आखिर ऐसा क्या कह दिया राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने कि अल्पसंख्यकों के इन कथित हितैषियों ने आसमान सिर पर उठा लिया? लोकसभा और राज्यसभा में सारा कार्य रोक कर हंगामा बरपा रहे हैं। क्या ये दल वोटर्स को भीष्म पितामह की तरह अपनी मृत्यु का राज ही नही बल्कि एक प्रकार से प्रेरणा भी दे रहे हैं कि लोकसभा के बाद राज्यसभा में भी हमे पूरी तरह निष्प्रभावी बना दिया जाये क्योंकि दुर्योधन की तरह कुर्सी के उपासक हम वोट राजनीति से बाहर निकल कर देशहित में सोच ही नहीं सकते! यह सब हमारे डीएनए में है ही नही। क्या आप राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को जानते हो? ऐसे लोग जिनकी आँखों में केवल और केवल विश्व गुरु भारत का स्वप्न तैरता हो, जो लोग इस भव्य स्वप्न को प्राप्त करने के लिए अपनी जवानी राष्ट्रदेव के चरणों में समर्पित कर रहे हों क्या उनको देशभक्ति का पाठ कदम पर सत्ता के लिए देशहित का सौदा करने वालों से सीखना होगा? क्या आप जानते हैं कि आज के इस भौतिकवाद के युग में भी हजारों सुशिक्षित युवा अपने कैरियर व् परिवार की चिंता किये बगैर अपना पूरा जीवन सन्यासी की तरह भारतमाता की सेवा को समर्पित कर रहे हैं? इनके आलावा लाखों कार्यकर्ता घर गृहस्थी की सारी जिमेदरियों के साथ साथ समाज सेवा को समर्पित हैं। और इससे भी बड़ी बात की यह सब कुछ पाने की इच्छा से नहीं बल्कि -
तन समर्पित, मन समर्पित और यह जीवन समर्पित।
चाहता हूँ देश की धरती, तुझे कुछ और भी दूं।।
के श्रेष्ठ भाव से 80 से अघिक वर्षो से
मौन साधना चल रही है। महात्मा गांधी, वीर सावरकर, नेता जी सुभाष, डॉ. आंबेडकर , पूर्व राष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन तथा लोकनायक जय प्रकाश नारायण संघ की खुले मन से प्रशन्सा कर चुके हैं। इतना ही नहीं तो धर्मनिरपेक्षता के आदिपुरुष स्वयं पण्डित जवाहर लाल नेहरू 1962 में भारत चीन युद्ध में संघ स्वयंसेवकों की भूमिका से अभिभूत हो कर 1963 की गणतन्त्र परेड में 3000 से अधिक स्वयंसेवकों को शामिल कर चुके हैं।
धर्मान्तरण को लेकर इतिहास के सबक भी याद रखने होंगे-
भारत में हजारों वर्षों से हिंदुओं को निर्बाध रूप से ईसाई और मुसलमान बनाया जा रहा है। देखते देखते गंधारी का मायका धर्मान्तरित होते ही अफगानिस्तान के रूप में अलग देश बन गया। धर्मान्तरित होते ही पाणिनि और गुरु नानक का जन्मस्थान पाकिस्तान बन गया। इसी प्रकार देखते ही देखते सारा पूर्वोत्तर ईसाई बन गया। विचार करने का विषय है कि आखिर धर्म बदलने मात्र से अलग देश क्यों बन जाते हैं? अधिकांश ईसाई या मुसलमान देशभक्त होते हुए भी देश के जिस भूभाग में ईसाई या मुसलमान बहुसंख्यक हो जाते हैं वहीं से देशविरुद्ध आवाजें उठनी क्यों शुरू हो जाती हैं? क्या अफगानिस्थान, पाक और बंगलादेश मुस्लिम धर्मान्तरण का ही परिणाम नहीं है? क्या हजारों वर्षों से गरीब और असहाय हिंदुओं का धर्मान्तरण डर, लालच और कई प्रकार के अवैध हथकण्डे अपना कर नहीं किया जाता रहा है? क्या पंजाब में हकीकत और