सोमवार, 2 जून 2014

पुण्यभूमि भारत- सबसे न्यारा देश हमारा

अपना देश विश्व का सबसे प्राचीन देश  होने के साथ साथ सबसे श्रेष्ठ व् पवित्र देश होने का गौरव प्राप्त देश है। मनुष्य का स्वभाव है कि जो चीज उसे सहज मिल जाती है उसका महत्व वह नहीं समझ पाता है। उदा. मछली को पानी में रहते  जल सामान्य पदार्थ लगता है। इसी प्रकार मनुष्य ओक्सीजन का महत्व एक तो क्षण सांस न आये तो समझता है। गंगा, अयोध्या, काशी या चार धाम आदि के दर्शन करना हम सौभाग्य मानते हैं लेकिन इनके समीप रहने वाले लोग इस बात को लेकर हैरान-परेशान रहते हैं कि आखिर ऐसा क्या है यहाँ कि असंख्य लोग चले आते हैं। इस दोहे में यही भाव प्रकट हुए हैं-
अति परिचय से होत है, अरुचि, अनादर, अभाय
मलय गिरी की भीलनी , चन्दन देत जराय।।
अर्थात सहज समीपता से अरुचि उपेक्षा और अभी पैदा होना स्वभाविक ही होता है जैसे मलय पर्वत की भीलनी चन्दन को साधारण लकड़ी समझ कर जला देती है। अति समीपता के कारण अर्जुन भी  धोखा खा गया था। अर्जुन श्री कृष्ण को दोस्त ही समझता रहा। श्री कृष्ण का विराटरूप देख कर उसके मुंह से निकल पडा-
सखेति मत्वा प्रसभम यद्युक्तं, हे कृष्ण, हे यादव, हे सखा ! अर्थात कृष्ण का विराट रूप देख कर अर्जुन कहते हैं कि मैं तो अभी तक आपको अपना दोस्त ही समझता था। और कई बार मैंने उसी प्रकार आपको सम्बोधित भी किया है।  यह ध्यान देने योग्य है की जहाँ समीपता पूरी जानकारी के आभाव में उदासीनता पैदा करती है वहीं जानकारी हो जाने के बाद निकटता सौभाग्य में बदल जाती है। स्वामी विवेकानन्द के जीवन की घटना अत्यंत प्रासंगिक है। स्वामी जी जब पश्चिम में थे तो कई बार भारत भूमि को याद कर प्रत्यक्ष रो पड़ते थे। और जब उन्होंने वापिस लौटने पर पहला पैर भारत की धरती पर रखा तो स्वागत के लिए आये लोगों से मिलने के बजाए सीधे समुद्र के किनारे बालू की मिटटी पर लोट गये। पूछ्ने पर बोले कि भारत पवित्र भूमि है। पश्चिम में रहते मेरे शरीर और मन में चिपक गये दूषित कण इसकी छू मात्र से दूर चले जायेंगे। महर्षि अरविन्द, बंकिम चन्द्र चट्टोप्धाय एवं संघ के दूसरे प्रमुख श्री गुरु जी इसे साक्षात् जगजननी मानते थे। बंकिम चन्द्र ने अपने प्रसिद्ध गीत वन्दे मातरम में भारत माता के इसी दैवीय रूप का वर्णन कियस है। भारत की महानता को हमारे ऋषिओं ने एक स्वर से गाया है । इस सम्बद्ध में एक सुन्दर श्लोक है-
गायन्ति देवा: क़िलगीत्कानि धन्यास्तु ते भारत भूमिभागे।
स्वर्गाप वर्गास्पदहेतुभूते भवन्ति भूय: पुरुषा: सुरत्वात।। विष्णुपुरण।। 2-3-4 , ब्रह्म्पुरण 19-25
अर्थात अपनी भारत भूमि की प्रशंसा देवताओं तक ने गाई है। इसी प्रकार भारत को माँ मान कर वंदना करने सम्बधी भी एक श्लोक देखें-
माता भूमि पुत्रोsहम पृथ्वीव्या: । (अथर्ववेद) 13/1/12
प्रसिद्ध विद्वान् और संघ के वरिष्ठ प्रचारक स्व. पंडित दीनदयाल उपाध्याय कहते थे -  हमारे लिए भारत भूमि मात्र नहीं बल्कि मातरू भूमि है। यह सोचते ही हमारा इसको लेकर दृष्टिकोण ही बदल जाता है। हमारे यहाँ बजुर्ग सवेरे उठकर धरती पैर रखने से धरती से क्षमा मांगते थे।
समुद्रवसने देवी पर्वत स्तनमण्डले ।
