सत्ता की चकाचौंध में राजनेताओं को सामाजिक कार्य करने को कहना ठीक ऐसा ही है जैसे शेर को घास चरने को कहना या रागरंग में डूबे किसी व्यक्ति को धार्मिक प्रवचन सुनने को बाध्य करना। आज हमारे राजनेता जिन कार्यों से वोट की उम्मीद होती है उन कार्यों को पूरा करने के लिए बेशक कड़ी मेहनत करते देखे जा सकते हैं। लेकिन दुःख का विषय है कि अधिकांश राजनेताओं को समाजिक कार्य के नाम पर सांप सूंघ जाता है। उनका सारा जोश ठंडा पड़ जाता है। ऐसे राजनैतिक परिवेश भी में केंद्र की पूर्व यू पी ए सरकार तथा पंजाब की अकाली भाजपा सरकार को बधाई देनी चाहिए कि इन्होने स्वामी विवेकानन्द सार्ध शती के कार्यक्रमों में पर्याप्त रूचि तथा सहयोगपूर्ण रुवैया दिखाया। यहाँ यह कहना प्रासंगिक है केंद्र सरकार ने रामकृष्ण मिशन को सार्धशती आयोजन के लिए सौ करोड़ की सहायता राशी तथा स्वामी जी का सन्देश नई पीढ़ी तक पहुँचाने के लिए विवेक ट्रेन चलाई वहीं पंजाब सरकार ने भी स्वामी विवेकानन्द सार्ध शती समारोह समिति के आग्रह पर कई सराहनीय कदम उठाये। ये अलग बात है कि पंजाब की अफसरशाही के लचर रवैये के कारण लगभग आधी घोषणाएं पूरा होने की प्रतीक्षा में हैं। स्वामी विवेकानन्द सार्धशती आयोजन की संक्षिप्त समीक्षा एवं पंजाब सरकार के साथ कार्य करते समय आये कुछ अनुभव साँझा करने का प्रयास यहाँ किया जा रहा है।
समाज मंथन का माध्यम बनी सार्धशती- सम्पूर्ण देश और विश्व के अनेक देशों में पूरा एक साल चली विवेकानन्द सार्धशती ने समाज जागरण में बहुत बड़ी भूमिका निभाई। भारत में कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी और पूर्व से पश्चिम सारे देश में स्वामी विवेकानन्द के सन्देश ने सम्पूर्ण समाज विशेषकर युवा वर्ग को झकझोर कर रख दिया। यह समाज मंथन लगभग ऐसा ही था जैसा आज से एक सौ पन्द्रह सोलह साल पहले स्वयं स्वामी जी ने भारत की परिक्रमा कर तत्कालीन समाज को पूरी तरह हिला कर रख दिया था। यही स्थिति भारत के बाहर रही। भारत के प्रति जैसा अनुकूल वातावरण उस समय बना था वैसा ही स्वामी जी के संदेश को पुन: सुन कर विश्व का भारत की ओर देखने का नजरिया ही बदल गया। विश्व नये भारत से विश्व शांति में बड़ी भूमिका की आशा करने लगा। स्वामी जी के सन्देश ने विश्व गुरु भारत बनाने को लेकर युवा वर्ग की बेचैनी बढ़ा दी। युवा वर्ग कुछ करने को बेचैन हो गया। दुनिया को नेतृत्व दे सके ऐसा सुंदर, समर्थ व् स्वावलम्बी भारत बनाने की इच्छा सर्वदूर बलवती हो गयी। यह भी एक संयोग ही था कि सार्धशती के तुरंत बाद लोकसभा के चुनाव आ गये। लोगों ने इस बड़े लक्ष्य की पूर्ति के लिए देश को आगे ले जाने के लिए योग्य नेतृत्व खोज लिया। यह भी संयोग ही है कि इस समाज मंथन से आये राजनैतिक परिवर्तन से निकले देश के नये प्रधानमन्त्री स्वयं स्वामी विवेकानन्द को अपना आदर्श मानते हैं। अभी-2 अपने जापान दौरे में जापान के प्रधानमन्त्री को गीता के साथ स्वामी विवेकानन्द का साहित्य भेंट करना हमारे प्रधानमन्त्री की स्वामी विवेकानन्द में श्रद्धा को दर्शाता है।