गुरु पुत्रों का बलिदान बलात धर्मपरिवर्तन के ही विरुद्ध नहीं था? क्या केरल और देश के कई भागों में बलात् ईसाई बनाने के लिए हिन्दुओं पर हुए अत्याचार देश को फिर याद करने होंगे? क्या आजादी के बाद मध्यप्रदेश की कांग्रेस सरकार की और से गठित नियोगी कमीशन की रिपोर्ट्स को पढ़ने से ईसाई मिशनरियों की नीति और नियत स्पष्ट नही हो जातीहै? क्या ईसाइयत और इस्लाम को विदेशी शक्तियों ने अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए हथियार के रूप में प्रयोग नहीं किया है? क्या हमें उस अफ़्रीकी नेता की वह दर्द भरी दास्ताँ याद नहीं रखनी चाहिए जिसमे वो कहते हैं- हमारे देश में पादरी आया । उस समय उसके हाथ में बाईबल थी और हमारे पास जमीन! उसने हमें आँख बन्द कर प्रार्थना करने को कहा। लेकिन जब हमने ऑंखें खोली तो देखा हमारी जमीन उसके पास थी और हमारे हाथ में थी मात्र बाईबल! देश को देर सवेर इन चुभते हुए सवालों से दो चार होना ही पड़ेगा। आखिर कब तक राष्ट्रीय महत्व के प्रश्नों से नजर चुराएंगे हम? बिल्ली को देख कर कबूतर की तरह कब तक ऑंखें बन्द रखेंगे हम? बात केवल पूजा पद्धति की हो तो इस देश में यह कभी हमारे लिए बड़ा मुद्दा नहीं रहा। हमने स्वयं मस्जिदें और गिरजाघर बना कर दिए हैं। यहूदियों ने सारे विश्व के सामने इस तथ्य को स्वीकार भी किया है। इस मामले में हमारी दरियादिली जगत प्रसिद्ध है। लेकिन हिन्दू समाज की युवा पीढ़ी अब प्रश्न पूछ रही है कि हमारी दरिया दिली का हमे क्या सिला मिला? अपनी प्रिय मातृभूमि का विभाजन , कदम पर अपमान और क्या?
धर्मान्तरण का शिकार हिन्दू तो सब मौन-
देश में धर्मान्तरण का सिलसिला हजारों वर्षों से निरन्तरं चलता आ रहा है। आजादी के बाद भी यह अनवरत चलता रहा लेकिन सब राजनेता शांत थे, इन सब को कहीं कोई परेशानी नहीं थी। इनकी रहस्यमयी चुप्पी का कारण बिलकुल साफ है - अभी तक शिकार केवल हिन्दू समाज था जो कि जाति वर्ग में बंटा था और धर्मान्तरण के लिए दोषी ईसाई और मुस्लिम शक्तियां थी। अब राजनैतिक गलियारों में अचानक हाय-तौबा क्यों मच गयी है? क्या केवल इसलिए कि अब हिन्दू समाज भी अपने रक्त बन्धुओं को वपिस हिन्दू धर्म में लाने के लिए कमर कस रहा है? अगर यह सत्य भी है तो इसमें गलत क्या है? आज हिन्दू समाज में आत्म्विश्वास लौटा है, उसने भी हिम्मत से अपने ईसाई या मुसलमान बने रक्त बंधुओं को घर वापिस लाने के लिए हिम्मत और स्नेह का हाथ बढ़ाया है? उसके लिए हिन्दू समाज अब कुछ छूटपुट प्रयास भी कर रहा है। हिन्दू समाज की यह अंगड़ाई ही इन अल्पसंख्यकों के कथित हितैषियों से सहन नहीं हो रही है। हिन्दू समाज हैरान है। वह समझ। इसके लिए हायतौबा नहीं बल्कि ख़ुशी का इजहार होना चाहिए था कि कुम्भकर्ण की निद्रा में सोन वालेह समाज आखिर। जगा तो सही! इतिहास की गलतियों को ठीक करने के लिए हिंदू समाज खड़े होना तो शुभ संकेत है। लेकिन हिन्दू
समाज के ही इन सपूतों? के इस व्यवहार के चलते समाज में बेचैनी है। यह तो ठीक ऐसा ही है कि
हमें तो अपनों ने मारा है गैरों में कहां दम था?