विष्णुपत्नी नमस्तुभ्यम पादस्पर्शमक्षमस्वमैव।। अर्थात समुद्र जिसके वस्त्र है और पर्वत जिसके स्तन हैं उस विष्णु पत्नि को मैं नमस्कार करता हूँ। और इस पर पैर रखने के लिए क्षमा मांगता हूँ। भारत माता के प्रति ऐसा श्रद्धाभाव रख कर हमारे साधु, संतों व् विद्वानों ने विचार जगत की अदभुत उचाईं को छुआ। आईये! संक्षेप में थोड़ी झलक देखने का प्रयास करते हैं।
ॐ-  इसे प्रणव मन्त्र भी कहा जाता है। यह सृष्टि का आदि नाद माना जाता है। यह शब्द ब्रह्म सृष्टि में अव्यक्त रूप में व्याप्त रहता है। हर मन्त्र के प्रारम्भ और आखिर में इसका उचारण शुभ माना जाता है। आधुनिक मेडिकल साईंस भी ॐ के उचारण को स्वास्थ्य के लिए अत्यंत उपयुक्त मानती है।
प्रकृति- हमें दिखने वाली प्रकृति स्वभाव से जड़, निराकार और त्रिगुणात्मक है। यह तीन गुणों से युक्त है-सत्व, रजस और तमस। साम्यावस्था में सब कुछ अमूर्त रहता है। चेतन के सम्पर्क में आने पर साम्य भंग हो जाता है। इसी से सृष्टि का क्रम शुरू हो जाता है।
पंचभूत- यह सृष्टि पांच तत्वों से बनी है और आखिर में इन्हीं में समा जाती है। ये है जल, वायु, अग्नि, आकाश और पृथ्वी। रामायण में कहा भी गया है। क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा।
ग्रह - हमने नव ग्रहों का विचार गहराई से किया है। ये वो ग्रह हैं जो पृथ्वी और इस पर रहने लोगों को प्रभावित करते हैं। चन्द्र ग्रहण में समुद्र में ज्वार भाटा का उदाहरण।
लोक- वेदों में अनेक लोकों का वर्णन है। इनमें प्रकाश पूर्ण दैविलोक भी हैं और अंधकार में डूवे आसुरी लोक भी हैं। पुराणों में चौदह लोकों का उल्लेख - इनमें 7 उर्ध्व लोक- भूर्लोक, भुवर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपोलोक और सत्यलोक। इसी प्रकार 7 लोक ये हैं- अतल, वितल, सुतल, रसातल, तलातल, महातल और पाताल।
स्वर-  आकाश में शब्द गुण व्याप्त है। शब्द की ध्वनिमय अभिव्यक्ति स्वर है। ध्वनि की मूल इकाई श्रुति है। कुल 22 श्रुतियाँ हैं । एक से अधिक श्रुतिओं के नादमय संयुक्त रूप को स्वर कहते हैं। स्वर सात हैं। सा रे गा मा पा धा नि।
दिशा- दस दिशाओं का उल्लेख हमारे यहाँ है। उत्तर, पूर्व, पश्चिम, दक्षिण, आग्नेय (दक्षिण पूर्व) नैर्त्या (दक्षिण पश्चिम) वायव्य (उत्तर  पश्चिम) ईशान (पूर्वोत्तर) उर्ध्व, अध्:
काल- भूत वर्तमान व् भविष्य ऐसे तीन कालों का वर्णन। हमने काल की छोटी से छोटी इकाई निमेश ( एक सेकंड का 17550 वां भाग) का विचार किया है वहीँ समय की सबसे बड़ी ईकाई युग और महायुग का भी। सत्ययुग, त्रेतायुग, द्वापर युग तथा कलियुग। इन चार युगों को मिला कर एक महायुग बनता है जिसकी कुल आयु 43,20,000 साल है। ऐसे 1000 महायुगों का एक कल्प होता है। पुराणों के अनुसार एक कल्प ब्रह्मा का एक दिन होता है और सृष्टि की एक बार की आयु होती है। सृष्टि के कल्प के बराबर ही प्रलय कल होता है। इसके बाद फिर सृष्टि का क्रम शुरू हो जाता है।  और ब्रह्मा की आयु 100 साल होती है। इसकी गणना मानवीय क्षमता के बहार ही है। इसके बाद फिर महाप्रलय होता है। भारत की पुण्याई का एक संक्षिप्त वर्णन करने का प्रयास है।

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