देश में महिलाओं के साथ हो रहे अमानवीय अत्याचारों को देख व् सुन कर हर स्वाभिमानी भारतीय का सिर शर्म से झुक जाना स्वाभाविक ही है। सामूहिक बलात्कार के बाद निर्ममतापूर्वक हत्याओं के इस नये सिलसिले ने तो हमारे युवाओं को विश्व में कहीं मुंह दिखाने का नहीं छोड़ा है। अमेरिका, इंग्लॅण्ड जैसे घोर भोगवादी देश जहाँ महिला को भोग की वस्तु मात्र माना जाता है, नैतिक मूल्यों के वैश्विक ठेकेदार बन हमें हमारे देश में महिलाओं पर जो रहे अत्याचार रोकने का उपदेश दे रहे हैं। महिलाओं की उनके यहाँ स्थिति जो भी हो लेकिन हमें उपदेश देने का मौका तो हमने उन्हें दे ही दिया न। अब हम यह तो नहीं कह सकते कि आपके यहाँ इससे भी बुरी स्थिति है इसलिए हमें कुछ मत कहो। आखिर कब तक हमारा युवा अपना झूठा पौरष और पराक्रम इस प्रकार महिलाओं की इज्जत से खेल कर दिखाता रहेगा? क्या हो गया अपने भारत के युवा को? जिस देश में अपनी पत्नि को छोड़ कर हर महिला की इज्जत माँ के बराबर की जाती रही हो वहां ये सब होना क्या आश्चर्य की बात नहीं है? संस्कृत के एक श्लोक में महिलाओं के प्रति श्रद्धा का यह भाव बड़ी सुन्दरता से व्यक्त हुआ है-
मातृवत परदारेषु पर द्र्ब्येषु लोश्ठ्वत्।
आत्मवत सर्बभूतेशु य: पश्यति सा पंडिता:।।
अर्थात हर महिला माँ के समान होती है और दूसरे का धन मिटटी के समान होता है। जो व्यक्ति अपने समान दूसरे को समझता है सही अर्थ में वही ज्ञानी होता है। इस एक श्लोक में ही आज के विश्व की अधिकाँश समयाओं का समाधान निहित है। एक अन्य जगह हमने स्पष्ट घोषित किया है- यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता। अर्थात जिस घर और समाज में महिलाओं की इज्जत की जाती है वहां देवता निवास करते है। जहाँ देवता निवास करेंगे वहां सुख समृधि और प्रसन्नता होना स्वाभाविक ही है। इसी प्रकार सीता की खोज में भगवान श्री राम द्वारा लक्ष्मण को सीता के गहने पहचानने को कहने पर लक्ष्मण का उत्तर महिला हित के चेम्पियन्स के लिए भी मार्गदर्शक हो सकता है। उन्होंने कहा था- न जानामि कुण्डले, न केयुरे वा।.......
