सोमवार, 15 दिसंबर 2014

धर्मान्तरण बन्द हो लेकिन घर वापिसी पर बेबजह की हाय तौबा क्यों! बहुसंख्यक समाज की भावनाओं का सम्मान करना सीखें राजनेता!

आखिर ऐसा क्या कह दिया राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत ने कि अल्पसंख्यकों के इन कथित हितैषियों ने आसमान सिर पर उठा लिया? लोकसभा और राज्यसभा में सारा कार्य रोक कर हंगामा बरपा रहे हैं। क्या ये दल वोटर्स को भीष्म पितामह की तरह अपनी मृत्यु का राज ही नही बल्कि एक प्रकार से प्रेरणा भी दे रहे हैं कि लोकसभा के बाद राज्यसभा में भी हमे पूरी तरह निष्प्रभावी बना दिया जाये क्योंकि दुर्योधन की तरह  कुर्सी के उपासक हम वोट राजनीति से बाहर निकल कर  देशहित में सोच ही नहीं सकते! यह सब हमारे डीएनए में है ही नही। क्या आप राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को जानते हो? ऐसे लोग जिनकी आँखों में केवल और केवल  विश्व गुरु भारत का स्वप्न तैरता हो, जो लोग इस भव्य स्वप्न को प्राप्त करने के लिए अपनी जवानी राष्ट्रदेव के चरणों में समर्पित कर रहे हों क्या  उनको  देशभक्ति का पाठ कदम पर सत्ता के लिए देशहित का सौदा करने वालों से सीखना होगा? क्या आप जानते हैं कि आज के इस भौतिकवाद के युग में भी हजारों सुशिक्षित युवा अपने कैरियर व् परिवार की चिंता किये बगैर अपना पूरा जीवन सन्यासी की तरह भारतमाता की सेवा को समर्पित कर रहे हैं?  इनके आलावा लाखों कार्यकर्ता घर गृहस्थी की सारी जिमेदरियों के साथ साथ समाज सेवा को समर्पित हैं। और इससे भी बड़ी बात की यह सब कुछ पाने की इच्छा से नहीं बल्कि -
तन समर्पित, मन समर्पित और यह जीवन समर्पित। 
चाहता हूँ देश की धरती,  तुझे कुछ और भी दूं।। 
के  श्रेष्ठ भाव से 80 से अघिक वर्षो से
मौन साधना चल रही है। महात्मा गांधी, वीर सावरकर, नेता जी सुभाष, डॉ. आंबेडकर , पूर्व राष्ट्रपति डॉ. जाकिर हुसैन तथा लोकनायक जय प्रकाश नारायण संघ की खुले मन से प्रशन्सा कर चुके हैं।  इतना ही नहीं तो धर्मनिरपेक्षता के आदिपुरुष स्वयं पण्डित जवाहर लाल नेहरू 1962 में भारत चीन युद्ध में संघ स्वयंसेवकों की भूमिका से अभिभूत हो कर 1963 की गणतन्त्र परेड में 3000 से अधिक स्वयंसेवकों को शामिल कर चुके हैं। 
धर्मान्तरण को लेकर इतिहास के सबक भी याद रखने होंगे-
भारत में  हजारों  वर्षों से हिंदुओं को निर्बाध रूप से ईसाई और मुसलमान  बनाया जा  रहा है। देखते देखते गंधारी का मायका धर्मान्तरित होते ही अफगानिस्तान के रूप में अलग देश बन गया। धर्मान्तरित होते ही पाणिनि और गुरु नानक का जन्मस्थान पाकिस्तान बन गया। इसी प्रकार देखते ही देखते सारा पूर्वोत्तर ईसाई बन गया। विचार करने का विषय है कि आखिर धर्म बदलने मात्र से अलग देश क्यों बन जाते हैं? अधिकांश ईसाई या मुसलमान देशभक्त होते हुए भी देश के जिस भूभाग में ईसाई या मुसलमान बहुसंख्यक हो जाते हैं वहीं से देशविरुद्ध आवाजें उठनी क्यों शुरू हो जाती हैं? क्या अफगानिस्थान, पाक और बंगलादेश  मुस्लिम धर्मान्तरण का ही परिणाम नहीं है? क्या हजारों वर्षों से गरीब और असहाय हिंदुओं का धर्मान्तरण डर, लालच  और कई प्रकार के अवैध हथकण्डे अपना कर नहीं  किया जाता रहा है?  