बुधवार, 3 जून 2015

शिक्षा और शिक्षक विकास को समर्पित विद्या भारती का आचार्य प्रशिक्षण वर्ग

नर से नारायण बना देने, समय की धारा का मुख मोड़ देने, भगवान से भी पहले पॉन्व छूने के अधिकारी हमारे गुरु अपनी यात्रा में आज शिक्षक, अध्यापक के पड़ाव पार करते हुए शुद्ध वेतनभोगी कर्मचारी या टयूसन में पूरी तरह डूबे प्राणी के रूप में देखे जा सकते हैं। किसी समय  का यह श्रेष्ठ वर्ग कुछ अपवाद छोड़ कर आज सरस्वती के स्थान पर लक्ष्मी की आराधना में जुट गया लगता है। आखिर यह सब क्यों और कैसे हुआ? हमारी इस महान संस्था का यह पतन क्यों और कैसे हुआ? इस विषय पर चिंतन इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि यह गिरावट केवल इस गुरु संस्था की नहीं बल्कि हमारे राष्ट्र के पतन का मूल भी इसी मे छिपा है। इस गम्भीर विषय पर योग्य विद्वान चिंतन कर चुके है आगे भी करेंगे।  लेकिन आज सबसे बड़ी चिंता का विषय है कि हमारी प्राचीन शिक्षा पद्धति को समाप्त कर गुरु को केवल वेतनभोगी कर्मचारी में बदलने का जो काम अंग्रेजों ने किया वह आज भी उसी तरह चल रहा है। वर्तमान परिस्थिती में हमारे अध्यापकों की स्थिति - न खुदा मिला न बिसाले सनम' जैसी हो गयी है। आर्थिक दौड़ में भी हम अध्यापक आज कहीं नहीं दिखते और इज्जत की तो बात ही क्या? यद्यपि सबकी स्थिति ऐसी नहीं, आज भी हमारी श्रेष्ठ गुरु परम्परा की टिमटिमाती ज्योति को कुछ महानुभाव कहीं-कहीं थामे देखे जा सकते हैं।
आचार्य की महान परम्परा- आज से 2072 साल पहले एक आचार्य ने इतिहास की धारा का मुंह मोड़ दिया था। सत्ता के नशे में चूर राजा को न केवल सत्ताच्युत किया बल्कि विदेशी आक्रमणकारी को भी करार जबाब दिया। इसके बाद सैकड़ों वर्षों तक विदेशी हमलावरों को भारत की ओर बुरी नजर से देखने का साहस नहीं हुआ। इतिहास के इस महान नायक और उनके सभी साथियों के नाम हम निश्चित जान ही गए होंगे। इसके साथ ही हमारी गुरु शिष्यों की लम्बी श्रृंखला है। इसमें प्रमुख शिवाजी- समर्थ गुरु रामदास, बन्दा बहादुर- श्री गुरु गोबिंद सिंह और आधुनिक काल के रामकृष्ण परमहंस-स्वामी विवेकानन्द तथा बिरजानन्द - स्वामी दयानन्द आदि गुरु- शिष्य की जोड़ी ने नया इतिहास रच दिया दिया था। हमारे आचार्य अदभुत मिटटी से बने होते थे। इनके तेजस्वी व्यक्तित्व का ही परिणाम था कि दशरथ जैसे महान पराक्रमी राजा नंगे पान्व उन्हें लेने दरवाजे  पर आते थे। कुलपति से मिलने के लिए राजा को प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। हमे देश के उत्थान के लिए अपने आचार्यों का वह तेज वापिस लौटाना होगा। इसके लिए आचार्यों को भी वहुत कुछ करना होगा और समाज को भी। समाज को आचार्य के आर्थिक पक्ष की चिंता करनी होगी। दुनिया के कई देशों की तरह भारत में भी  शिक्षण को सबसे ज्यादा आकर्षक बना होगा ताकि समाज का प्रतिभशाली वर्ग इस क्षेत्र में आगे आए। आज कुछ अपवाद छोड़ कर जिसको कहीं नॉकरी नहीं मिलती वह अध्यापन के क्षेत्र में आ जाता है। शिक्षक जैसा कोई गुण इनमे नहीं दिखाई देता। विद्यालय के तुरन्त बाद प्रॉपर्टी या अन्य व्यवसाय में ये महानुभाव खोये देखे जा सकते हैं। आचार्य वर्ग को अपना स्तर स्वयं ऊँचा उठाना होगा।
आचार्य को प्रतिष्ठत करने मे प्रयासरत विद्या भारती- शिक्षा जगत की उपरोक्त समस्या का वर्णन एक बात है लेकिन प्राचीन गौरव के प्रकाश में समाधान की दिशा में कुछ कर लेना यह अलग विषय है। वर्तमान अध्यापक को आचार्य या गुरु जैसे श्रेष्ठ पद का दायित्व बोध कराने की दिशा में हुए प्रयास भी नगण्य जैसे कहे जा सकते हैं। सन्तोष और प्रसन्नता का विषय है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से प्रेरणा प्राप्त कर नाना जी देशमुख ने  सन् 1952 में एक छोटे से शिशु मन्दिर के रूप में एक चिराग जलाया। वर्तमान में इस संस्थान के द्वारा लगभग 15000  विद्या मंदिर तथा 10000 के आसपास संस्कार केंद्र सफलतापूर्वक चलाये जा रहे हैं। सरकार के बाद सबसे बड़ी स्वयंसेवी संस्था बन गयी है विद्या भारती। भारतीय जीवन मूल्यों के आधार पर आधुनिक एवम् संस्कारप्रद शिक्षा देने के लिए एक बड़ा प्रयास चल रहा है। अध्ययन, अध्यापन  पुस्तक लेखन एवम् शोध के लिए गम्भीर प्रयास चल रहे हैं।
आचार्य प्रशिक्षण वर्ग का अदभुत वातावरण- विद्या भारती शिक्षा एवम् शिक्षकों का स्तर ऊँचा उठाने के लिए प्रतिवर्ष आचार्य प्रशिक्षण वर्गों का आयोजन करती है। पंजाब में सर्वहितकारी शिक्षा समिति द्वारा दस दिवसीय प्रशिक्षण वर्ग का आयोजन नाभा में किया गया। 40 विद्यामन्दिरों से 168 आचार्य दीदियों ने प्रशिक्षण ग्रहण किया। शिविर के उद्घाटन पर कोटकपूरा से  स्वामी 1008 हरि गिरी जी महाराज तथा समापन केंद्रीय विश्वविद्यालय धर्मशाला के कुलपति डॉ. कुलदीप अग्निहोत्री उपस्थित थे। शिक्षा का भारतीय स्वरूप्, आदर्श शिक्षक, शिक्षण की वैज्ञानिक एवम् आधुनिक पद्धतियाँ आदि विषयों  के अतिरिक्त सामाजिक सरोकारों पर भी शिक्षकों का मार्गदर्शन किया गया। इसके साथ प्रात: जागरण से लेकर रात्रि सोने तक अनुशासित दिनचर्या का अभ्यास कराया गया। शिक्षा स आदर्श आचार्य बनने का संकल्प एवम् शिक्षण के अनुरूप कक्षा में अध्यापन के उत्साह के साथ सभी आचार्य-दीदियां अपने घरों को लौटे।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें