शुक्रवार, 30 मई 2014

नए भारत के निर्माण के लिए सांस्कृतिक मूल्यों की गिरावट को रोकना ही होगा

'यथा राजा तथा प्रजा' की लोकोक्ति को साकार करते हुए दिल्ली में आशावादी नेतृत्व आते ही आज पूरे देश में साकारात्मक उर्जा का सृजन हो गया है। यह हमारे लिए अत्यंत शुभ संकेत है। हम सब जानते हैं कि आगे बढने के लिए आशावाद, उत्साह व् उमंग का होना अत्यंत आवश्यक होता है।  व्यक्ति हो या राष्ट्र बड़ी सफलता के लिए ये मूल आवश्यक तत्व हैं। अभी तक हम सभी देशवासी घोर निराशावाद से जूझ रहे थे। और अब जब सोभाग्य से सब ओर, सब वर्गों में आशावाद जगा ही है ऐसे में कुछ आवश्यक पहलुओं की ओर ध्यान देना भी बहुत जरूरी है।
         धर्म और संस्कृति  में बसते भारत के प्राण-संस्कृत कोई क्षणिक घटना नहीं होती है।  हजारो लाखों सालों के निरंतर शोध व् अनुभव का परिणाम होती है संस्कृति। हमारे पूर्वजों ने बड़े परिश्रम से हिन्दू संस्कृति का विकास किया है। इसे हिन्दू संस्कृति कवक इसीलिए कहते हैं कि इसकी खोज हिन्दू  संतों ने क है। वास्तव में ये मानव संस्कृति है।  इसी संस्कृति के बल पर हमने हजारों सालों तक विश्व का मार्गदर्शन किया है।  विश्व में अनेक देशों की कुल आयु से ज्यादा तो हमारा विदेशी हमलावरों से जूझने का कालखंड है। भारत से कटे भारतीय और दुनिया के अनेक विद्वान भारत की इस अदभुत शक्ति का रह्श्य नहीं ढूंढ पा रहे हैं। इसका बड़ा कारण भारत के इतिहास के प्रति उनकी अज्ञानता और अविश्वास है। हमारे प्राय: सभी महापुरुषों ने इसे स्पष्ट किया है कि भारत के प्राण धर्म और संस्कृति में बसते हैं। 'राक्षस की जान तोते में' पुरानी कहानी की तरह जब तक यहाँ धर्म और संस्कृति सुरक्षित है, दुनिया में कोई भी भारत का बाल बांका नहीं कर सकता। भारत की इस जीवन शक्ति को बेशक हून, कुषाण जैसी हमलावर  जातियां  नहीं समझ पायीं लेकिन मुसलमान ने थोडा-2और अंग्रेज ने पूरी तरह इस शक्ति को पहचान लिया था। मुसलमान हमलावरों ने जहाँ भारत को खत्म करने के लिए सैनिक हमले के बाद संतों, मन्दिरों व् पुस्तकालयों को जी भर कर निशाना बनाया वहीँ अंग्रेज ने और गहरे जा कर शिक्षा के माध्यम से भारतवसिओं को ही भारत के विरुद्ध खड़ा कर दिया। अंग्रेज काफी मात्रा में अपने षड्यंत्र में सफल  भी हो गया। गुरु पुत्रो व् अन्य असंख्य ज्ञात अज्ञात बलिदान के बाद भी हमने जिस धर्म नहीं छोड़ा आज हमारे करोड़ों बन्धु भारी संख्या में धर्म परिवर्तन कर चुके या कर रहे हैं। इसी प्रकार हमारी बहनें अपनी जिस इज्जत की रक्षा के लिए बलिदान हो गईं, आज वहीं बड़ी संख्या में हमारी बहनें फेशन और आधुनिकता के नाम पर सब कुछ कर रही हैं। यही तो अंग्रेज चाहता था की हम अपने धर्म और संस्कृति के प्रति  अविश्वाश से भर जाएँ क्यूंकि जब तक धर्म का कवच भारत ने धारण कर रखा है भारत का कुछ नहीं बिगड़ सकता। क्या है जिसे हमें संभालना है आईये इस पर चर्चा करें।
वैश्वीकरण के चलते संकट में भारतीय जीवन मुल्य- वैश्वीकरण के इस दौर में विश्व एक बाजार बन गया है। हम विश्व को बड़ा परिवार मानते हैं। 'वसुधैव कटुम्बकम' हमारा पुराना सूत्र वाक्य रहा  है। विश्व को बड़ा बाजार बना देने के कारण हमारे जीवन मूल्यों पर संकट सा छा गया है। हमें सुखद भविष्य के लिए इन सबको संभाल कर रखना होगा।