।। अर्थात भैया! मैं कान के कुंडल या केयूर आदि नहीं पहचान सकता क्यूंकि मैंने कभी भाभी के चेहरे को देखा ही नहीं है। मैंने तो हमेशा उनके चरणों में ही देखा है इसलिए पांव् का कोई गहना हो तो मैं अवश्य पहचानने की कोशिश कर सकता हूँ। जिस देश में महिला को इतना मान सम्मान दिया गया हो वहां बलात्कार जैसे घृणित कांड होना निश्चित ही विचारणीय और घोर चिंता का विषय है। कहते है की दवाई कितनी भी अच्छी या प्रभावी क्यूँ न हो अगर नियम से और नियमित तौर से न ली जाये तो परिणाम नहीं देती है। हमने अपनी संजीवनी बूटी रूपी संस्कृति की हवा अपनी नई पीढी को लगने कहाँ दी? आधुनिकता के फेर में अपनी संस्कृति को जी भर कोसा व् नकारा है हमने! अंग्रेजी माध्यम, कोंवेंट संस्कृति के स्कूल में बच्चे भेजे, क्लब कल्चर को प्रोत्साहित किया। सह जीवन व् समलिंगी सम्बधों की वकालत करने वालों की संख्या कम नहीं है अपने देश में। ऐसे में ---'बोये पेड़ बबूल के तो आम कहाँ से आयें-वाली कहावत चरितार्थ होती दिख रही है।
जो भी सू्त्र हमें हमारी संस्कृति व् संस्कारों से जोडते थे हमने अंग्रेज के मानस पुत्रों के छलावे और बहकावे में आकर उससे किनारा कर लिया। और मजेदार बात ये सब करते हुए हम अपने को आधुनिक समझ कर गौरवान्वित महसूस करते रहे। हमें पश्च्मीकरण के बिना आधुनिक होने का विचार करना होगा। आधुनिक होने का अर्थ है अन्ध बिश्वासों से उपर उठना, दहेज़, कन्या भ्रूण हत्या व् छुआ छुत जैसी सामाजिक कुप्रथाओं से बाहर आना है। अपनी शिक्षा आदि पर नाज करने वाले हम लोग अभी तक इन बुराईओं को तो छोड़ नहीं रहे हैं। हमें आधुनिक होने को परिभाषित करने की जरूरत है। क्या कम कपड़े पहनना, देर रात तक लडके -लड़किओं का क्लबों में नाचना- गाना व् शराब आदि पीना या बिना शादी के जवान लडके लडकी का एक कमरे में वर्षों तक साथ रहना आधुनिकता है? इसका अर्थ ये भी नहीं कि हम लड़कियों को बिलकुल घर में बाँध दें। हमें भारतीय संस्कारों और वर्तमान समय के साथ संतुलन बैठना होगा। वास्तव में हमें ध्यान करना होगा की जिन पश्चिम देशों की अंधाधुंध नकल हम ऐसी सब बातों के लिए कर रहे हैं वहां महिला पुरुष सम्बधों का अपना अलग मनोविज्ञान है। हमारी समस्या है कि हम रहना, खाना पश्चिम की तरह चाहते हैं और महिला पुरुष सम्बध ठेठ भारतीय चाहते हैं। हमे मानव शरीर और मन के मनोविज्ञान को स्मरण रखना होगा। महिला पुरुष का शारीरिक आकर्षण युग सत्य है। इस तथ्य को हम नकार नहीं सकते। व्यक्ति को अन्य विषयों की तरह इस संबध में ठीक व्यवहार करने के लिए मजबूत संस्कार या कानून ही प्रेरित या यूँ कहें कि मजबूर करते हैं। जहाँ ये कमजोर पड़ते हैं वहाँ मनुष्य के अंदर का पशु जाग पड़ता है। हम जानते हैं कि समाज के सुचारू संचालन के लिए कठोर कानून आवश्यक हैं लेकिन यह भी सत्य है की हर व्यक्ति के साथ पुलिस नहीं खड़ी की जा सकती। अमेरिका जैसे प्रगत देशों में भी जहाँ प्रति हजार व्यक्तियों पर एक पुलिस मैन ही उपलब्ध है और भारत जहाँ यह प्रतिशत और भी चिंताजनक है वहां केवल प्रशासन के बल पर कानून व्यवस्था कैसे ठीक कर लोगे? इसलिए महिला संरक्षण के कठोर कानून बनाये जाएँ उन्हें लागू करने के तन्त्र को चुस्त दुरस्त