पंजाब में मिला सार्धशती को भारी जनसमर्थन- सार्धशती के प्रारम्भ में एक आशंका मन को कचोट रही थी पंजाब में स्वामी जी का सन्देश कितना स्वीकार्य होगा। अच्छे पढ़े लिखे लोग भी स्वामी विवेकानन्द और स्वामी दयानन्द को एक ही मानते थे। स्वामी दयानन्द जी को लेकर सिख समाज में थोड़ी असहजता देखी जा सकती है। लेकिन जैसे जैसे स्वामी विवेकानन्द के संदेश को लेकर कार्यक्रम होने शुरू हुए सारी आशंका, घबराहट एक ही झटके में समाप्त हो गयी। अपेक्षा से कहीं अधिक समाज का समर्थन मिला। पंजाब में सार्धशती में हुए सारे कार्यक्रमों में लगभग 20 लाख से अधिक् लोगों की सहभागिता रही।18 फरबरी के सूर्य नमस्कार कार्यक्रम, विवेकानन्द सन्देश यात्रा, सितम्बर 11 की युवा दौड़ और 28 सितम्बर के युवा सम्मेलनों में 50000 से अधिक युवाओं ने भाग लिया। सिख बुधिजीवियों के सम्मेलनों में भी बड़ी संख्या में सिख बुधिजिवियों ने भाग लिया। स्वामी जी के जीवन और सन्देश सम्बधी बारह पुस्तकों का पंजाबी में अनुवाद हुआ।
सरकार चली दो दिन में ढाई कोश-
वैसे मुख्यमंत्री सर. प्रकाश सिंह बादल ने शुरू से ही स्वामी विवेकानन्द को लेकर पूरा उत्साह दिखाया। सरकार ने स्वामी जी का सन्देश गाँव गाँव पहुँचाने के लिए साहित्य प्रकाशन, साहित्य रथ तथा अन्यों कार्यक्रमों के लिए एक करोड़ की सहायता राशी तथा प्रति वर्ष नशा मुक्ति, जैविक खेती को प्रोत्साहन तथा कन्या भ्रूणहत्या रोकने में लगे युवाओं को एक-एक लाख नकद राशी के तीन वार्षिक विवेकानन्द युवा पुरस्कार, विवेकानन्द समग्र का पंजाबी अनुवाद तथा सबसे महत्वपूरण विवेकानन्द स्मारक के लिए 20-25 एकड़ जगह देने की घोषणाएं की गयी। कुल मिला कर बहुत उत्साह का वातावरण बना। लेकिन सरकार की उन घोषणाओं को जमीन पर उतारने में हम सबको पसीना आ गया। हमारी उर्जा का बड़ा भाग सेक्टरयियेट में घूमने में निकलता रहा। लगभग दो महीने की भागदौड के बाद घोषित राशी की एक किश्त मिल पाई। दूसरी किश्त लेने के लिए फिर उतना ही परिश्रम करना पड़ा। ये स्थिति तब है जब माननीय मुख्यमंत्री तथा सरकार में शामिल दल के प्रमुख लोग मन से हमारे साथ सहयोग कर रहे थे। मन में प्रश्न आता है कि जिनका सत्ता के गलियारों में बाजू पकड़ने वाला कोई नही होता होगा उनके साथ क्या बीतती होगी? काफी बैठकों के बाद विवेकानन्द समग्र पंजाबी अनुवाद के लिए जा सका। अभी भी विवेकानन्द युवा पुरस्कार और विवेकानन्द स्मारक के लिए भूमि देने का सरकारी वायदा हवा में लटक रहा है। प्रशासन पर सरकार की पकड़ लगातार कमजोर होती दिखी। बड़ी उम्र में भी मुख्यमंत्री द्वारा कठोर परिश्रम व् पूरी सूुझबुझ के बाबजूद अफसरशाही पैरों पर पानी पड़ने ही नहीं दे रही है। स्वामी विवेकानन्द को लेकर बहुत अधिकारीयों की सद्भावना के बाबजूद अधिकांश अधिकारीयों का जोर समिति को निरुत्साहित करने में ही लगता रहा।
बड़ी कठिन है डगर पनघट की-