भाषा-  भाषा किसी भी समाज की जीवन्तता तथा संस्कृति की वाहक होती है। हमारी संस्कृत हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएँ हर द्रिश्तिबसे सर्वोत्तम हैं। इसके बाबजूद हमने अपनी सब भाषाओं को अंग्रेजी के चरणों में को बैठा दिया है। हम घरों में बच्चों को जबरदस्ती अंग्रेजी रटा रहे हैं। क्या हम जानते हैं कि सीखने के लिए माँ बोली ही सर्वोत्तम मानी गयी है? अपनी भाषा पर अधिकार और गौरव हासिल कर हम दुनिया की सारी भाषाएँ सीखें इसमें किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती है। सबसे बड़ा झूठ हम अंग्रेजी को विश्व भाषा कह कर स्वयम या ओरों को परोसते हैं। आज सबसे ज्यादा शिक्षण माताओं का होना जरूरी है। माताओं की अपने बच्चे को कोंवेंट में अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाने की कीमत असंख्य बच्चे अपना मासूम बचपन इतना ही नहीं तो जीवन तक् खो कर चुका रहे हैं। कब समझेंगी हमारी देवियाँ कि अपनी अधूरी ख्वाइशें बच्चों के ऊपर लाद कर वे उनका भला नहीं बल्कि जाने अनजाने उनका अहित ही कर रही हैं।
वेश भूषा-  हमारे ऊपर भाषा जितना ही बड़ा हमला हुआ है वेश भूषा को लेकर। हमारी नई पीढ़ी जीन और यूरोपियन वस्त्रों की दीवानगी में अपने स्वास्थ्य को भी दाव पर लगा रही है। एक् तरफ विदेश में महिलाओं में साडी का प्रचलन बढ़ रहा है वहीं यहाँ हमारी  युवतियां जीन पहन कर और बाकि कपड़ों की लम्बाई लगातार घटा रहीं हैं। तुर्रा यह कि इसी में अपने आधुनिक होने का भ्रम पाल रही हैं। वास्तव में वेश भूषा स्थानीय वातावरण व् मौसम आदि के अनुसार विकसित होती है। हमारे महात्मा गाँधी, स्वामी विवेकानन्द एवं जगदीश चन्द्र बसु आदि ने भारतीय वेश में ही स्वाभिमान पूर्वक अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाया है। फिर अपनी वेश भूषा पर हीन भावना क्यों?
खान पान-  आज जब सारे बिश्व में भारतीय भोजन की मांग बढ़ रही है ऐसे में हमारे यहाँ पिज्जा और बर्गर की मांग का बढना चिंता की बात है। पिज्जा, बर्गर से बच्चों में मोटापा हारमोंस के असंतुलन  ने सबके कान खड़े कर दनिए हैं। जिन देशों ने इस महान भोजन की खोज की वहां स्कुल की क्न्टीनों में  ये पिज्जा और बर्गर रखना  प्रतिबंधित हो चूका है।  ऐसी ही स्तिथि कोल्ड ड्रिंक की है। हमारे परम्परागत शीतल पेय शीतलता के साथ साथ स्वास्थयवर्धक भी होते हैं। इसी प्रकार हमारे भवन कला भी विदेशी दासता के शिकार हो कर हमारे लिए खर्चिले होने के बाद भी उपयोगी नहीं हैं। हमारी प्राचीन  तकनीक ऐसी थी कि हम विपरीत मोसम भी आसानी से झेल लेते थे।
प्रकृति और महिला शोषण का शिकार- सबसे ज्यादा पाश्चत्य  जीवन शैली का दुष्परिणाम प्रक्रति और महिलाओं को उठाना पढ़ रहा है। वास्तव में हमारे यहाँ प्रकृति को माता का दर्जा दिया गया है। इसलिए हमने धरती, नदी , वृक्ष व् पर्वत सबको को श्रद्धा से देखा है। इसीलिए हमने लाखों सालों तक प्रकृति से जीवन पाया कभी भी इसने हमें निराश नहीं किया। जबकि यूरोपियन सोच और व्यवहार के चलते 300/400 वर्षों में ही प्रकृति हाथ खड़े कर रही है। धरती बंजर होनी शुरू हो गयी है। मानों प्रकृति और मनुष्य में खुनी संघर्ष ही प्रारम्भ हो गया है। यही हालत हमारी माता बहनों की है। इसाई और मुस्लिम सोच में महिला को उपभोग की चीज मानी गया है। इसलिए इसका बाजारी ढंग से उपभोग करना और आवश्यकता पूरी हो जाने पर छोड़ देना। जब तक यह सोच रहेगी महिला के ऊपर अत्याचार रुकना सम्भव नहीं। हमारे सुखद और जीवन के लिए प्रकृति और महिला के प्रति सोच बदलने की जरूरत है। केवल कानून बनाने से ज्यादा कुछ हासिल नहीं होगा।
स्वयं से करें पहल- घरों में जन्म दिन पर केक काटने के बजाये हवन पूजा कर बजुर्गों का आशीर्बाद लेना। इसी प्रकार शादी और शादी की सालगिरह आदि में सादगी और परम्पराओं के पालन में भारतीय सोच झलकनी चाहिए।  निमन्त्रण पत्र,अपने हस्ताक्षर हिंदी या अपनी प्रादेशिक भाषा में करना हमारे स्वभाव में आना चाहिए। हमें याद रखना होगा कि अपनी संस्कृति को हमारे पूर्बजों ने बड़ी कीमत चुका कर हम तक पहुँचाया है। संस्कृति की इस ज्योति को नई पीढ़ी के हाथ में सुरक्षित देना हमारा दायित्व है।

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