क्या पंजाब में हकीकत और गुरु पुत्रों का बलिदान बलात धर्मपरिवर्तन के ही विरुद्ध नहीं था? क्या केरल और देश के कई भागों में बलात् ईसाई बनाने के लिए हिन्दुओं पर हुए अत्याचार देश को फिर याद करने होंगे?  क्या आजादी के बाद मध्यप्रदेश की  कांग्रेस सरकार की और से गठित नियोगी कमीशन की रिपोर्ट्स को पढ़ने से ईसाई मिशनरियों की नीति और नियत स्पष्ट नही हो जातीहै?  क्या ईसाइयत और इस्लाम को विदेशी शक्तियों ने अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए हथियार के रूप में प्रयोग नहीं किया है? क्या हमें उस अफ़्रीकी नेता की वह दर्द भरी दास्ताँ याद नहीं रखनी चाहिए जिसमे वो कहते हैं- हमारे देश में पादरी आया । उस समय उसके हाथ में बाईबल थी और हमारे पास जमीन! उसने हमें आँख बन्द कर प्रार्थना करने को कहा। लेकिन जब हमने ऑंखें खोली तो देखा हमारी जमीन उसके पास थी और हमारे हाथ में थी मात्र बाईबल! देश को देर सवेर इन चुभते हुए सवालों से दो चार होना ही पड़ेगा।  आखिर कब तक राष्ट्रीय महत्व के प्रश्नों से नजर चुराएंगे हम? बिल्ली को देख कर कबूतर की तरह कब तक ऑंखें बन्द रखेंगे हम? बात केवल पूजा पद्धति की हो तो इस देश में यह कभी हमारे लिए बड़ा मुद्दा नहीं रहा। हमने स्वयं मस्जिदें और गिरजाघर बना कर दिए हैं। यहूदियों ने सारे विश्व के सामने इस तथ्य को स्वीकार भी किया है। इस मामले में हमारी दरियादिली जगत प्रसिद्ध है। लेकिन हिन्दू समाज की युवा पीढ़ी अब प्रश्न पूछ रही है कि हमारी दरिया दिली का हमे क्या सिला मिला? अपनी प्रिय मातृभूमि का विभाजन ,  कदम पर अपमान और क्या?
धर्मान्तरण का शिकार हिन्दू तो सब मौन-
 देश में धर्मान्तरण का सिलसिला हजारों वर्षों से निरन्तरं चलता आ रहा है। आजादी के बाद भी यह अनवरत चलता रहा लेकिन सब राजनेता शांत थे, इन सब को कहीं कोई परेशानी नहीं थी। इनकी रहस्यमयी चुप्पी का कारण बिलकुल साफ है - अभी तक शिकार केवल हिन्दू समाज था जो कि जाति वर्ग में बंटा था और धर्मान्तरण के लिए दोषी ईसाई और मुस्लिम शक्तियां थी। अब राजनैतिक गलियारों में अचानक हाय-तौबा क्यों मच गयी है? क्या केवल इसलिए कि अब हिन्दू समाज भी अपने रक्त बन्धुओं को वपिस हिन्दू धर्म में लाने के लिए कमर कस रहा है? अगर यह सत्य भी है तो इसमें गलत क्या है? आज हिन्दू समाज में आत्म्विश्वास लौटा है, उसने भी हिम्मत से अपने ईसाई या मुसलमान बने रक्त बंधुओं को घर वापिस लाने के लिए हिम्मत और स्नेह का हाथ बढ़ाया है?  उसके लिए हिन्दू समाज अब कुछ छूटपुट प्रयास भी कर रहा है। हिन्दू  समाज की यह अंगड़ाई ही इन अल्पसंख्यकों के कथित हितैषियों से सहन नहीं हो रही है। हिन्दू समाज हैरान है। वह समझ। इसके लिए हायतौबा नहीं बल्कि ख़ुशी का इजहार होना चाहिए था कि कुम्भकर्ण की निद्रा में सोन वालेह समाज आखिर। जगा तो सही! इतिहास की गलतियों को ठीक करने के लिए   हिंदू समाज खड़े  होना तो शुभ संकेत है। लेकिन हिन्दू 
 समाज के ही इन सपूतों? के इस व्यवहार के चलते समाज में बेचैनी है। यह तो ठीक ऐसा ही है कि
हमें तो अपनों ने मारा है गैरों में कहां दम था?