कहते हैं कि वायदे तोड़ने के लिए ही किये जाते हैं। और ये वायदे अगर किसी राजनेता ने किए हों तो फिर इनके पूरा न होने पर कोई हैरान भी नहीं होता। हाँ! किसी राजनेता का अपना वायदा पूरा कर जाना जरुर सुखद आश्चर्य की बात होती है। इन्हीं सब कारणों से राजनेता बड़ी तेजी से अपने प्रति आदर व् श्रद्धा खोते जा रहे हैं। सरकारी तन्त्र की संवेदनहीनता के कारण ही स्वामी विवेकानन्द सार्धशती समारोह समिति पंजाब ने डरते सहमते सरकार का सहयोग लेने का निर्णय लिया। सरकार के साथ काम करते समय हमारी आशंका ठीक साबित हुई। इसी समय पंजाब सरकार की कार्यशैली को समीप से देखने का मौका मिला। सरकारी काम-काज का ढर्रा देख कर तो ऐसा ही लगा कि पंजाब सरकार का तो भगवान ही मालिक है। बहुत कम अधिकारी और राजनेता कार्य करने को लेकर गम्भीर हैं बाकि तो पंजाबी में जिसे गोली देना कहते हैं अर्थात कार्य को टालने में ही अपनी सफलता मानते हैं। पंजाब में अनुभव और जोश के प्रतीक पिता-पुत्र के नेतृत्व के बाबजूद प्रदेश में भ्रष्टाचार का बोलबाला तथा कानून की धज्जियां उडती देख आम आदमी का सरकार में विश्वास हिलता सा जा रहा है। लोकसभा चुनाव के में मोदी सुनामी के बाबजूद पंजाब में सत्ताधारी दल का आधे में सिमिट जाना जनता की बेरुखी का सूचक है। अकाली भाजपा को दीवार पर लिखे को समय रहते पढ़ कर अपनी कार्यशैली में जबर्दस्त सुधार करना होगा। ऐसा न कर पाने पर पंजाब को कांग्रेस की झोली में डाल कर सारे देश में अपने अस्तित्व के लिए जूझती कांग्रेस को जीवनदान देने का दोष/श्रेय अकाली-भाजपा के वर्तमान नेतृत्व को ही जायेगा। वर्तमान सत्ताधीश समय रहते जगते, सम्भलते और सुधरते नहीं तो पंजाब की सत्ता हाथ से खिसकनी तय सी लगती है।
शुक्रवार, 15 अगस्त 2014
स्वामी विवेकानन्द सार्धशती - वायदों पर गम्भीरता दिखाए पंजाब सरकार!
मंगलवार, 12 अगस्त 2014
चौदह अगस्त पर विशेष अखंड भारत के लिए संकल्प लें युवा
किसी भी राष्ट्र और समाज के जीवन में कुछ ऐसे अवसर आते हैं जो उसकी दिशा और दशा को ही बदल देते हैं। ऐसे समय में नेतृत्व की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। उनका सूझबुझ से भरा एक कदम देश को शिखर की ओर भी मोड़ देता है वहीं उनकी थोड़ी सी चूक की कीमत वह देश सदिओं तक चुकाता रहता है। किसी ने ठीक ही कहा है-
एक कदम उठा था गलत राहे शौक में ।
मंजिल तमाम उम्र हमें ढूंढती रही।।
हमारे प्राचीन राष्ट्र जीवन में 14 अगस्त1947 की रात ऐसा ही दुर्भाग्यपूर्ण क्षण था जिसने भारत को हमेशा के लिए अपंग बना दिया। देशवाशियों का आजादी को लेकर चिर सञ्चित उत्साह एकदम मंद ही पड़ गया। एक लम्बे इंतजार और खूनी संघर्ष के बाद मिली आजादी के बाद उन्मुक्त गगन में उड़ान भरने से पहले ही हमारे पंखों को काट कर रख दिया। भारत विभाजन कैसे हो गया, इसके लिए दोषी कौन है? यह आज तक रहस्य बना हुआ है। हमारे उस समय के नेता अंतिम समय तक देश को आश्वाशन देते रहे कि विभाजन नहीं होगा। ये राजनेता परिस्थिति का सही आकलन नहीं कर सके या जानबूझ कर आजादी के बाद उनके सत्ता के रंग में भंग न पड़ जाये इसी डर से देश को अँधेरे में रखा अभी तक स्पष्ट नहीं हो सका है। इसमें कोई शक नहीं कि हमारे तत्कालीन कुछ नेता अति सज्जनता और कुछ सत्ता प्राप्त कर उसे भोगने के लालच में अंग्रेज के हाथ का खिलौना बन गये। भारत को दो फाड़ करने के अंग्रेजी षड्यंत्र में जाने अनजाने सहयोगी हो गये। इसलिए आम जनता को समझ नहीं आ रहा था कि शिकायत करें भी किससे करें? सर्व सामान्य लोगों की स्थिति कुछ ऐसी ही थी-
सोचा था कि हाकिम से करेंगे शिकायत।
