मंगलवार, 16 जून 2015

उधर कोई बेबश बहाता है आंसू....

उधर कोई बेबश बहाता है आंसू, इधर भीग जाता है दामन हमारा।।  ठीक ऐसी ही स्थिति इस युवा गृहणी के मन की है। प्रस्तुत लेख की नायिका जालंधर की है। नाम उजागर करना शायद उसे अच्छा नहीं लगेगा इसलिए चलो काम चलाने के लिए उसका नाम ममता रख लेते हैं। क्योंकि गरीबों, असहायों के लिए उसकी ममता का मानो बांध ही टूट पड़ता है। युवा ममता के पास सम्पन्न घर, सुंदर परिवार, प्यारे बच्चे व हर जगह सहयोगी पति.... अर्थात आनन्द के सागर में डूबे रहने के लिए सब कुछ पर्याप्त है इसके पास !  सब कुछ होते हुए भी फिर भी न जाने क्यों बेचैन और उदास रहती है ममता। समाज के लिए बहुत कुछ कर गुजरने का जज्बा है इस जज्बाती लेकिन धुन की पक्की महिला  में। किसी दुखी को देख कर उसकी सहायता करने का इसको मानों जनून ही सवार हो जाता है। सामन्य तौर पर विनम्र और नाजुक सी दिखने वाली इस महिला में जरूरत पड़ने पर न जाने अदभुत साहस व पराक्रम कहां से आ जाता है?
विवेकानन्द ने उड़ाई नींद - स्वामी विवेकानन्द ने अपने समय में स्वयं और बाद में उनके प्रेरक जीवन और दर्शन ने असंख्य लोगों की नींद उड़ा कर उन्हें देश व समाज के लिए जीवन न्योछावर करने को मजबूर किया है। उन्हीं की पंक्ति में ममता भी स्वयं रे गिनते रहते हैं जब सारा आलम सोता है।                  साल पहले तक लगभग सब ठीक ठाक ही था। समाज की असमानता थोडा परेशान तो करती थी लेकिन घर गृहश्थी और छोटा सा परिवार इसी में ममता भी पूरी तरह डूबी थी। स्वामी विवेकानन्द सार्धशती में संघ के कार्यकर्ताओं के सम्पर्क में आने के बाद स्वामी को थोडा थोडा पढ़ना क्या शुरू किया कि फिर तो पीछे मुड़ कर देखने का कहां समय मिला और कहां मन किया?समाज के दुःख में आंसू बहाता, रोता- बिलखता विवेकानन्द इसे अपने अंदर आकार लेता अनुभव होने लगा। इसी समय इसे  'विवेकानन्द और सेवा' विषय पर पुस्तक के लिए सामग्री जुटाने का कार्य मिल गया। इस पुस्तक के लिए स्वामी जी के विचार और प्रसंग संग्रह करते व पढ़ते रही सही कसर भी पूरी हो गयी।     गरीब बच्चे बन गए आराध्य- इसके बाद तो हर गरीब बच्चा ममता के लिए आराध्य बन गया। उन्हें देखते ही इसकी ममता का सैलाब उमड़ पड़ता। गरीब बस्ती में जाकर बच्चों को एकत्र करना और उन्हें पढ़ाना,  खिलाना और खेलाना तथा अच्छे संस्कार देना इसकी दिनचर्या का हिस्सा बन गया। इसके लिए इसने संभ्रांत परिवारों की महिलाओं की अच्छी टोली बना ली। सब मिलकर साथ लगती स्लम बस्ती में जाने लगी। ममता के साथ साथ इन महिलाओं को भी नर सेवा- नारायण सेवा का मन्त्र भाने लगा। बस्ती में संस्कार केंद्र के आलावा बड़े  बच्चों को खेल के लिए घर के बाहर खुले स्थान को  खेल के मैदान  में बदल दिया। कबड्डी और अन्य खेलें,  हनुमान चालीस, देशभक्ति के गीत व  प्रेरक बातें यहां की कार्य पद्धति का भाग है। इसके परिणाम स्वरूप् बच्चों  ने नशा छोड़ना शुरू कर दिया है। बच्चे ममता के इशारों पर नाचते हैं। बच्चों को  प्रेरित कर काम पर भेजना तथा कुछ बच्चों के लिए काम तलाशना भी ममता के कार्य में शामिल है। इसके लिए वह अपने सम्पर्क का पूरा उपयोग करती है।                                                                            दीदी! कल मैं पढ़ने नहीं आउंगी, मेरी माँ मरने वाली है-एक दिन संस्कार केंद्र में पढ़ने वाली एक छोटी बच्ची ख़ुशी बोली, दीदी मैं कल पढ़ने नहीं आउंगी। मेरी माँ मरने वाली है। मैं बुआ के पास लुधियाना चली जाउंगी। यह सुनते आखिर कौन पत्थर दिल हृदय नहीं पिघलेगा? फिर ये तो गरीबों के दुःख में बेचैन रहने वाली ममता थी। सारी रात आँखों में निकल गयी। सवेरे बिना कुछ खाए पिऐ अकेली उस बच्ची  ख़ुशी के घर पहुंच गयी। सारे मुहल्ले को इकट्ठा कर लिया। मुझे भी फोन आया। भैया! विवेकानन्द पढ़ने नहीं जीवन में उतारने का विषय है। मेरे केंद्र की बच्ची की माँ मर जायेगी। ऐसे हम किस को पढ़ायेंगे? पढ़ा कर क्या करेंगे? तुरन्त यहां आ जाओ।  