मंगलवार, 29 मार्च 2016

आरएसएस नहीं तो क्या झूठ, फरेब का व्यापार करने वाले वामपंथी या आशुतोष जैसे पत्रकारिता को बदनाम करने वाले होंगे भगत सिंह के बारिस!


देशभक्ति के प्रतीक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को कटघरे में खड़ा करने, संघ की देशभक्ति, क्रांतिकारियों के प्रति प्रेम या स्वतन्त्रता आंदोलन में संघ के योगदान आदि पर प्रश्न उठाने के दुष्प्रयास पहली बार नहीं हो रहे हैं। ये प्रयास एक बड़े षड्यंत्र अर्थात अपनी बेईमानी जगजाहिर न हो, उसकी ओर समाज का ध्यान न जाए या पकड़े गए तो भारी जनाक्रोश का सामना न करना पड़े इसलिए देशभक्ति के प्रायः बन चुके संघ को ही प्रश्नों के घेरे में खड़ा कर दो। इनकी स्थिति ठीक ऐसी ही है 'मेरे नंगे होने पर कोई सवाल न करे तो सामने वाले के कपड़े भी उतार दो'। अगर प्रश्न ईमानदार हों तो चिंता की बात नहीं लेकिन ये लोग अपने ही खड़े किए प्रश्नों के उत्तर भी नहीं चाहते। इनको तो गाली दे कर भाग जाना होता है। प्रश्नों के उत्तर के लिए रुकें भी क्यों, क्योंकि इनको अपनी बेमानी का पता जो होता है।
  संघ को तो भगवान कृष्ण की तरह बचपन से ही विरोध झेलने की आदत सी बन गयी है। संघ विरोधियों की समस्या 'मर्ज बढ़ता ही गया, ज्यूँ ज्यूँ दवा की' की तरह है। परेशान हैं बेचारे करें तो क्या करें? विरोध करें तो, न करें तो जनता का इस संगठन के प्रति प्रेम बढ़ता ही जा रहा है। पिछले दिनों संघ विरोध में कुछ नए चेहरे भी उभरे हैं। संघ विरोध अब कुछ दुर्योधनवंशी लोगों के लिए जनून की हद तक बढ़ता जा रहा है। अपने विरोध के पागलपन में सत्य, नैतिकता आदि को बहुत पीछे छोड़ दे रहे हैं ये लोग। संघ विरोध में छाज तो बोले लेकिन अब तो आशुतोष जैसी छलनियां भी मैदान में उतरती देखी जा सकती हैं। बेशर्मी की हद तक झूठ का सहारा लेने में इतिहास के अनेक खलनायकों को भी मात करते दिख रहे हैं। करें भी क्या बेचारे सवाल अस्तित्व का जो खड़ा हो गया है! कल तक आम जनता की खून पसीने की कमाई पर पल रहे, पञ्च सितारा संस्कृति में आकण्ठ डूबे ये लोग अब सुविधाओं की आपूर्ति बन्द हो जाने पर बिलों से बाहर आ कर बदहवाश से घूम रहे हैं, जहर उगल रहे हैं। एक ओर सत्ता मुंह नहीं लगा रही और इधर जनता जागरूक हो रही है।  देश और दुनिया में मुंह छुपाते फिर रहे हैं । लेकिन इनका ये प्रयास भी उसी तरह बेकार हो रहा है जैसे एक नई नवेली दुल्हन का अचानक ससुर के आने सास के घूंघट लेने को कहने पर सर ढकने के चक्कर में बेचारी घाघरा उठा मुंह छुपा लेती है।
  श्री आशुतोष ने अपने लेख में एक के बाद एक बचकानी बातें कही हैं। कहते हैं संघ को भगत सिंह से अचानक प्यार हो गया है। ये महाशय! भूल रहे हैं कि संघ तो क्रन्तिकारी देशभक्तों का प्रारम्भ से ही दीवाना रहा है। 2007 में भगत सिंह जन्मशताब्दी केवल संघ ने धूमधाम से मनाई थी। आशुतोष और इनकी गैंग का भगत सिंह प्रेम उस समय कहां गायब हो गया था? रही बात नेताजी सुभाष और सरदार पटेल के प्रति संघ की हमदर्दी या इन महापुरुषों के संघ के प्रति स्नेह की तो कहना पड़ेगा कि आशुतोष जैसों को उस ऊंचाई या गहयाई तक जाने में कई जन्म लेने पड़ेंगे। संघ संस्थापक डा. हेडगेवार के नेता जी सुभाष से सम्बद्ध, नेता जी का स्वयं डा. साहिब के दर्शन के लिए नागपुर जाना और इतना ही नहीं तो जेल से रिहा होने पर आशुतोष के नायक! श्री जवाहर लाल नेहरू के पिता जी स्वयं श्री मोतीलाल नेहरू का स्वागत के लिए खड़े होना क्या आशुतोष जानते हैं? इतना ही नहीं लाहौर बम कांड के बाद राजगुरु का अंग्रेज पुलिस से सुरक्षित स्थान के लिए विश्वस्त सूत्र डा. हेडगेवार के पास जाना और डा. हेडगेवार द्वारा उनकी योग्य व्यवस्था करने को क्या कहेंगे जनाब! रही सरदार पटेल का संघ पर प्रतिबन्ध की बात तो स्वयं पटेल द्वारा संघ पर प्रतिबन्ध को लेकर नेहरू को लिखे पत्र पढ़ लें, तो इन्हें आयना स्वयं दिख जायेगा।