अपनी डूबी वहीं किश्ती जहां पानी कम था।। लेकिन अब हिन्दू समाज संगठित है, जागरूक है अब इन सपूतों? की नहीं चलने देगा। हिन्दू समाज ने अभी तो अंगड़ाई मात्र ली है। अभी तो। सैकड़ों हजारों की ही घर वापसी हुई है। करोड़ों अपने घर वापिस आने को उतावले बैठे हैं। आखिर आप उन्हें निराश कैसे कर सकते हैं?  अभी से  यह हंगामा क्यों वरप रहा है?  आखिर हम किसी की कोई सम्पत्ति तो नहीं चुरा रहे हैं । हम तो अपनी चुराई सम्पत्ति को बरामद मात्र कर रहे हैं। यह  तो ऐसा ही है-
वो कत्ल भी करते हैं तो चर्चा नहीं होती 
       हम आह भी भरते हैं तो हो जाते हैं बदनाम।
चाय के प्याले में तूफान है यह राजनैतिक शोर
                            पिछले कुछ समय से धर्मान्तरण को लेकर उठा विवाद चाय के प्याले में उठे तूफान जैसा ही लगता है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण केंद्र सरकार द्वारा धर्मान्तरण को लेकर सख्त कानून बनाने की बात करते ही इस मुद्दे पर आसमान सिर पर उठा लेने वाला विपक्ष सिर पर पैर रख कर भाग लिया। इससे ही इस विषय पर विपक्ष की गम्भीरता समझी जा सकती है। विपक्ष का शोर-शराबा ईसाई मुसलमानों से हमदर्दी से ज्यादा लोगों का ध्यान सरकार के विकास के एजेंडे से हटाना ही लग रहा है। पर अक्ल के दुश्मन अल्पसंख्यक वोटों के रसिया ये लगभग सारे राजनैतिक दल कुछ भी समझने को तैयार नहीं लगते। पहले लोकसभा चुनाव और अब एक के बाद एक राज्यों के लोग चुनाव में इन्हें नकार कर अल्पसंख्यक विरोधी बताये जाने वाले श्री नरेंद्र मोदी को सत्ता की चाबियाँ सौंपते जा रहे हैं। यही इन सब दलों के नेताओं की बेचैनी का बड़ा कारण है। दर्द बढ़ रहा, बेचैनी सहन शक्ति से बाहर होती जा रही है बस अगर कुछ नहीं हो रहा है तो इन नेताओं की समझ का ताला नहीं खुल रहा है। अभी तक इन दलों ने अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों का डर दिखा कर वोट ही ऐंठे हैं। इन्हें शिक्षा, सड़क और स्वास्थ्य  आदि मुलभुत सुविधाओं  से बंचित रख कर केवल इनकी कट्टरता का ही पोषण किया है। अब इन दलों की काठ की हांड़ी दोबारा चढ़ती नहीं दिख रही है। क्या अल्पसंख्यक अब भी इतने भोले हैं कि ये लोग इन दलों की मंशा को न समझें? अल्पसंख्यकों को अब और मुर्ख नहीं बनाया जा सकता। शायद यही कारण है कि इस मुद्दे पर सारी चीख- पुखार केवल इन दलों की ही है कुछ अपवाद छोड़ दिए जाएँ तो अल्संख्यकों को इस मुद्दे से कोई ज्यादा लेन-देन नहीं दिख रहा है। 
सरकार और समाज को सुरक्षात्मक होने की आवशयकता नही-