मैंने अपनी व्यस्तता बतानी चाही लेकिन उसने कहां सुनी? जब हम वहां पहुंचे तो दृश्य देख कर मन बेचैन हो गया। आखिर  कब हमारा भारत गरीबों के लिए रहने लाईक बने बस्ती की स्थिति दिल्ली के विश्व की आर्थिक महाशक्ति बनने के स्वप्न को चिढ़ाती दिख रही थी।  चारों तरफ गन्दगी, एक छोटे से कमरे में मक्खियों के बीच ख़ुशी की ममी सपना असहाय हो कर मानो मौत का ही इंतजार कर रही थी। वह जीना चाहती थी लेकिन कोई भी उसका सहारा नहीं था। मुहल्ले वालों ने बताया कि पति शराबी है। रात को आ कर दवा दारू करने के बजाय इससे लड़ता है। हमें देख कर सपना के असहाय चेहरे पर थोडा विश्वास जरूर लौटा! ममता ने सपना के इलाज के लिए अपने पति के मित्र डॉ को बुलाया। डॉ के कहते ही अस्पताल से एम्बुलेंस मंगवा कर सपना को जिला अस्पताल पंहुचाया गया।  इतना ही नहीं ममता  जिला अस्पताल जा कर बीमार सिस्टम में डॉक्टरों व स्टाफ से लड़-झगड़ कर, सपना का फ्री इलाज का केस बनवा कर, इलाज शुरू करवा कर ही घर आई।                                                 साहस भी कम नहीं- ममता के सेवा कार्य से ईसाई मिशनरी भी दुखी हैं। इस बार उनकी सांता क्लॉज की फेरी भी नहीं निकली। कारण इसके लिए भीड़ के लिए इसी बस्ती से बच्चे आते थे। लेकिन देश भक्ति के रंग में रंग जाने के कारण अब बच्चे कहां से आते? प्रेम, शांति और अहिंसा के पुजारी ये मिशनरी गुंडागर्दी पर उत्तर आए। कुछ दिन पहले रात्रि शाखा  के समय डर का वातावरण बनाने के उदेश्य से दादा और गुंडे जैसी शक्लों वाले तीन चार लड़के मोटर साईकल पर खड़े रहते। उन्हें लगता था कि बच्चे और ये महिला डर जायेगी। इसकी कुछ सहेलियाँ डर भी गयी। लेकिन ममता तो किसी और ही मिटटी की बनी है। जब ईसाई मिशनरियों का यह दाव नहीं  चला तो एक दिन दो लड़के सामान बेचने के बहाने घर में घुसने के लिए आ धमके। संयोग से उस समय ममता दरवाजे पर ही खड़ी थी। इसने तुरन्त निर्णय लेते हुए दरवाजा बन्द कर - पड़ोसी के घर जा कर आती हूँ ' कह कर चली गयी। इस प्रकार  उनका यह बार भी उनका बार भी खाली चला गया। ममता की सूझबूझ एवम्  ईश्वर कृपा से बड़ा हादसा टल गया। इतना सब होने पर भी ममता आत्म्विश्वास से पूरी तरह लबरेज है।  समाज सेवा की अपनी धुन में सेवा कार्य में व्यस्त है। सेवा का इसका जनून बढ़ता ही जा रहा है। गरीबों की सेवा के लिए इसने अपनी सहेलियों की संस्था बनाने का संकल्प लिया है।                   समय का आह्वान स्वीकार करें सम्पन्न गृहिणियां-  भारत को अपनी सम्पन्न महिला शक्ति से बहुत उम्मीदें हैं। महिला का दिल नरम व कोमल होता है। आज उसके अंदर की माँ के ममत्व का दायरा बढ़ाने की जरूरत है। इन सम्पन्न, समझदार माताओं के प्यार की ओवर डोज के कारण इनके बच्चे बिगड़ रहे हैं और करोड़ों गरीब बच्चे ममता की छाँव के लिए तरस जाते हैं। अपने एक-दो बच्चों के लिए सारी ममता लुटाने वाली माताएं गरीब बस्तियों के बच्चों को भी अपनी सन्तान  मान लें तो देश का बहुत कुछ परिदृश्य बदल जायेगा। काश! आज सम्पन्न घरों में  राग- रंग में डूबी, सामाजिक सरोकार के प्रति निष्क्रिय व उदासीन,  अनेक शारीरिक व मानसिक बीमारियों को निमन्त्रण देती असंख्य गृहिणियां ममता का अनुकरण करें तो समाज का चित्र बदलते देर नहीं लगेगी। लगभग 116-117 साल पहले स्वामी विवेकानन्द की प्रेरणा से भारत की सेवा का जज्बा दिल में लिए हजारों किलोमीटर दूर आयरलेंड की मार्गरेट नोबुल भारत की सेवा के लिए स्वयं को प्रस्तुत कर देती है। अपना देश, धर्म व संस्कृति छोड़ क्र मार्गरेट नोबुल से भारत भक्त निवेदिता में बदल सकती है। भारत के गरीबों का दुःख उसे सन्यस्त जीवन जीने के लिए बाध्य  कर सेवा के लिए भारत में ला पटक सकता है तो भारत की हमारी बहनें अपने ही गरीब देशवासियों के दुःख के प्रति उदासीन कैसे हो सकती हैं?

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