद्ध गाँधीवादी विद्वान धर्मपाल ने तथ्यों के सहित सिद्ध किया है कि अंग्रेजों से हमारे यहां साक्षरता दर लगभग शतप्रतिशत थी। हमारे यहां सम्पूर्ण विश्व के छात्र प्रवेश लेने के लिए लालायित रहते थे। नालन्दा और तक्षशिला विश्विद्यालयों का नाम कौन नहीं जानता? हम केवल अक्षर ज्ञान की शिक्षा नहीं बल्कि सम्पूर्ण व्यक्तित्व विकास पर जोर देते थे। इसलिए शिक्षा पूरी कर लेने के बाद भी कुलपति आखिरी परीक्षा लेते थे। यह परीक्षा अक्षर ज्ञान के बजाय उसके व्यक्तित्व पर केंद्रित रहती थी। इस परीक्षा जिसे गुरु दक्षिणा भी कहते थे असफल रहने के बाद उसे फिर कुछ समय और गुरुकुल में रहने को कहा जाता था। शिक्षा पूरी तरह निःशुल्क, स्वयातत् और सबके लिए समान थी। इसलिए हमारे यहां आज कृष्ण और सुदामा एक साथ पढ़ लेते थे, जो कि आज एक स्वप्न जैसा ही लगता था। इसके अतिरिक्त जीवन मूल्यों, देशभक्ति और समाज प्रेम शिक्षा का मुख्य आधार होता था। जीवन के लिए उपयोगी हो शिक्षा- आज की शिक्षा समग्रता प्रदान न कर खण्डों में व्यक्तित्व को बाँट देती है। संघ के श्रेष्ठ अधिकारी रहे श्री भाउसाहिब भुष्कुटे एक जगह लिखते हैं- 'Modern education is knowing more and more about less and less till one knows everything about nothing.' हमारे यहां नब्ज देख कर केवल रोग ही नहीं बल्कि रोगी का सम्पूर्ण व्यक्तित्व बता देने वाले वैद्य गाँव गाँव थे वहीं आज आँख, नाक और कान के डॉक्टर अलग-अलग हो गए हैं। एक रोग में दूसरा डॉक्टर असहाय सा दिखता है। इसके अलावा बी.कॉम वाला छात्र बैंक के फार्म भरने, इंजीनियरिंग करने वाला छात्र भवन निर्माण आदि में सामान्य जानकारी भी नहीं रख रहा है। इसलिए बेरोजगारों की संख्या सुरसा के मुंह की तरह बढ़ती ही जा रही है। हमें कार्य संस्कृति और स्व रोजगार को बढ़ावा देने वाली शिक्षा भी देनी होगी। आज बिडम्बना ही है कि एक और रोजगार ढूंढने वालों और दूसरी ओर कर्मचारी ढूंढने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है। वर्तमान चुनोतियों का उत्तर हो शिक्षा नीति- हमें अतीत से प्रेरणा लेकर वर्तमान चुनोतियों का सफलतापूर्वक सामना करने वाली शिक्षा नीति बनानी होगी। विद्यालय को मन्दिर बना कर विद्या मन्दिर बनाने की आवश्यकता है जिसमे बालक हमारा आराध्य हो। राजनीति और व्यवसायिक प्रतिस्पर्धा को विद्या मन्दिर की चौखट से दूर रखना होगा। सम्पूर्ण व्यक्तित्व को विकसित करने के लिए हमारे 16 भारतीय संस्कारों से परिपूर्ण शिक्षा नीति बनाने होगी। बालक को देश और समाज के लिए उपयोगी बनाने के लिए हमे हमारे क्रांतिकारियों, सन्तों व महापुरुषों तथा श्रेष्ठ प्राचीन इतिहास को पाठ्यक्रम में शामिल करना होगा। हमें आज अपने आचार्य और प्रधानाचार्य का सम्मान लौटाना सबसे बड़ी चुनोती है। इसके लिए उसे स्वतन्त्रता और आर्थिक स्वाबलम्वन प्रदान करना होगा। सबसे अंत में लेकिन सबसे महत्वपूर्ण शिक्षा को साधना के रूप में लेने वाला शिक्षक तैयार करना होगा। आदर्श प्रेरित शिक्षक ही आज की पीढ़ी का सम्मान अर्जित कर सकता है।