शनिवार, 27 सितंबर 2014

युवा आदर्श शहीद भगत सिंह

हजारों साल कुदरत अपनी बेनूरी पर रोती है।
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।। यह कहावत दुनिया के बाकी देशों के लिए ठीक बैठती होगी। लेकिन हमारी प्रिय भारत भूमि को यह वरदान प्राप्त है कि समय- समय पर एक से बढ़ कर एक महापुरुषों ने यहाँ जन्म लिया। यही कारण हैं कि जितनी दुनिया के देशों की कुल आयु नहीं है उससे कहीं अधिक कालखंड हमारा विदेशी हमलावरों से दो-दो हाथ करने का कालखंड है। लगभग एक हजार साल तक इस्लामिक हमलावरों से कड़े संघर्ष के बाद हमारे जुझारू पुर्बजों ने देश को मुक्त कराया ही था, अभी ठीक से साँस भी नहीं ले पाए थे कि दुनिया का सबसे शक्तिशाली, धूर्त अंग्रेज आ टपका। थोड़ी देर भले ही हमे अंग्रेज को समझने में लग गयी लेकिन हमने फिर से नये जोश के साथ जिसके राज्य में सूर्य अस्त नहीं होता था उस अंहकारी और शक्तिशाली ब्रिटिश सत्ता को भी घुटने टेकने को बिवश कर दिया। भारत का स्वंतत्रता संग्राम अद्भुत है। हमारे एक-एक वीर सपूत की संघर्ष गाथा रोंगटे खड़े कर देने वाली है। शहीद भगत सिंह राम प्रसाद विस्मिल, लाला हरदयाल, अरविन्द घोष व्  वीर सावरकर की परम्परा में थे जो केवल बंदूक की भाषा के लिए ही बल्कि अपने गम्भीर चिन्तन व् लेखन के लिए भी जाने जाते हैं। आईये! अपने साहस, शौर्य और सूझबूुझ के चलते सम्पूर्ण ब्रिटिश सम्राज्य को हिला देने वाले शहीद भगत सिंह के जीवन के कुछ प्रमुख प्रेरक प्रसंग उनके जन्मदिवस पर याद करने का प्रयास करें।
देशभक्ति और सांस्कृतिक पारिवारिक पृष्ठभूमि- लायलपुर जिले (पाकिस्तान)  में चक बंगा नाम के गाँव में सरदार किशन सिंह व् विद्यावती के घर सितम्बर 28, 1907 को भगत सिंह का जन्म हुआ। ये परिवार में तीसरे पुत्र थे। उनके जन्म के समय ही पिता किशन सिंह और चाचा अजित सिंह जेल से रिहा किये गये थे। जन्म के साथ ही अपने परिवार के लिए खुशी लाने के कारण उन्हें भागों वाला भी कहा जाता था। सम्पूर्ण परिवार ही पूरी तरह देशभक्ति के रंग में रंगा था। चाचा स्वर्ण जीत सिंह को अंग्रेजों के विरुद्ध जलूस निकालने के कारण डेढ़ साल की कैद हुई थी। जेल में ही उन्हें तपेदिक रोग हो जाने से उनकी मृत्यु हो गयी।  इनके दादा अर्जुन सिंह पक्के आर्य समाजी थे। परिवार पर आर्य समाज के प्रभाव के कारण घर में हवन आदि आम होते रहते थे। यहाँ क्रन्तिकारी यशपाल का संस्मरण प्रासंगिक है- सरदार किशन सिंह ने बीमे की एजेंसी ले रखी थी। उसके दफ्तर में अक्सर युवक आ कर बैठा करते थे। एक दिन यशपाल मेज पर बैठ कर कुछ लिख रहे थे। मेज के नीचे टीन की कोई वस्तु थी। अनजाने में उनके पैर उससे टकरा रहे थे। तभी एक बजुर्ग वहां आए और कुर्सी पर बैठ गये। यशपाल उनके आने से बेखबर, लिख़ने में व्यस्त टीन की वस्तु से पैर टकराये जा रहे थे।   सहसा गालिओं की जोरदार बरसात से यशपाल का ध्यान गलती की ओर गया। वास्तव मेज के नीचे टीन की वस्तु हवन कुंड था।
