रविवार, 30 नवंबर 2014

भारत को संघरूपी कल्पवृक्ष देने वाले अदभुत मनीषी थे डॉ. हेडगेवार

तन समर्पित मन समर्पित और यह जीवन समर्पित चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं- इस श्रेष्ठ और उच्च भाव से प्रेरित था संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार का जीवन। आध्यात्म और देशभक्ति का सुमेल बैठाने वाले डॉ. हेडगेवार ने स्वामी विवेकानन्द की इच्छा - 'थोड़े समय के लिए सब देवी देवताओं को एक और रख कर भारतमाता को अपना आराध्य बनाने के आह्वान' को साकार कर दिया। डॉ. हेडगेवार का बहुआयामी व्यक्तित्व हिमालय से ऊँचा और समुद्र से गहरा है। उनके 51 वर्ष के छोटे लेकिन अत्यंत सक्रिय जीवन वृत्त को एक लेख में समेटना समुद्र को घड़े में समाने की असफल चेष्टा जैसा ही है। इस लेख में उनके प्रेरक जीवन की मात्र एक झलक ही मिल जाये तो काफी है।
ऋषि परम्परा के वाहक डॉ. हेडगेवार-     
                  समाजरुपी कबूतर को बचाने के लिए राजा शिवि की तरह कबूतर के बजन के समान अपना मांस देने तथा वृत्रासुर के आतंक से मुक्त कराने के लिए देवताओं के आग्रह पर बज्रास्त्र बनाने के लिए अपनी हड्डियां देने वाले महर्षि दधीचि की परम्परा के आधुनिक प्रतीक थे डॉ. हेडगेवार। जब देश को स्वंतत्र कराने के लिए युवकों में अंग्रेज की गोली खाने या फांसी चढ़ जाने का वातावरण गर्म था, क्रन्तिकारी अपनी जवानी को राष्ट्रदेव के चरणों में चढ़ाने को ललायत थे, अधिकांश कांग्रेस के नेता जेल जाने को ही देश भक्ति मानते थे। ऐसे समय में इस महापुरुष ने सिंहनाद किया कि अवश्यकता पड़ने पर देश के लिए मर मिटना, जेल जाना जरूरी है लेकिन उससे भी बड़ी देशसेवा देश के लिए जीना और जेल से बाहर रह कर अंग्रेज के विरुद्ध समाज को लामबंद करना है। उन्होंने अपनी सोच और व्यवहार में राष्ट्र को वरीयता देने वाले संस्कारित युवकों को तैयार कर उन्हें संगठन की माला में पिरो देने का असंभव कार्य करके दिखा दिया। असंभव इसलिए क्योंकि उस समय जब डॉ. हेडगेवार ने हिन्दू संगठन को अपना जीवन कार्य बनाया उस समय सामान्य धारणा थी कि चार हिन्दू कभी एक साथ, एक दिशा में नहीं चल सकते जब तक पांचवां उनके कन्धे पर न हो। इसी समय 1909 में बंगाल के यू. एन. मुखर्जी ने हिन्दू जाति के लिए डाईंग रेस का सिद्धान्त प्रतिपादित किया था। ऐसे विपरीत समय में जब डॉ. हेडगेवार ने हिन्दू संगठन की घोषणा की तो सब हैरान रह गए। डॉ. हेडगेवार की कार्यशैली और स्वयं को प्रचार- प्रसिद्धि से दूर रखने की प्रकृति का ही परिणाम है कि आज संघ की चर्चा सर्वदूर है लेकिन संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार को बहुत कम लोग जानते हैं। आने वाली पीढियां डॉ. हेडगेवार को एक कुशल संगठक, मौलिक चिंतक और शून्य से सृष्टि रचने वाले अद्भुत जीवट के धनी तथा भारत को हिन्दू संगठनरूपी कल्पवृक्ष की भेंट देने वाले मनीषी के रूप में जानेंगीं। संघ को समझने के लिए डॉ. हेडगेवार के जीवन को समझना अत्यंत आवशयक है। आईये! उस महा पुरुष के जीवन और दर्शन को समझने का प्रयास करें।
जन्मजात देशभक्त थे डॉ. हेडगेवार-
               अप्रैल एक 1889, हिन्दू नववर्ष अर्थात वर्ष प्रतिपदा के ऐतिहासिक दिन पर एक अत्यंत सामान्य कर्मकांडी ब्राह्मण पिता बलिराम हेडगेवार तथा माता रेवती की कोख से बालक केशव ने जन्म लिया। तीन भाई तथा चार बहनों का बड़ा परिवार भयंकर गरीबी से जूझ रहा था। आय का मात्र माध्यम पुरोहित्य कर्म था। सरस्वती की आराधना के सिवाए और कोई भी कार्य घर में नहीं होता था। बालक केशव बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि, स्वाभिमानी तथा जिद्दी था। जिस उम्र में बच्चे मिठाई के लड़ते है, जिद्द करते हैं उसी उम्र में बालक केशव ने महारानी विक्टोरिया के राज्यारोहण के 60 साल पूरे होने पर 22 जून 1897 को स्कूल में बांटी जाने वाले लड्डू को कूड़े के ढेर में फैंक दिया। एडवर्ड सप्तम के राज्यारोहण पर आतिशबाजी देखने नहीं गए। सनकी अंग्रेज मजिस्ट्रेट को सलाम करने से यह कह कर मना कर दिया कि इज्जत मांगी नहीं अर्जित की जाती है।' Respect is commanded not demanded.