कमबख्त वो भी तुझे चाहने वाला निकला।।
बिडम्बना ऐसी कि देश्वासिओं से न रोते बन रहा था और न ही हंसते। एक तरफ सदियों के लम्बे संघर्ष के बाद मिली आजादी पर नाचने व् झूमने को मन कर रहा था तो वहीं दूसरी ओर अपनी प्रिय जन्मभूमि का दुखद विभाजन, अपने परिजनों का कत्लेआम, मुस्लिम गुंडों द्वारा लाखों महिलाओं से बलात्कार और अपनी अस्मिता लुटने से बचने के लिए घर की महिलाओं की जिद के कारण अपने ही हाथों मौत दे देना, जमीन-जायदाद को पाकिस्तान में छोड़ कर, मृत्यु से सीधे टक्कर लेते हुए भारत पहुँचने और परिवार सहित (जिसका जितना बचा) के साथ सडक पर शरणार्थी बन कर रहने की बेबसी की दिल दहला देने वाली व्यथ कथा! जितना हम देशवासी अंग्रेजों से दो दो हाथ करते, असंख्य बलिदान देते दो सौ साल तक नही थके थे उससे ज्यादा हम अपनॊ के हाथों ठगे जाने के दर्द से एक ही रात में टूट गए और हिम्मत हार चुके थे। राष्ट्र और समाज के रूप में भी हम पूरी तरह टूट गये थे। आजादी के बाद नेता सत्ता भोग में मस्त हो गये, देशवासी भी टूटे मन से ही सही लेकिन अपने जीवन निर्वाह में व्यस्त हो गये। बस केवल भारत माता अपने विभाजन के दर्द को सीने में लिए सिसकती रही। ऋषियों, तपस्वियों की पवित्र भूमि को दो टुकड़े होते असहाय हो कर देखती रही। आश्चर्य की बात तो यह हुई कि किसी नेता या दल ने इतनी बड़ी दुर्घटना पर राष्ट्रीय चर्चा और जाँच और दोषियों को दण्डित करने की जरूरत भी नहीं समझी। देश विभाजन की बिभीषिका को सब ऐसे भूल गये जैसे कोई सामान्य घटना हो। यही समाज की विस्मृति का ही लक्षण होता है।
विभाजन की नौबत क्यूँ आई... वास्तव में भारत को हमेशा के लिए पंगु बनाने के लिए विभाजन के षड्यंत्र पर अंग्रेज बहुत पहले से सक्रिय हो गया था। पहले 1885 में कांग्रेस की स्थापना और फिर 1906 में कांग्रेस की सौतन मुस्लिम लीग की स्थापना ये सब अंग्रेज की बड़ी योजना का ही हिस्सा था। अंग्रेज ने कांग्रेस के सामने देश की स्वंतत्रता के लिए हिन्दू मुस्लिम एकता को पूर्व शर्त के रूप में रख दिया। और अंग्रेज ने बड़ी चतुराई से कांग्रेस को मुस्लिम लीग को आजादी के लिए साथ आने के लिए मनाने के काम में लगा दिया। यह कार्य कुत्ते की दुम सीधी करने जैसा ही दुष्कर था। अंग्रेज ने अपनी भूमिका 'चोर को कहना चोरी कर और घर वालों को कहना कि जागते रहो' वाली रखी। दुर्भाग्य से भारत का कांग्रेसी नेतृत्व अंग्रेज की उस कूटनीति को समझ नहीं पाया। कांग्रेस के पुचकारने और अंग्रेज के पर्दे के पीछे के सहयोग के कारण मुस्लिम लीग आजादी के आन्दोलन में अपनी सहभागिता के लिए कई शर्ते रखती गयी, बिना मतलब से ऐंठती गयी। महान क्रन्तिकारी और विचारक वीर सावरकर, महृषी अरविन्द और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तत्कालीन प्रमुख श्री गुरु जी ने कांग्रेस नेतृत्व को सावधान करने की कोशिश की लेकिन कांग्रेसी नेतृत्व ने अपने अंहकार, अंग्रेज पर जरूरत से ज्यादा विश्वास करने के कारण जाने अनजाने देश को विभाजन की तरफ धकेल दिया।
