जो देश शिष्टाचार और जीवन मूल्यों के लिए जाना जाता था आज वहां सब जगह गहरी जड़ें जमाये बैठे भरष्टाचार को देख कर हैरानी होती है। आज स्थिति यहां तक आ गयी है कि आज ये सब जीवन मूल्य हाशिये पर चले गए लगते हैं। इस में सबसे बड़ी चिंता का विषय भरष्टाचार का समाजीकरण अर्थात प्रतिष्ठा प्राप्त होना है। प्रसिद्ध साध्वी ऋतम्भरा का कहना अत्यंत सार्थक लगता है- कुछ दशक पहले जब कोई व्यक्ति किसी को काम के बदले कुछ देने की बात करता था तो उसकी सहज प्रतिक्रिया होती थी- ना, बाबा ना! हम बाल बच्चे दार हूँ , ऐसा पैसा स्वीकार नहीं कर सकता।' और आज स्थिति यह है कि काम के बदले खुल कर मांगता है और समझाने पर कहता है कि क्या करूं आखिर बाल बच्चेदार हूँ, इसलिए मजबूरी है।' आज सबने भ्रष्टाचार को एक आवश्यक बुराई के रूप मे स्वीकार जैसा कर लिया है। भ्र्ष्टाचार को लेकर थोड़ी चीख पुकार दहेज की तरह तभी होती जब व्यक्ति को स्वयं इसका शिकार हो जाता है, उसे स्वयं रिश्वत देनी पड़ती है। लेते समय व्यक्ति अनेक तर्क देकर रिश्वत को न्यायोचित बता कर स्वीकार कर लेता है। इसलिए यह चीख पुकार चाय के कप मे तूफान से अधिक कुछ नहीं होता। आखिर यह सब कैसे हुआ? कौन है इसके लिए जिम्मेवार? कैसे निकल सकते हैं हम इस भयंकर समाजिक अभिशाप से? भरष्टाचार के कारण कितनी जवानियाँ, उनके अरमान सब तबाह हो जाते हैं? इसलिए इस महत्वपूर्ण विषय पर गम्भीर चिंतन-मन्थन कर कुछ कठोर कदम उठाने की आवश्यकता है। आज जब केंद्र मे भरष्टाचार रहित ईमानदार सरकार देने के लिए प्रधानमन्त्री ओर उनकी टीम संकल्पबद्द है, देश का युवा ईमानदार व्यवस्था चाह रहा है ऐसे में लगता है कि सब मिलकर इस भरस्टाचार रूपी राक्षस पर धावा बोलें तो बात बन सकती है। घोर निराशा के वातावरण में एक अच्छी खबर है कि नई सरकार के थोड़े से प्रयास से ही अब नई रेटिंग में भारत में भरष्टाचार में भरी गिरावट आई है। किसी ने ठीक ही कहा है कौन कहता है कि आसमान में छेद नहीं हो सकता एक पत्थर तबीयत से उछालो तो यारो। जड़ कहाँ है भरस्टाचार की- सूर्य, चन्द्रमा, पृथ्वी या प्रकृति कितने भी नियम से चलें तो भी मनुष्य मन की तरह व्यक्ति का स्वभाव नियम में चलने का नहीं है। किसी न किसी प्रकार से कोई न कोई रास्ता निकलने की तिकड़म में व्यक्ति लगा रहता है। भारत में तो आज नियम से, धैर्यपूर्वक काम करवाना तो पिछड़ेपन की निशानी बनता जा रहा है इसके विपरीत जुगाड़ तकनीक से आगे बढ़ने को बहादुरी और स्टेट्स का प्रतीक माना जाने लगा है। यह जीवन शैली ही भरस्टाचार को उतपन्न करती है। इसके अलावा समाज जीवन में पैसे का वर्चस्व भी बड़ा कारण है। सर्वे गुणा: काञ्चनम् आश्रीति... अर्थात जिदे घर दाने उदे कमले भी सयाने। इसलिए देश में धन कमाने की अंधी दौड़ शुरू हो गयी। फिर जीवन मूल्य बेचारे क्या करते? आज समाज जीवन का शायद ही कोई भाग इस गिरावट से बचा हो। कैसे निजात मिले इस बुराई से- हमें धन से ज्यादा गुणों व आचरण को प्रतिष्ठित करना होगा। लोष्ठवत द्रब्येशु... अर्थात दूसरे के धन को मिट्टी समझना चाहिए। इसके अलावा अगर हम धैर्यपूर्वक नियमानुसार अपने काम करवाने के लिए बजिद जो जाएं तो भरस्टाचार रूपी राक्षस का दम घुटने लग जायेगा। हम दूसरें के समय तो नियम कानून की बात करते हैं और अपनी बारी आने पर सब कुछ भूल कर अपना काम करवा लेना चाहता है। हमें भरष्टाचार को आर्थिक से आगे ले जा कर अन्य पहलुओं में भी देखना होगा। वेतन पूरा और काम में चमड़ी बचाना, अपने वचन से पीछे हटना और चारित्रिक अवमूल्यन भी इसी ढंग से देखना चाहिए। जहां तक निजात पाने का विषय है उसमें राष्ट्र का कोई बड़ा लक्ष्य स्थापित करना भी सहायक हो सकता है। लक्ष्य प्रेरित व्यक्ति ओर समाज अपने व्यवहार को स्व नियंत्रित करता है। हमें विश्व गुरु भारत का लक्ष्य प्रत्येक देशवासी में पैदा करना होगा। इस महान लक्ष्य की दीवानगी प्रत्येक नागरिक में पैदा करनी होगी। इसके बाद हमारी अनेक बुराईयां स्वयं ही मिटती और सिर पर पैर रख कर भागती हुई दिखेंगी। और हम एक बार फिर दुनिया में सबसे अच्छे व्यवहार वाले नागरिकों वाला देश बन जाएंगे।
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