स्वंतन्त्रता सेनानी डॉ साहिब-
बालक केशव ने दशवीं कक्षा में 1907 में नील सिटी हाई स्कूल में वन्देमातरम का जय घोष कर सबसे पहले अंग्रेज सत्ता को सार्बजनिक चुनोति दी। आगे मेडिकल की पढ़ाई के लिए कलकत्ता का च्ययन भी विचारित था। कलकत्ता उन दिनों क्रांतिकारियों की काशी माना जाता था। कलकत्ता के ये साल आज के युवा के लिए अत्यंत प्रेरक हैं। केशव का आर्थिक कठिनाई के चलते दोस्तों के साथ कमरे में रहना, रात को सो जाने पर उनकी किताबें पढ़ना, क्रांतिकारियों के कार्य को आगे बढ़ाना तथा कालेज एवं समाज सेवा की अनेक गतिविधियों में पूरी सक्रियता लेकिन इससे भी बड़ी बात ये सब करते हुए पढ़ाई में आगे रहना बड़ी विशेषता दिखती है। केशव के ऊँचे ठहाकों में गरीबी का दर्द बेचारा नजरें छुपाता फिरता था। केशव की जोश में होश बनाये रखना, साहस व् सूझबूझ तथा पैनी दृष्टि साथियों को हैरान कर देती थी। अंग्रेज पुलिस के सीआईडी के लोगों की सीआईडी केशव करता था। मुहल्ले में विद्यार्थियों के कमरे पर पड़ने वाले पत्थरों को इन्होंने अपनी विशेष शैली से रोक लिया। इन्होंने मुहल्ले वालों को कहा कि अगर हमारे कमरे में पत्थर आने नहीं रुके तो सड़क पर जो भी व्यक्ति मिलेगा मैं उसकी पिटाई करूँगा। आश्चर्य कि अगले दिन से पत्थर पड़ने बन्द हो गए। कालेज के अंतिम दिनों में प्रिंसिपल के ब्रह्म देश में आकर्षक नोकरी के प्रस्ताव को यह कह कर विनम्रतापूर्वक ठुकरा देना कि जब तक मेरा देश गुलाम है मैं अपने लिए कोई भी काम नहीं करूँगा वास्तव में उनकी देश के प्रति श्रद्धा और समर्पण की भावना को दर्शाता है। देश की आजादी के प्रत्येक कार्य में डॉ. साहिब आगे रहते थे। वे कांग्रेस और क्रांतिकारियों में प्रथम विश्व युद्ध के समय 1857 एक बार फिर दोहराने के लिए इन्होंने पूरे देश में शस्त्रों का जाल बिछा दिया। लेकिन इनकी पारखी नजरों ने कमजोर कड़ियों को तुरन्त भांप लिया और बिना देर किए निष्काम कर्मयोगी की तरह उसी उत्साह, परिश्रम और सावधानी से किसी को कानों कान खबर लगे बगैर सब कुछ समेट भी लिया। यद्यपि डॉ साहिब तिलक के अनुयायी होने के कारण गर्म दलीय थे तो भी कांग्रेस तथा क्रांतिकारियों में डॉ. साहिब समान रूप से सम्मान प्राप्त थे। कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति से पूरी तरह असहमत होते हुए भी कांग्रेस के आह्वान पर असहयोग आंदोलन और जंगल सत्याग्रह में दो बार जेल यात्रा कर चुके थे। डॉ. साहिब 1920 में लोकमान्य तिलक के देहांत से उत्प्न रिक्तता की पूर्ति के लिए कांग्रेस का नेतृत्व करने के लिए दुनिया से विरक्ति ले चुके महृषि अरविन्द को मनाने पांडिचेरी गए।
चिंतक हेडगेवार