ठगे गये महसूस कर रहे थे देशवासी- भारत का विभाजन दुनिया की बहुत बड़ी दुर्घटना थी। इस में लगभग 10 लाख लोगों का कत्लेआम तथा लगभग 20 लाख से ज्यादा लोग बेघर हुए। इससे भी बड़ी बात कि जनता और राजनेता किसी को भी विभाजन हो ही जायेगा इसका विश्वास नहीं था। राजनेताओं में दूरदृष्टि का घोर अकाल, सत्ता प्रप्ति की बेचैनी और जनता का नेताओं पर जरूरत से ज्यादा विश्वास को ही विभाजन के लिए उत्तरदायी माना जा सकता है। कुछ दिन पहले पंडित जवाहर लाल नेहरु कहते घूम रहे थे कि विभाजन की बात करने वाले मूर्खों के लोक में रहते हैं। स्वयं गांधी जी ने कहा था कि मेरी लाश पर होगा बंटवारा! इतना ही नहीं तो स्वयं जिन्ना को भी अलग देश का स्वप्न साकार हो ही जायेगा इसका कतई बिश्वास नहीं था। कराची हवाई अड्डे पर उतरते ही उन्होंने अपने मन की यह बात सचिव को कही थी। लेकिन देशवासियों को 14 अगस्त 1947 की रात्रि को विभाजन के रूप में अंग्रेज, कांग्रेस और मुस्लिम लीग की तिकड़ी अश्व्थामा जख्म दे गयी। यह जख्म छ: दशकों के बाद भी लगातार रिस रहा है और ठीक होने का नाम नहीं ले रहा है।
क्या भारत फिर अखंड हो सकता है-
प्राय: पूछा जाता है कि क्या विभाजन खत्म हो सकता है? वैसे यह प्रश्न ही आत्मविश्वास की कमी का सूचक है। अगर देश टूट सकता है तो एक क्यूँ नहीं हो सकता है? इस की सम्भावना पर विचार करने से पहले अखंड भारत क्यूँ जरूरी है इस पर चर्चा आवश्यक है। सबसे पहली बात यही है कि देश के सभी महापुरुषों
ने योगी अरविन्द, मदन मोहन मालवीय, विनोबा भावे, और संघ के दूसरे प्रमुख श्री गुरु जी गोलवलकर सभी ने भारत विभाजन को प्रकृति के विरुद्ध कहा है। इसके साथ उन्होंने स्पष्ट चेताया था कि साथ जब तक विभाजन बना रहेगा भारत के साथ-साथ इसके पूर्व अंग भी दुखी ही रहेंगे। पाकिस्तान और बांग्लादेश उस नाराज बच्चे की तरह व्यवहार करते हैं जो गुस्से में घर से बाहर निकल कर वापिस आने के लिए माँ का ध्यान खींचने लिए कभी दरवाजा पीटता है तो कभी तोड़फोड़ तथा चीख पुकार करता रहता है जब तक माँ उसे अपने अंचल में न ले ले। समझदार माँ उसकी बातों, शब्दों पर ध्यान न देकर कर प्यार-पुचकार या जबरदस्ती उसे घर के अंदर खींच लेती है। बच्चा भी बोले कुछ भी लेकिन वास्तव में यही चाहता है। अत: भारत के उस माँ की तरह व्यवहार करते ही विभाजन खत्म हो कर रहेगा। आज जब हम विचार करते हैं तो उन महापुरुषों की भविष्यवाणी अक्षरश: सच लगती है। भारत भी पाक प्रेरित आतंकवाद से रोज नये -2 जख्म खा रहा है वहीं ये पड़ोसी स्वयं भी खुश नहीं हैं। समाधान के लिए उन महापुरुषों की दूसरी बात अर्थात विभाजन समाप्त कर अखंड भारत के स्वप्न को सच में बदल देना ही समस्या का एक मात्र हल है। क्या यह सम्भव है? पहली बात है कि युवाओं के संकल्प के आगे असम्भव कुछ भी नहीं होता। हमें याद रखना होगा कि हर बड़ा लक्ष्य चाहे कभी आसमान में उड़ने का रहा होगा या भारत को अंग्रेज सत्ता के खूनी पंजों से मुक्त करा लेने का होगा शुरू में दिवास्वप्न ही होता है। किसी देश की सीमाएं बिलकुल स्थायी नहीं होती बल्कि उस देश के युवाओं के संकल्प और बहुबल की अनुगामी होती हैं। दुनिया की ओर भी देखें तो कई देश दोबारा एक हो रहे हैं। जर्मनी एक चुका है। कोरिया और अफ्रीका एक होने के मार्ग पर हैं। फिर भारत ही क्यूँ नहीं हो सकता अखंड?
