गुरुवार, 7 अगस्त 2014

पंजाब में आत्महत्याओं का बढता प्रचलन

विजय कुमार नड्डा
प्राचीन भारत में आत्महत्या का कहीं कोई जिक्र नहीं मिलता। आज भौतिक सुख सुविधाओं के पीछे दौढ़ते युवा की भाग दौड़ की जिन्दगी हमे यह सौगात दे रही है। आत्महत्या करने वालों के मामले में हम विश्व का नेतृत्व करते दिख रहे हैं।  विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट बेहद चौंकाने वाली है। इस रिपोर्ट के अनुसार भारत आत्महत्या करने वालों की राजधानी बनता जा रहा है। सन 2012 में भारत में लगभग ढाई लाख से भी  अधिक अर्थात 258075 लोगों ने आत्महत्या की है। दुःख का विषय है कि हमारा हसदा, नचदा ते टपदा पंजाब भी इस बीमारी की चपेट में आ गया है।
पीछले दिनों अपने आस-पास परिचित परिवारों में आत्महत्या की दिल दहला देने वाली दो घटनाओं ने मन को बेचैन कर दिया। आखिर यह क्या हो रहा है ? जिस पंजाब में युवा देश की आजादी के लिए फांसी पर झूलने के लिए तैयार रहते थे आज वे नौजवान अपने ही जीवन से तौबा करते जा रहे रहे हैं । तलवाड़ा के पास गांव में एक 18 वर्षीय लड़की ने परीक्षा में उर्तीण न हो पाने के भय से नहर में कूद कर आत्महत्या कर ली, वहीं फगवाड़ा में एक युवा बैंक अधिकारी ने व्यवसायिक दबाव को न झेलते हुए पंखे से झूल कर मृत्यु को गले से लगा लिया। इन दोनों जगह इन युवाओं ने थोड़ी हिम्मत व दिलेरी से काम  लेते हुए परिस्थितियों से जूझने के बजाए अपनी आंख मूंदने में ही समस्या का समाधान देखा। जीवन समाप्त करना कोई आसान काम नहीं होता इसके लिए बड़े साहस की आवश्यकता होती है । काश! हमारे इन युवाओं ने इस साहस को समस्याओं से दो-दो हाथ करने में लगाया होता। इन पीडि़त परिवारों को सांत्वना देने के लिए हमारे पास शब्दों का अकाल अनुभव हो रहा था। आज इस अत्यंत महत्वपूर्ण विषय पर गहराई से विचार करने की आवश्यकता हेै क्योंकि बात केवल इन दो युवाओं की नहीं है । विधार्थी क्षेत्र में कार्य कर रही अखिल भारतीय विधार्थी परिषद के पंजाब के संगठन मन्त्री श्री सूरज के अनुसार पंजाब में पिछले चार सालों में सौ से ज्यादा छात्रों ने आत्महत्या की है । यह आंकड़ा गम्भीर संकट की चेतावनी है । पहले ही कन्या भ्रूणहत्या और नशे की बदनामी झेल रहे पंजाब में युवाओं की आत्महत्या के ये सारे आंकड़े संकटपूर्ण भविष्य का सूचक है। इस ओर बुद्विजीवियों, समाजशास्त्रियों व राजनेताओं को मिल बैठ कर कोई हल खोजना होगा । युवाओं के इस आत्मघाती मार्ग की ओर बढ़ने के पीछे के प्रमुख कारणों का विश्लेष्ण करने की आवश्यकता है।
स्व केन्द्रित जीवन: आज की जीवनशैली की सबसे बड़ी त्रासदी आत्मकेन्द्रित होना है । भौतिकवादी सोच हम सब के उपर इस कदर हावी हो गई कि हम अपनी गौरवमयी भारतीय सोच को ही भूल बैठे । हमने केवल अपने लिए जीना प्रारम्भ कर दिया । जितना छोटा व्यक्ति का संसार होता है उतनी तीव्रता से जीवन में कष्ट आने पर उसे दुःख के झटके सहन करने पड़ते हैं । मनोवैज्ञानियों का भी कहना है कि जहां दुःख बांटने से कम होता है वहीं सुख बांटने से बढ़ता है । आज स्वकेन्द्रित जीवनशैली के चलते हमारा युवा दुःख बांटने और सुख बढ़ाने के प्रकृति के इस अनमोल उपहार से व्ंचित होता जा रहा है। पहले बड़ा परिवार होता था। रिश्तों की एक लम्बी लड़ी होती थी। रिश्तों में जोरदार गर्माहट रहती थी, इसमें उसे अपने निजि दुःख -दर्द सब छोटे लगते थे । सबके परस्पर सहयोग के साथ वह बड़े से बड़ा संकट झेल जाता जाता था। आत्मकेन्द्रित सोच ओर अत्याधिक व्यवसायिक दौड़धूप में आज वह किसी के सुख दुःख में साथ खड़ा नहीं