    डॉ केशव अपनी डाक्टरी की पढ़ाई पूरी कर 1914 में नागपुर आ गए। नागपुर आते ही समाज जागरण के अनेक कार्यों में डट गए। नोकरी, व्यवसाय और शादी के सभी प्रस्तावों को स्पष्टरूप से नकार दिया। दिन रात एक ही धुन अर्थात देश की आजादी। सब कुछ करते हुए समाज की नब्ज टटोलने का भी प्रयास करते रहे। महान संस्कृति, इतिहास और महापुरुषों की अखण्ड श्रृंखला वाला यह देश आखिर बार बार गुलाम क्यों हो जाता है? गहन अध्ययन, चिंतन और प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर समाज संगठन का अभाव, सर्व सामान्य जन में देशभक्ति की कमी इस सारी दुरावस्था के लिए बड़े कारण ध्यान में आए। और उस समय के बड़े नेताओं महात्मा गांधी, नेताजी सुभाष वीर सावरकर आदि सबसे चर्चा कर अपना सारा जीवन समाज के संगठन के लिए समर्पित करने का निर्णय लिया।
साहसी डॉ. हेडगेवार
देशभक्ति के साथ निडरता इनके रक्त में ही समायी थी। खतरों से खेलने में तो इन्हें जैसे आनन्द ही आता हो। एक बार डॉ. साहिब गाड़ी में कहीं जा रहे थे। गाड़ी में पैर तक रखने की जगह नहीं थी। एक डिब्बा जो अंग्रेजों के लिए आरक्षित था एकदम खाली था। डॉ. साहिब से यह अन्याय शन नहीं हुआ। उन्होंने जैसे कैसे अंदर जा कर उसके दरबाजे खोल कर जनता को ऊंचीं आवाज में अंदर आने को कहा। देखते ही देखते सारा डिब्बा भर गया। अंग्रेज निरीक्षक गुस्से से उबल पड़ा और जोर से लोगों को बाहर जाने के लिए कहा। उसने बाहर न जाने पर डंडे से पीटने की धमकी दी। लोग घबरा कर बाहर जाने लगे तो डॉ. साहिब ने और भी ऊँची आवाज में कहा कि अगर कोई भी बाहर गया तो उसे मैं पिटूँगा। सब शांत हो कर बैठ गए। डिब्बा खाली करने में असफल रहा अंग्रेज इंस्पेक्टर पैर पटकता हुआ चला गया। इसी प्रकार कालेज के दिनों में इसी साहस व् सूझबूझ से मुहल्ले के शरारती लोगों द्वारा इनके कमरे में फैंके जाने वाले पत्थर रुकवाये थे। 
संगठक हेडगेवार
डॉ. साहिब की सङ्गठन कुशलता अदभुत थी। ये स्वयं 'क्रिया सिद्धि सत्त्वे भवति महतां नो उपकरणे' अर्थात महान लोग साधनों के बिना केवल अपने सत्व के बल पर लक्ष्य प्राप्त कर लेते हैं की साक्षात् मूर्ति थे। खुले मैदान में कुछ बच्चों व्  युवकों को खेल, गीत आदि साधारण से कार्यक्रमों के द्वारा विश्व का सबसे बड़ा सन्गठन खड़ा कर लेना किसी चमत्कार से कम नहीं है। और सन्गठन भी ऐसा जहां व्यक्ति लेने के नहीं बल्कि देने के लिए स्वयं को प्रस्तुत करता है। अपनी जयजयकार नहीं बल्कि देश की जय जयकार की इच्छा रखता है। आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने देश के लिए कल्पवृक्ष की तरह बन गया है। देशप्रेमियों की उम्मीदों तथा देशविरोधियों के लिए भय का केंद्र है यह संगठन। आने वाली पीढियां डॉ. हेडगेवार को कुशल सन्गठन करता के रूप में जानेंगी।

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