किया जाये लेकिन इसके साथ ही इस संवेदनशील मुद्दे पर गम्भीर और समग्रता से विचार करना आज की जरूरत है। हमे आग लगने पर कुआँ खोदने की आदत सी लग गयी है। कोई बड़ी दुर्घटना होती है खूब हाय तौवा मचती है, मोमबती लेकर हजारों लोग सडक पर आ जाते हैं, बड़े-2 प्रदर्शन होते हैं लेकिन थोड़े दिनों बाद सब अपने लून तेल लकड़ी के चक्कर में व्यस्त हो जाते हैं। हमे समाज के इस इस जनाक्रोश को स्थाई परिवर्तन में बदलने पर भी विचार करना होगा। ऐसी किसी दुर्घटना पर समाज का विशेष कर युवाओं का उबल पड़ना यह संकेत तो देता ही है की वो ऐसी दुर्घटनाओं को नहीं चाहते हैं।
महिलाओं के अपमान की घटनाओं को रोकने के लिए हमें बच्चों को बचपन से ही इस विषय में जागरूक और शिक्षित करना होगा। आज जब घर में माँ और बहन (बहन भी सब को उपलब्ध नहीं है) ही दिखती है। अन्य स्त्री के प्रति लगाव व् आदर का भाव का शिक्षण उसे मिलता नहीं है। आज सारे रिश्ते अंकल-आंटी में सिमट गये हैं। इसके अलावा घर में टी वी पर लडके लडकी को परस्पर चूमते चाटते सब परिजन एक साथ देखते हैं या यूँ कहें कि देखने को बेबस हैं, ऐसे में नई पीढ़ी महिला पुरुष के शारीरिक सम्बधों के विषय पर कितनी सम्वेदनशील है यह भी सर्वेक्षण का विषय है। शादी से पूर्व शारीरिक सम्बद्ध नई पीढ़ी के लिए कोई बड़ा विषय है, ऐसा नहीं लगता है। इसलिए महिलाओं के साथ हो रहे अत्याचारों पर केवल हो-हल्ला करने के बजाये इस विषय पर योग्य परिणाम लाने के लिए चहूँ और से प्रयास करना होगा। इस समस्या से प्रभावी समाधान के लिए हमारी महिलाओं को ही इस मोर्चे पर भी कमर कसनी होगी। ऐसी किसी दुर्घटना से दो चार होने पर साहस के साथ प्रतिकार करना, कानून आदि का उपयोग कर अपराधी को दण्डित करने के साथ-साथ इस समस्या के मूल में भी जाना होगा। हम विचार करें कि आखिर बलात्कार करने वाला हर लड़का किसी महिला की गोद से ही बड़ा हुआ होता है। यह स्वीकार करने कोई संकोच नहीं होना चाहिए ऐसे बच्चे के पालन- पोषण में माँ से कहीं जरुर कोई चूक हुई होती है। इसका अर्थ ये कतई नहीं कि शेष परिजनों की कोई भूमिका नहीं होती। कहना केवल इतना ही है कि बच्चे के विकास में माँ की विशेष भूमिका होती है। हमें बचपन से हर बच्चे को महिलाओं की इज्जत करनी सिखानी होगी। यह काम माँ से प्रभावी ढंग से और कौन कर सकता है?
हमे युवाओं को समझाना होगा
कि अगर दुर्घटनाओं के इस क्रम को प्रभावी ढंग से न रोका गया तो ऐसी किसी दुर्घटना का शिकार हमारी अपनी बहन-बेटी भी हो सकती है। और कोइ भी युवा चाहे कितना ही उदंड क्यूँ न हो अपनी बहन-बेटी के साथ ऐसी किसी दुर्घटना की कल्पना भी नहीं कर सकता है। अपनी बहन बेटी के प्रति लगाव का बचा ये जो भारतीय संस्कृति का अंश युवाओं में शेष है उसका लाभ उठा कर इस सामाजिक बुराई से प्रभावी ढंग से लड़ा जा सकता है।
मंगलवार, 17 जून 2014
नारी को माँ मानने वाले देश में क्या हो रहा है?
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Aaj jarurat h nari ko samman dene ki aur nari jati ka aadar purvak samajik prathishta prapt ho. Humko har nari se aadar se vyavahar karna chahiye.
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