संस्कृत से प्यार-
भगत सिंह की ख्याति एक अच्छे विद्यार्थी की थी। डी ए वी स्कुल लाहौर में पढ़ते समय अपने परीक्षा परिणामों के सम्बद्ध में दादा जी को पत्र लिखा। ॐ से प्रारम्भ करके वो लिखते हैं कि संस्कृत में मेरे 150 से 110 अंक आये हैं। अंग्रेजी में 150 में से 68 अंक आए हैं"।
स्वाधीनता रक्त बहाए बिना नहीं मिलेगी-
जलियांवाला बाग नरसंहार से क्षुब्ध किशोर भगत सिंह ने अंग्रेजों को भारत से उठा बहार फैंकने का संकल्प ले लिया था। गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन में सारा देश उदेलित हो रहा था। भगत सिंह ने आन्दोलन में भाग लेने के लिए 9 वीं कक्षा में स्कूल छोड़ दिया। वे जलूस निकालते और विदेशी वस्तुओं की होली जलाते। अभी वो कुछ अधिक कर पाते कि चौरा-चोरी घटना के कारण गाँधी जी ने आन्दोलन वापिस ले लिया। भगत सिंह के किशोर मन में इसकी तीव्र प्रतिक्रिया हुई। उनको लगा कि गाँधी जी के लिए स्वाधीनता से ज्यादा महत्व अहिंसा का है। कुछ सिपाही उतेजित जनता के हाथों मर गये तो क्या भारत की आजादी का आन्दोलन बंद कर देना चाहिए? इतने विराट देश की मुक्ति के लिए क्या रक्तपात नहीं होगा? भगत सिंह के मन में देश की आजादी के लिए किसी भी कीमत पर चाहे वह अहिंसा ही क्यूँ न हो अंग्रेजों को देश से बाहर निकालने का संकल्प और दृढ हो गया।
क्रन्तिकारी-कठोर जीवन के व्रती-
जिनके कारनामों से अंग्रेज सरकार भी कांपती  थी, उनके पास खाने को रोटी तक नहीं होती थी। क्रन्तिकारी भगवान दास महौर ने लिखा है- सवेरे आजाद ने खाने के लिए कुछ रोटियां और गुड मंगवाया। आजाद केवल गुड और रोटियां खाएं यह बात भगत सिंह को चुभ रही थी। अतएव उन्होंने गुड में से एक डली उठा ली और हमें भी एक एक डली उठाने का इशारा किया। आजाद ने कहा - देखो! परेशान मत करो और भी बहुत काम करने हैं। मैं जो कुछ खाता हूँ जैसे खाता हूँ मुझे खाने दो। भगत सिंह नहीं माने। आजाद ने झुंझला कर सारा गुड फैंक दिया। साथियों ने मुश्किल से मनाया। आजाद फिर से खाने बैठ गये। भगत सिंह ने मुस्कराते हुए कहा कि अगर जिद ही है तो गुड धो तो लो जनाब! गुड धोया गया और आजाद सबके साथ रोटियां खाने बैठ गये।
साहिब, मेम और नौकर-
अंग्रेज अफसर सांडर्स को मार कर भागना कोई आसन काम नहीं था। भगत सिंह को लाहौर से निकालने के लिए एक अभिनव योजना बनाई गयी। भगत सिंह सिख थे। अंग्रेज पुलिस रेलवे स्टेसन पर सिख युवक की तलाश में थी। सब तरफ कड़ा पहरा था। इतने में हैट लगाये अंग्रेज अफसर, कंधे पर छोटा बालक और एक सुंदर मेम आए। उनके पीछे बिस्तर उठाये एक नौकर भी था। वे प्रथम श्रेणी के रिजर्व सीट से कलकत्ता जा रहे थे। कौन थे ये साहिब? साहिब थे अपने भगत सिंह, नौकर राजगुरु और मेम दुर्गा भाभी! सारी सुरक्षा व्यवस्था को चकमा देकर ये सुरक्षित कलकत्ता पहुँच गये। अपने को चतुर समझने वाली ब्रिटिश सत्ता हाथ मलते रह गयी।
बम कैसे बनाया जाता है?