अपनी डूबी वहीं किश्ती जहां पानी कम था।। लेकिन अब हिन्दू समाज संगठित है, जागरूक है अब इन सपूतों? की नहीं चलने देगा। हिन्दू समाज ने अभी तो अंगड़ाई मात्र ली है। अभी तो। सैकड़ों हजारों की ही घर वापसी हुई है। करोड़ों अपने घर वापिस आने को उतावले बैठे हैं। आखिर आप उन्हें निराश कैसे कर सकते हैं? अभी से यह हंगामा क्यों वरप रहा है? आखिर हम किसी की कोई सम्पत्ति तो नहीं चुरा रहे हैं । हम तो अपनी चुराई सम्पत्ति को बरामद मात्र कर रहे हैं। यह तो ऐसा ही है-
वो कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होती
हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम।
चाय के प्याले में तूफान है यह राजनैतिक शोर
पिछले कुछ समय से धर्मान्तरण को लेकर उठा विवाद चाय के प्याले में उठे तूफान जैसा ही लगता है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण केंद्र सरकार द्वारा धर्मान्तरण को लेकर सख्त कानून बनाने की बात करते ही इस मुद्दे पर आसमान सिर पर उठा लेने वाला विपक्ष सिर पर पैर रख कर भाग लिया। इससे ही इस विषय पर विपक्ष की गम्भीरता समझी जा सकती है। विपक्ष का शोर-शराबा ईसाई मुसलमानों से हमदर्दी से ज्यादा लोगों का ध्यान सरकार के विकास के एजेंडे से हटाना ही लग रहा है। पर अक्ल के दुश्मन अल्पसंख्यक वोटों के रसिया ये लगभग सारे राजनैतिक दल कुछ भी समझने को तैयार नहीं लगते। पहले लोकसभा चुनाव और अब एक के बाद एक राज्यों के लोग चुनाव में इन्हें नकार कर अल्पसंख्यक विरोधी बताये जाने वाले श्री नरेंद्र मोदी को सत्ता की चाबियाँ सौंपते जा रहे हैं। यही इन सब दलों के नेताओं की बेचैनी का बड़ा कारण है। दर्द बढ़ रहा, बेचैनी सहन शक्ति से बाहर होती जा रही है बस अगर कुछ नहीं हो रहा है तो इन नेताओं की समझ का ताला नहीं खुल रहा है। अभी तक इन दलों ने अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों का डर दिखा कर वोट ही ऐंठे हैं। इन्हें शिक्षा, सड़क और स्वास्थ्य आदि मुलभुत सुविधाओं से बंचित रख कर केवल इनकी कट्टरता का ही पोषण किया है। अब इन दलों की काठ की हांड़ी दोबारा चढ़ती नहीं दिख रही है। क्या अल्पसंख्यक अब भी इतने भोले हैं कि ये लोग इन दलों की मंशा को न समझें? अल्पसंख्यकों को अब और मुर्ख नहीं बनाया जा सकता। शायद यही कारण है कि इस मुद्दे पर सारी चीख- पुखार केवल इन दलों की ही है कुछ अपवाद छोड़ दिए जाएँ तो अल्संख्यकों को इस मुद्दे से कोई ज्यादा लेन-देन नहीं दिख रहा है।
सरकार और समाज को सुरक्षात्मक होने की आवशयकता नही-
जबरदस्ती धर्म परिवर्तन इस देश की प्रकृति के विरुद्ध है। इस मिटटी में उपजे किसी भी सम्प्रदाय में इसे सही नहीं ठहराया गया है। लेकिन जो लोग दस साल पचास साल या इससे भी पहले अपना धर्म छोड़ कर चले गए थे उन्हें वापिस लाने के प्रयास कतई बन्द नहीं होने चाहिए। यद्यपि यह सब भी परस्पर सहमति और सोहार्द में ही होना चाहिए। हालाँकि यह भी सर्वसिद्ध सत्य है कि 99 प्रतिशत से ज्यादा हिन्दू लालच और भय से ही ईसाई और मुसलमान बनाये गए हैं। यह सब जानते हुए भी समाज में परस्पर स्नेह, विश्वास और सौहार्द बनाये रखने के लिए हिन्दू संगठन जोर जबरदस्ती का कभी सहारा नहीं लेते हैं। सरकार को इन राजनैतिक दलों की दादागिरी के आगे बिलकुल नहीं झुकना चाहिए बल्कि लोकतन्त्र की स्वस्थ परम्परा के अनुसार इस मुद्दे को जनता के बीच ले जाना चाहिए। केंद्र सरकार को भी याद रखना होगा कि विकास के साथ साथ देश ने और बहुत सारे जख्म ठीक करने के उदेश्य से श्री मोदी को दिल्ली भेजा है। हिन्दू सङ्गठनों को भी धैर्य और सावधानी का सहारा लेने की आवशयकता है। अपने सामाजिक और राजनैतिक नेतृत्व पर विश्वास रखना होगा। मौन साधना के इस पथ में शोर-शराबा तो वैसे ही शोभा नहीं देता।
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