जबरदस्ती धर्म परिवर्तन इस देश की प्रकृति के विरुद्ध है। इस मिटटी में उपजे किसी भी सम्प्रदाय में  इसे सही नहीं ठहराया गया है। लेकिन जो लोग दस साल पचास साल या इससे भी पहले अपना धर्म छोड़ कर चले गए थे उन्हें वापिस लाने के प्रयास कतई बन्द नहीं होने चाहिए। यद्यपि यह सब भी परस्पर सहमति और सोहार्द में ही होना चाहिए। हालाँकि यह भी सर्वसिद्ध सत्य  है कि 99 प्रतिशत से ज्यादा हिन्दू लालच और भय से ही ईसाई और मुसलमान बनाये गए हैं। यह सब जानते हुए भी समाज  में परस्पर स्नेह,  विश्वास और सौहार्द बनाये रखने के लिए हिन्दू संगठन जोर जबरदस्ती का कभी सहारा नहीं लेते हैं। सरकार को इन राजनैतिक दलों की दादागिरी के आगे बिलकुल नहीं झुकना चाहिए बल्कि लोकतन्त्र की  स्वस्थ परम्परा के अनुसार इस मुद्दे को जनता के बीच ले जाना चाहिए। केंद्र सरकार को भी याद रखना होगा कि विकास के साथ साथ देश ने और बहुत सारे जख्म ठीक करने के उदेश्य से श्री मोदी को दिल्ली भेजा है। हिन्दू सङ्गठनों को भी धैर्य और सावधानी का सहारा लेने की आवशयकता है। अपने सामाजिक और राजनैतिक नेतृत्व पर विश्वास रखना होगा। मौन साधना के इस पथ में  शोर-शराबा तो वैसे ही शोभा नहीं देता। 

रविवार, 30 नवंबर 2014

भारत को संघरूपी कल्पवृक्ष देने वाले अदभुत मनीषी थे डॉ. हेडगेवार

तन समर्पित मन समर्पित और यह जीवन समर्पित चाहता हूँ देश की धरती तुझे कुछ और भी दूं- इस श्रेष्ठ और उच्च भाव से प्रेरित था संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार का जीवन। आध्यात्म और देशभक्ति का सुमेल बैठाने वाले डॉ. हेडगेवार ने स्वामी विवेकानन्द की इच्छा - 'थोड़े समय के लिए सब देवी देवताओं को एक और रख कर भारतमाता को अपना आराध्य बनाने के आह्वान' को साकार कर दिया। डॉ. हेडगेवार का बहुआयामी व्यक्तित्व हिमालय से ऊँचा और समुद्र से गहरा है। उनके 51 वर्ष के छोटे लेकिन अत्यंत सक्रिय जीवन वृत्त को एक लेख में समेटना समुद्र को घड़े में समाने की असफल चेष्टा जैसा ही है। इस लेख में उनके प्रेरक जीवन की मात्र एक झलक ही मिल जाये तो काफी है।
ऋषि परम्परा के वाहक डॉ. हेडगेवार-     
                  समाजरुपी कबूतर को बचाने के लिए राजा शिवि की तरह कबूतर के बजन के समान अपना मांस देने तथा वृत्रासुर के आतंक से मुक्त कराने के लिए देवताओं के आग्रह पर बज्रास्त्र बनाने के लिए अपनी हड्डियां देने वाले महर्षि दधीचि की परम्परा के आधुनिक प्रतीक थे डॉ. हेडगेवार। जब देश को स्वंतत्र कराने के लिए युवकों में अंग्रेज की गोली खाने या फांसी चढ़ जाने का वातावरण गर्म था, क्रन्तिकारी अपनी जवानी को राष्ट्रदेव के चरणों में चढ़ाने को ललायत थे, अधिकांश कांग्रेस के नेता जेल जाने को ही देश भक्ति मानते थे। ऐसे समय में इस महापुरुष ने सिंहनाद किया कि अवश्यकता पड़ने पर देश के लिए मर मिटना, जेल जाना जरूरी है लेकिन उससे भी बड़ी देशसेवा देश के लिए जीना और जेल से बाहर रह कर अंग्रेज के विरुद्ध समाज को लामबंद करना है। उन्होंने अपनी सोच और व्यवहार में राष्ट्र को वरीयता देने वाले संस्कारित युवकों को तैयार कर उन्हें संगठन की माला में पिरो देने का असंभव कार्य करके दिखा दिया। असंभव इसलिए क्योंकि उस समय जब डॉ. हेडगेवार ने हिन्दू संगठन को अपना जीवन कार्य बनाया उस समय सामान्य धारणा थी कि चार हिन्दू कभी एक साथ, एक दिशा में नहीं चल सकते जब तक