हो पाता है इसी कारण आवश्यकता पड़ने पर अपने साथ भी किसी को खड़ा नहीं पाता है। इस प्रकार रिश्तों व मित्रों की भीड़ में भी वह स्वयं को अकेला समझता है। ‘भीड़ है क्यामत की फिर भी हम अकेले हैं’ फिल्म का यह गीत उसके उपर ठीक बैठता है । इस कारण वह बड़ी जल्दी धैर्य खो बैठता है। आज बचपन में भौतिकवादी सोच के कारण माता-पिता रिश्तेदार और अन्य परिजन भी उसे स्वार्थ के इसी मार्ग पर आगे बढ़ने को प्रेरित करते हैं । आज पहले ही छोटे परिवार का फैशन रुकने का नाम नहीं ले रहा है और उपर से यह स्वकेन्द्रित जीवनशैली ‘करेला और नीम चढ़ा’ जैसी इस स्थिति को और चिंताजनक बना रही है।
आर्थिक दबाव: कहते हैं कि प्रकृति के पास हर व्यक्ति की आवश्यकता के लिए पर्याप्त संसाधन हैं लेकिन उसके लालच के लिए तो कुबेर का खजाना भी छोटा पड़ जाता है। आज हम पश्चिम की देखा-देखी में अपने सब रिश्तों, सामाजिक कर्तव्यों की कीमत पर लक्ष्मी की आराधना में लगे हैं। इसका परिणाम भी सामने आने लग पड़ा है। आज पश्चिम अपनी भातिकवादी सोच के दुष्परिणाम भुगत कर मन की शान्ति के लिए हरिद्वार और वृदावन में हमारे संतो के चरणों पर भले ही माथा रगड़ रहा है। लेकिन एक हम हैं कि दिल और दिमाग पर ताला लगा कर सब कुछ प्रत्यक्ष देख कर भी समझने को तैयार नहीं हैं। भौतिक उन्नति करना गलत नहीं हैं। हमारे शास्त्रों में अर्थ और काम की बराबर साधना करने को कहा है। कहीं भी किसी की उपेक्षा करने को नहीं कहा है। लेकिन उन अनुभवी दृष्टाओं ने अर्थ और काम को धर्म और मोक्ष के बीच रख कर साधने को कहा है। जब से हमने इस संतुलन को बिगाड़ा है उसी समय सें ‘न खुदा न विसाले सनम’ जैसी स्थिति है। अधिक से अधिक पैसे कमाने की होड़ में हमारा युवा दूर के रिश्ते तो क्या, अपने मां-बाप ही नही बल्कि अपने बीबी-बच्चों की भी उपेक्षा कर बैठता है। कई बार तो ऐसा दर्दनाक दृश्य देखने को मिलता है कि जब वह दिन-रात घोर परिश्रम कर जीवन की ढलान पर अपने और बच्चों के लिए सारी सुख-सुबिधायें जुटा कर पीछे की ओर देखता है तो उसे अपने पीछे परिवार तो क्या बीबी बच्चे भी खड़े दिखाई नहीं देते। इस कारण घोर निराशा में वह नशे या आत्महत्या के विनाशकारी मार्ग पर बढ़ने की ओर प्रबृत हो जाता है।
प्राचीन भारत में शिक्षा, चिकित्सा और न्याय निःशुल्क और सर्ब सुलभ था । इसके विपरीत आज ये तीनों अत्यन्त मंहगे हो गए हैं। बहुत सारे बच्चे ऋण लेकर पढ़ाई कर रहे हैं। हमारी शिक्षण संस्थाओं को भी बहुत कुछ मानवीय होने की आवश्यकता है। सरकार को इन शिक्षण संस्थाओं को नियन्त्रित करना होगा। आज निराशा का एक बड़ा कारण युवाओं का विवाह पूर्व प्रेम सम्बद्ध भी है। इनमे से जो शादी में बदल जाते हैं वो अधिकाश तलाक तथा जो शादी में नहीं बदल पाते हैं वो सम्बद्ध शादी के बाद भी चलते रहते हैं । इन दोनों ही परिस्थितियो में युवा के मन का चैन खो जाता है। इसके आलावा लिव इन रिलेशन ने भी बेचैनी को बढ़ाया है। एक और बड़ा कारण युवा उम्र के स्वाभाविक प्रभाव के कारण देखा-देखी में अपनी हैसियत भूल कर  फैशन में और विधार्थियों से होड़ में कूद पड़ना है। घर से अपेक्षित आर्थिक सहयोग न मिल पाने के कारण मां-बाप से झगड़ पड़ता है। इस कहा-सुनी में बच्चे थोड़ा भी सहन करने की स्थिति में नहीं होते हैं । वे तुरन्त गुस्से और हताशा से भर उठते हैं ।