गांधी, नेहरु, पटेल, और भगत सिंह और डा. हेडगेवार के परस्पर सम्बद्ध क्या थे, कैसे थे? अच्छा है महापुरुषों के परस्पर सम्बंधों पर सार्वजनिक टिप्पणियों से बचा जाए। अपनी सोच के अनुसार नेहरू या गांधी की प्रशंसा करना, उनके भक्त होना एक बात है। इसमें कुछ गलत भी नहीं है। लेकिन इस प्रयास में अन्य महापुरुषों की खिल्ली उड़ाना यह वामपंथी या अशुतोषि ढंग त्यागना ही होगा। आज तक इन्होंने ऐसा ही तो किया गया। योजनापूर्वक गांधी नेहरू परिवार की स्तुति तक ही सारे स्वंतंत्रता आंदोलन को समेट दिया था। आजादी के बाद सारी योजना- परियोजनाओं को गांधी नेहरू को समर्पित कर दिया। देश की स्वंतत्रता आंदोलन में जवानियाँ समर्पित करने वाले सावरकर बन्धु, चाफेकर बन्धु जैसे असंख्य देशभक्त गुमनामी के अँधेरे में धकेल दिए गए। क्या यह राष्ट्रीय अपराध नहीं है? इतना ही नहीं भगतसिंह के ये उपासक वर्षों तक नई पीढ़ी को भगतसिंह को आतंकवादी पढ़ाये जाते मूक हो कर देखते रहे। भगतसिंह के प्रति आपकी भक्ति घास चरने चली गयी थी क्या? कोर्ट में जाकर ऐसे अंश हटाने का काम किसी वामपंथी या अशुतोषि ने नहीं बल्कि साम्प्रदायिक! संघ के लोगों ने ही किया है महाशय! इसके आलावा भगत सिंह आर्यसमाजी थे, गीता पाठ करते थे। भारत भक्ति ही उनका एकमात्र धर्म था आदि ऐसी बातें प्रयत्नपूर्वक देश से छुपाई गयीं। हाँ! अंध ईश्वर भक्ति या धर्मभक्ति की आलोचना की है उन्होंने, लेकिन इसमें गलत क्या है? याद रखें भगत सिंह एवम् अन्य क्रन्तिकारी कम्युनिस्ट कत्तई नहीं थे। वामपंथियों ने अपनी राजनीति को स्वीकार्य बनाने के लिए कांग्रेस के साथ मिलकर भगत सिंह आदि को वामपंथी सिद्ध करने का भयंकर षड्यंत्र किया। साम्यवाद के प्रति प्रेम रूस में लेनिन आदि की तात्कालिक सफलता का सहज परिणाम था। इसके साथ एक और तथ्य ध्यान में रखना होगा कि वामपंथी या साम्यवादी होना एक बात है और इन वादों की आड़ में देश से गद्दारी दूसरी बात है जिसे भगत सिंह जैसे लोग स्वप्न में भी स्वीकार नहीं करते। साम्यवादी और अशुतोषि गैंग पहले रूस, चीन आदि देशों में स्वदेश से गद्दारी के बदले मलाई खाते रहे जब उन्हें इनकी ओकात पता लग गयी और उन्होंने दुत्कार दिया तो फिर भारत में कांग्रेस या अन्य स्रोत खोजने लग पड़े।
जहां तक संघ के गांधी के समर्थन या विरोधी होने की बात है तो अल्पसंख्यक तुष्टिकरण और भारत विभाजन को  छोड़कर संघ गांधी दर्शन का प्रारम्भ से समर्थक रहा है। हाँ! संघ ने गांधी या किसी और को राष्ट्रपिता आदि की अवधारणा का कभी समर्थन नहीं किया। हमारा मानना है कि राष्ट्र की केवल सन्तान होती है पिता, माता या बहू आदि नहीं। एक पक्ष और ध्यान देने योग्य है। आज गांधी जी के प्रिय विषय स्वदेशी, खादी, लघु उद्योग या ग्राम विकास आदि पर गम्भीर प्रयास भी साम्प्रदायिक! संघ के लोग ही कर रहे हैं! गांधी-नेहरू समर्थक तो गांधी जी की एक इच्छा पूरी करने के लिए ईमानदार प्रयास करते दिख रहे हैं अर्थात कांग्रेस मुक्त भारत! और भगत सिंह जैसे क्रांतिकारियों को बाजार में अपनी रोजी रोटी के लिए बेचने वाले वामपंथी और असुतोषि विरादरी इस महान! कार्य में सहयोगी बन रहे हैं। वास्तव में आशुतोष विरादरी को भगत सिंह या कन्हैया से कहीं ज्यादा प्रेम अपनी पंच सितारा सुख सुविधाओं से है। एक और प्रश्न इन्होंने उठाया है कि अगर आज भगत सिंह होते तो कन्हैया का समर्थन और संघ का तीव्र विरोध करते। अगर थोड़ी देर के लिए ऐसा मान भी लें तो भगत सिंह आप जैसे  सत्ता के दलालों को तो अंग्रेज का अंश और वंश मान कर बम और पिस्तौल की भाषा में जरूर समझाते। इसलिए भगत सिंह को बाजार में अपनी राजनीति के लिए बेचने के दिन लद गए आशुतोष जी!

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