कैसे हो यह स्वप्न साकार--
सबसे पहली बात कि गुरु नानक के ननकाना साहिब, कुश के कसूर और लव के लाहौर,अपने प्रिय मानसरोवर, आधे से ज्यादा पंजाब, कश्मीर और उधर ढाका की ढाकेश्वरी के बिना भारत सम्पूर्ण नहीं हो सकता है, यह दर्द और विश्वास युवा भारत के मन में पक्का बैठना आवश्यक है। इसलिए देश को अखंड करने के अपने स्वप्न और संकल्प को न केवल बनाये रखना होगा बल्कि उस दिशा आगे बढ़ने की योजना भी करनी होगी। हमे याद रखना होगा कि बड़े स्वप्न को साकार करने लिए उतना ही बड़ा धैर्य और सतत परिश्रम की आवश्यकता है। प्रतिवर्ष 14 अगस्त को युवाओं को भारत को अखंड करने की राष्ट्रीय प्रतिज्ञा करवाई जाये। पहले कदम के नाते भारत को विश्व की सैन्य और आर्थिक महाशक्ति में बदलना ताकि ये देश भारत के साथ आने की स्वयं पहल करें। भारत इन देशों को आर्थिक और सैन्य सहायता उपलब्ध कराए। पडोस में इन देशों को चीन के सम्राज्यवाद से जूझने के लिए इन हिम्मत दे और अन्य आवश्यक सहयोग करे। फिर अखंड भारत का अर्थ इन् सभी देशों का भारत में एकदम विलय नहीं है। पहले कदम के रूप में नेपाल की तरह स्वतंत्र राष्ट्र रहते हुए भी ये देश अखंड भारत का हिस्सा बन सकेंगे। भारत का मूल स्वभाव, दिल विशाल है इसलिए भारत के साथ किसी भी देश को साथ आने में कठिनाई नही है। केंद्र की नई सरकार ने इस दिशा में कुछ कदम उठाये हैं। इन कदमों के कारण निश्चित ही आगे सार्थक परिणाम आएंगे।
शुक्रवार, 8 अगस्त 2014
कब रुकेंगे महिलाओं पर बलात्कार और शारीरिक शोषण के अत्याचार?
चक्रव्यूह में घिरी हमारी मातृशक्ति-
आज देश में हमारी मातृशक्ति बलात्कार और अन्य यौन अत्याचारों को लेकर असुरी शक्तियों से बुरी तरह घिरी हुई अनुभव कर रही है। समाज का असमाजिक वर्ग महिला की इज्जत से खेलने की जुगाड़ में रहता है और अवसर पाते ही उसे अंजाम दे देता है। पहले कभी अपवाद स्वरूप होने वाली ये वारदातें अब आए दिन की बात होती जा रही है।
क्या अपना समाज बीमार हो गया है -युगों युगों से यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता' अर्थात जहाँ महिलाओं का मान सम्मान होता है वहां देवता प्रसन्न रहते हैं। ऐसे सुंदर और उच्च मूल्यों वाले देश में महिलाओं पर हो रहे अत्याचार घोर चिंता का विषय है। देश भर में युवतियों के साथ हो रहे बलात्कार और यौन अत्याचारों का दुर्भाग्यपूर्ण सिलसिला रुकने का नाम नहीं ही ले रहा है। आखिर किसकी नजर लग गयी हमारे सुंदर समाज को? किनकी गलतियों का नतीजा भुगत रही है हमारी माताएं-बहनें? प्रशासन, राजनेता और समाजशास्त्री इस समस्या का हल खोजने के लिए दिमागी घोडे जरुर दौड़ा रहे हैं, प्रशासन अपने स्तर पर कुछ कदम भी उठा रहा है लेकिन स्थिति कमोवेश यही है- मर्ज बढ़ता ही गया ज्यूँ ज्यूँ दवा की। आखिर अपनी बहिन -बेटियां कब तक अपने व् परायों के हाथों अपनी इज्जत खोती रहेंगी? क्या हो गया है अपने देश को? जहाँ अपनी अपनी धर्म पत्नी को छोड़ कर दुनिया की सब औरतों को माता माना गया है वहाँ यह सब क्या हो रहा है? पिछले कुछ महीनों से तो इन दुर्घटनाओं की बाढ़ ही आ गयी लगती है। हालात ये हो गये हैं कि चार साल की