समाधान: आखिर व्यक्ति अपने जीवन को समाप्त करने का इतना बड़ा निर्णय कैसे कर लेता है? अनेक कारणों में जब व्यक्ति को लगता है कि अब जीवन का कोई अर्थ नहीं है। आगे अब कोई जीवन के लिए आशा की किरण नहीं है। उसे लगता है कि मैं धरती पर अनावश्यक भार हूं। ऐसे में अगर समय पर कोई मार्गदर्शक न मिले तो फिर वह आत्महत्या जैसा बड़ा कदम उठा लेता है। भ्रष्टाचार के विरूद्ध जंग के प्रतीक बन चुके अन्ना हजारे का उदाहरण अत्यंत प्रेरक है। एक बार जीवन से निराश हो कर आत्महत्या करना का बड़ा निर्णय कर चुके अन्ना हजारे के हाथ आई पुस्तक ‘स्वामी विवेकानन्द की जीवनी और विचार' नया संदेश लेकर आई। पुस्तक में स्वामी जी का हर एक वाक्य उनके रोंगटे खड़े कर रहा था। थोड़ी देर पहले की हताशा  रफुचक्र हो गई । और इन्होंने जीने का निर्णय कर लिया। बस अन्तर केवल इतना था कि उन्होंने संकल्प कर लिया कि अब मैं अपने लिए नहीं समाज के लिए जीउंगा। इसके बाद की कहानी सारा देश जानता है। सारे महाराष्ट ही नहीं बल्कि देश में समाज सेवा के प्रतीक बन गए हैं अन्ना हजारे । काश ! हमारे इन हताश निराश नौजवानों को स्वामी विवेकानन्द, नेताजी सुभाष या किसी भी महापुरुष की जीवनी प्रेरणा के लिए समय पर मिल जाए। जो युवा बड़े लक्ष्य के लिए जीता है उसके पास आत्महत्या जैसी छोटी बातों के लिए समय ही नहीं होता । अतः आज हमारे युवाओं को बड़े लक्ष्य के लिए जीने की आवश्यकता है
सामाजिक जीवन को अपनाएं युवा: आज हमे अपनी प्राचीन भारतीय सोच की ओर लौटना होगा। रिश्तों का सुरक्षा कवच अपने चारों ओर लगााने की आवश्यकता है। मां-बाप को बच्चों को समाजाभिमुखी बनाना होगा। संघ और अन्य सामाजिक और धार्मिक संस्थाओं से बच्चों को जोड़ना होगा। हमे बच्चों को थोड़ा सहनशील बनाने की आवश्यकता है। इसके लिए उन्हें खेल के मैदान में प्रयत्नपूर्वक भेजना होगा। महापुरुषों का प्रेरक जीवन बच्चों का पूरी उम्र मार्गदर्शन करता रहता है। अतः बचपन में पाठ्यक्रम के अलावा उन्हें और अच्छी पुस्तकें पढ़ने को प्रेरित करने की आवश्यकता है। आज अधिक से अधिक अंक पाने का दबाव बच्चे के मन पर रहता है। अधिक अंक पाने की इच्छा पैदा होना तो ठीक है लेकिन यह बच्चे के दिमाग पर बोझ नहीं बनना चाहिए। युवाओं को जीवन जीने की कला सीखने की आवश्यकता है। असफलता मिलने पर सहज हो कर सफलता के लिए जुटने की प्रेरणा चाहिए। इसके अलावा युवाओं को समझना होगा कि हमारा जीवन प्रभु की हमें अनमोल देन है। यह जीवन जूझने के लिए है न कि कायरों की तरह चुपचाप समाप्त करने के लिए है। जीवन के किसी दौर में अगर निराशा आये भी तो ठंडे दिल दिमाग से सारे जीवन का मुल्यांकन करना चाहिए। अपने मन की व्यथा जिससे कह सकें ऐसे दो चार दोस्त मित्र जरुर बना कर रखने चाहिए। अपने मन की स्थिति इन मित्रों से खोल कर रख देनी चाहिए जरुर मन को सहारा मिलेगा। अन्ना हजारे, नानाजी देशमुख जैसे अनेक लोगों की तरह समाज सेवा को स्वयं को समर्पित कर देना चाहिए।  इसके अलावा हमारे युवकों को यह भी स्मरण रखना आवश्यक है कि यह संसार वीरों के लिए है। ‘वीर भोग्य बसुंधरा’ यह नीति वाक्य हमारे युवाओं के लिए प्रेरणा केन्द्र बनना चाहिए। कायरों के लिए यह संसार ही नहीं बल्कि अगला संसार भी किसी काम का नहीं होता। इसके अलावा हम सब जानते हैं कि इस संसार की सारी समस्याएं हमारे धैर्य का परीक्षण मात्र होती हैं। थोड़ा साहस, हिम्मत और धैर्य का अगर सहारा लिया जाए तो बड़ी से बड़ी समस्या भी हमें रास्ता देती दिखेगी। यह ठीक ऐसा ही है कि जैसे अन्धेरे में रस्सी को सांप समझ कर सांस उपर नीचे हो जाता है, हाय तौबा मच जाती है लेकिन प्रका होने पर उसी रस्सी को लेकर हमें हमारी थोड़ी देर पहले की चीख पुकार याद कर स्वयं अपने उपर हंसी आती है ।

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