भगत सिंह अदालत में सजग और चौकन्ने थे। सरकार ने सरकारी गवाहों को क्रांतिकारियों का रह्श्य जान कर उन्हें अराजक तत्व सिद्ध करने के लिए तैयार किया था। भगत सिंह और उनके साथियों ने इस प्रकार जिरह की कि जनता उनका असली स्वरूप जान सके। इसके साथ ही नये क्रांतिकारियों को तैयार करना भी उनका लक्ष्य रहता था। सरकारी गवाह बने फणीन्द्र नाथ घोष गवाही देंने आए तो क्रन्तिकारी शिव वर्मा ने पूछा कि अगर तुम सच में हमारे साथ मिल कर बम बनाते थे तो बताओ बम कैसे बनाया जाता था? इस प्रकार उन्हें बिबश कर दिया कि बम बनाने की पूरी बिधि बताएं। यह सारी रिपोर्ट अख़बार में छपी और सारा देश जन गया कि बम कैसे बनाया जाता है।
अदालत में भी मस्ती
अदालत में दोपहर के खाने के समय क्रांतिकारियों से मिलने की अनुमति थी। श्रीमती सुभद्रा जोशी अपने संस्मरणों में लिखती है- उस समय खाने पीने का सामान देने पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था परन्तु नियम था कि सारा सामान वहीँ खाना होता था। मैं प्रतिदिन एक दो चीजें ले जाती थी जो जेल में नहीं मिलती थी और जिन्हें सरदार भगत सिंह और उनके साथी बहुत पसंद करते थे। दहीं-बड़े सब बहुत पसंद करते थे। भगत सिंह केक बहुत चाव से खाते थे। एकदिन उन्होंने मुझे केक खिलाने की बहुत कोशिश की लेकिन उसमे अंडा होने के कारण मैं नहीं खा सकी। दोपहर के खाने का यह डेढ़ दो घंटे का समय हंसी और दिल्लगी में बीत जाता था। मृत्यु जिनके सर पर मंडरा रही हो उन नो जवानों की जिन्दा दिली देखते ही बनती थी।
बेबे तू रोना नही-
मार्च 3 1931 को भगत सिंह अंतिम बार अपने परिवार से मिले। माता-पिता, दादा जी, चाची जी और भाई सभी तो थे सामने। पर सबसे आकुल व् अधीर थे सदा अर्जुन सिंह। उन्होंने ही तो इस कुल में क्रांति की ज्योति जलाई थी। वे भगत सिंह के पास गये कुछ कहना चाहा लेकिन कह न सके। लेकिन भगत सिंह एकदम सामान्य हो कर हंस हंस कर सबसे बातें कर रहे थे। अपनी माता जी से बोले- बेबे जी, दादा जी अब ज्यादा दिन जियेंगे नहीं। आप इनके पास ही रहना। यह भी कहा कि लाश लेने आप मत आना। कुलवीर को भेज देना। कहीं आप रो पड़ीं तो लोग कहेंगे की भगत सिंह की माँ रो रही है।
हम तो सफर करते हैं-
भगत सिंह ने अंतिम बार अपनी कोठरी की ओर निहारा। तभी आ गये दोनो जीवन साथी राजगुरु और सुखदेव। तीनों की दृष्टि मिली,तीनों गले मिले। भगत सिंह ने गाना शुरू किया - दिल से न निकलेगी वतन की उल्फत, मेरी मिटटी से खुशबुए वतन आयेगी। फांसी तलघर के समीप  गोरा डिप्टी कमिश्नर खड़ा था इन आजादी के दीवानों की दीवानगी देख कर परेशान था। भगत सिंह उससे बड़े स्नेह से अंग्रेजी में बोले- ' well Mr Magistrate you arw fortunate to see how Indian revolutionaries can embras death with pleasure for the sake of their suprem ideal.
भगत सिंह के जीवन के सैकड़ों प्रेरणादायक प्रसंग हैं जो आज के युवा को उद्येलित कर सकते हैं। आवश्यकता है इन भारत माता के वीर सपूतों का जीवन नई पीढ़ी के सामने लाया जाये। नशे और राग रंग में रंगी पंजाब की जवानी को अपने देशभक्त क्रांतिकारियों का जीवन दिशा दे सकता है। 

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