बच्ची से ले कर अस्सी साल तक की बुढ़िया कोई भी सुरक्षित नहीं है। इसके साथ ही एक पहलु और ध्यान देने योग्य है कि इस घिनोनी हरकत को अंजाम देने वाले 14 साल के बच्चे से लेकर 70 साल तक की आयु वर्ग के पुरुष हैं। इन दुर्घटनाओं का दूसरा कष्टदायक पहलु गिरोह बना कर ऐसे कुकृत्य को अंजाम देना अर्थात सामूहिक दुष्कर्म है। इसके अलावा महिला पर दुष्कर्म से पहले और बाद में अन्य शारीरिक अत्याचार दिल दहला देते हैं। ऐसे दुष्कृत्य को अंजाम देने वाले ये लोग आज समाज के लिए गम्भीर चुनौती बन गये हैं। गिरोह में ऐसे दुष्कृत्यों को अंजाम देने वाले ऐसे लोग स्वभावत: कायर होते हैं। ओरत का अकेले सामना करने हिम्मत नहीं जुटा पाते हैं। क्यूंकि उन्हें पता होता है कि यहाँ वे उन्नीस ही पड़ेंगे। समूह में निर्दयी भेडिये बन मानवता की सारी सीमाएं पार कर जाते हैं। इनकी पशुता का परिणाम दुष्कर्म के बाद महिला की निर्दयतापूर्वक हत्या है। क्या अपना समाज बीमार हो गया है? स्वस्थ समाज तो ऐसा व्यवहार नहीं कर सकता।
महिलाओं पर आए संकट पर गम्भीरता जरूरी--
हम यह नहीं भूल सकते कि हमारे यहाँ के जीवन मूल्य ही हमारी असली ताकत हैं। ये वही धरती है जहाँ एक महिला के मान -अपमान को लेकर राम रावण का भीषण युद्ध और विश्व का सबसे बड़ा महासंग्राम महाभारत लड़ा गया था। इसके आलावा हमे नई पीढ़ी को याद् दिलाना होगा कि यही धरती है जहाँ अत्याचारों की अति हो जाने पर हाथ में तलवार लिए दुर्गा, काली या फिर आधुनिक समय में रानी झाँसी शत्रु का संहार करने स्वयं ही कूद पडती हैं। हमारी बहिने हंसती हुई जैसे शांत, नाजुक, प्यार में अपना सर्वश्व न्योछावर करने वाली और सबका कल्याण चाहने वाली होती हैं संकट आने पर फिर उतनी ही कठोर और निर्दयी हो जाती हैं। इसमें कोई शक नहीं है कि महिला से प्यार या युद्ध दोनों में ही जीत पाना कठिन ही नहीं बल्कि असंभव् जैसा है। एक असहाय महिला की चीख पूरे ब्रह्मांड में तूफान ला सकती है। आज की भयंकर दुर्घटनाएं अच्छों अच्छों का दिल हिला देती हैं। कई बार तो लगता है कि ऐसे कृत्यों को अंजाम देने वाले कम से कम मानव तो नहीं हो सकते। ऐसे मानव शरीर में विचरण करने वाले राक्षसों को सख्ती से कुचलना होना।
महिलाओं को भी विचार करना होगा-
आज के नारीवादी युग में यद्यपि यह कहना संकट मोल लेना है तो भी हमे यह स्वीकार करना होगा कि कुछ आत्म निरीक्षण और परहेजों पर हमारी बहिनों को भी विचार करना होगा। ये ठीक है कि कोई बात समाज इन पर जबरदस्ती न थोंपे लेकिन विद्वान महिलाएं स्वयं आगे आ कर अपने लिए और नई पीढ़ी की लडकियों के लिए कुछ करनीय और अकरणीय का विचार करें। अभी संसद में एक माननीय सांसद ने महिलाओं को गरिमामय कपड़े पहनने चाहिए ऐसा कह कर मानो शहद के छते को ही हाथ डाल लिया। लेकिन क्या आधुनिकता के नाम पर नंगापन उचित ठहराया जा सकता है ? देर रात तक क्लबों में जाना, पुरुष बराबरी के उत्साह में शराब तक गटक जाना, लिव इन रीलेशन में सालों साल तक एक छत के नीचे एक साथ रहना ये कुछ ऐसे साहसिक! कार्य हैं जिन्हें नारी स्वतंत्रता और समान अधिकार के तर्क और क़ानूनी दृष्टि से बेशक आपको कोई नहीं रोक सकता लेकिन सांस्कृतिक और व्यवहारिक दृष्टि से इन बातों से जितना बच सकें उतना अच्छा ही है। प्राप्त जानकारी के अनुसार अधिकांश बलात्कार लिव इन रिलेशन में रहे या जिनके साथ कभी इकठे मौजमस्ती की होती है उन्हीं के द्वारा होते हैं। इसका अर्थ ये कतई नहीं है कि क्लब जाने वाली, नशा करने वाली या लिव इन रिलेशन में रहने वाली किसी महिला से ये सब होना जायज है। उन्हें भी सुरक्षित व् सम्मानजनक जीवन का अधिकार है। लेकिन हमें प्रकृति के नियम को स्वीकार करना ही होगा की महिला और पुरुष में प्राकृतिक शारिरिक आकर्षण रहता ही है। जब महिला जाने अनजाने अपने हाव भाव से, कम कपड़ों से समाज में विचरण करती है तो पुरुष उसकी ओर आकर्षित हुए बिना नहीं रहते। संस्कारों की मजबूत पकड़, क़ानूनी डर या सामाजिक प्रतिष्ठा के चलते वे स्वयं पर नियन्त्रण कर लेते हों तो भी उनकी ओर खींचते तो हैं ही। कालेज के समय एक कल्चरल कार्यक्रम ( संस्कृतिक नहीं) में मंच से नायिका बड़े गर्व से हजारों लोगों को सुना रही थी। एक रात कार्यक्रम के बाद मैंने एक पुलिसमैन को कहा -' कुछ गुंडे मेरे पीछे पड़ गये हैं । कृपया आप सुरक्षा करें।' उस सिपाही ने थोड़ी देर मुझे घूरते हुए कहा , ' मेम! मैं वर्दी में न होता तो मैं भी उनके साथ ही होता।' अब आप क्या कहेंगे? लगातार कम होते कपड़े, अपने पुरुष साथी पर अत्यधिक विश्वास और आधुनिकता के नाम पर जरूरत से ज्यादा खुलापन भी इस तरह की दुर्घटनाओं की नीव डाल जाता है।
उपरोक्त सावधानी के साथ साथ ही आत्मसुरक्षा की दृष्टि से लडकियों को कराटे आदि में भी निपुण होना पड़ेगा। उन्हें संसार के इस सत्य को याद रखना होगा कि लातों के भूत बातों से नहीं मानते। ब्यूटी पार्लर में लगने वाले समय का कुछ हिस्सा कराटे सीखने में भी लगाना चाहिए ताकि संकट आने पर आत्म रक्षा में इस कला का प्रयोग किया जा सकें। संकट न भी आए तो भी कराटे का लाभ स्वास्थ्य को तो मिलेगा ही। सुन्दरता की साधना के साथ-साथ स्वस्थ शरीर का होना सोने पर सुहागा ही होगा। इतना ही नहीं तो कराटे के डर से आगे सास या पति भी थोडा सम्भल कर व्यवहार करेंगे। खैर यह तो विषय को हल्का करने के लिए है। वास्तव में परिस्थिति की मांग है कि महिलाओं पर होने वाले अत्याचारों का यह सिलसिला तुरंत रुकना चाहिए। हमे अपने लडकों को महिला की इज्जत करनी सिखानी होगी। संयोंग ही है कि संस्कार देने का यह कार्य भी महिला ही सफलतापूर्वक कर सकती है। समाज और राष्ट्र न भी हो तो कम से कम अपने आत्मसम्मान और सुरक्षा के लिए ही सही महिलाओं को यह कार्य करना ही होगा। बहुत महिलाएं यह कार्य करती भी हैं शेष को इस मोर्चे पर डटना होगा। अगर संस्कार देने के इस महत्वपूर्ण कार्य में हमारी बहने चूकती हैं तो फिर नई पीढ़ी की उदंडता के लिए गिला और शिकवा किससे और क्यूँ? जैसा बोयेंगे वैसा ही तो काटना पड़ेगा। इस सबके बाबजूद हमें विचार करना होगा कि समाज का सबसे महत्वपूर्ण और संख्या की दृष्टि से ठीक आधा भाग अर्थात हमारा महिला जगत जब तक अपमानित, दु;खी या डर में जियेगा तब तक हम स्वस्थ, सुखी और प्रसन्न समाज की आशा कैसे कर सकते हैं?