पांचवां उनके कन्धे पर न हो। इसी समय 1909 में बंगाल के यू. एन. मुखर्जी ने हिन्दू जाति के लिए डाईंग रेस का सिद्धान्त प्रतिपादित किया था। ऐसे विपरीत समय में जब डॉ. हेडगेवार ने हिन्दू संगठन की घोषणा की तो सब हैरान रह गए। डॉ. हेडगेवार की कार्यशैली और स्वयं को प्रचार- प्रसिद्धि से दूर रखने की प्रकृति का ही परिणाम है कि आज संघ की चर्चा सर्वदूर है लेकिन संघ संस्थापक डॉ. हेडगेवार को बहुत कम लोग जानते हैं। आने वाली पीढियां डॉ. हेडगेवार को एक कुशल संगठक, मौलिक चिंतक और शून्य से सृष्टि रचने वाले अद्भुत जीवट के धनी तथा भारत को हिन्दू संगठनरूपी कल्पवृक्ष की भेंट देने वाले मनीषी के रूप में जानेंगीं। संघ को समझने के लिए डॉ. हेडगेवार के जीवन को समझना अत्यंत आवशयक है। आईये! उस महा पुरुष के जीवन और दर्शन को समझने का प्रयास करें।
जन्मजात देशभक्त थे डॉ. हेडगेवार-
               अप्रैल एक 1889, हिन्दू नववर्ष अर्थात वर्ष प्रतिपदा के ऐतिहासिक दिन पर एक अत्यंत सामान्य कर्मकांडी ब्राह्मण पिता बलिराम हेडगेवार तथा माता रेवती की कोख से बालक केशव ने जन्म लिया। तीन भाई तथा चार बहनों का बड़ा परिवार भयंकर गरीबी से जूझ रहा था। आय का मात्र माध्यम पुरोहित्य कर्म था। सरस्वती की आराधना के सिवाए और कोई भी कार्य घर में नहीं होता था। बालक केशव बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि, स्वाभिमानी तथा जिद्दी था। जिस उम्र में बच्चे मिठाई के लड़ते है, जिद्द करते हैं उसी उम्र में बालक केशव ने महारानी विक्टोरिया के राज्यारोहण के 60 साल पूरे होने पर 22 जून 1897 को स्कूल में बांटी जाने वाले लड्डू को कूड़े के ढेर में फैंक दिया। एडवर्ड सप्तम के राज्यारोहण पर आतिशबाजी देखने नहीं गए। सनकी अंग्रेज मजिस्ट्रेट को सलाम करने से यह कह कर मना कर दिया कि इज्जत मांगी नहीं अर्जित की जाती है।' Respect is commanded not demanded.
स्वंतन्त्रता सेनानी डॉ साहिब-
बालक केशव ने दशवीं कक्षा में 1907 में नील सिटी हाई स्कूल में वन्देमातरम का जय घोष कर सबसे पहले अंग्रेज सत्ता को सार्बजनिक चुनोति दी। आगे मेडिकल की पढ़ाई के लिए कलकत्ता का च्ययन भी विचारित था। कलकत्ता उन दिनों क्रांतिकारियों की काशी माना जाता था। कलकत्ता के ये साल आज के युवा के लिए अत्यंत प्रेरक हैं। केशव का आर्थिक कठिनाई के चलते दोस्तों के साथ कमरे में रहना, रात को सो जाने पर उनकी किताबें पढ़ना, क्रांतिकारियों के कार्य को आगे बढ़ाना तथा कालेज एवं समाज सेवा की अनेक गतिविधियों में पूरी सक्रियता लेकिन इससे भी बड़ी बात ये सब करते हुए पढ़ाई में आगे रहना बड़ी विशेषता दिखती है। केशव के ऊँचे ठहाकों में गरीबी का दर्द बेचारा नजरें छुपाता फिरता था। केशव की जोश में होश बनाये रखना, साहस व् सूझबूझ तथा पैनी दृष्टि साथियों को हैरान कर देती थी। अंग्रेज पुलिस के सीआईडी के लोगों की सीआईडी केशव करता था। मुहल्ले में विद्यार्थियों के कमरे पर पड़ने वाले पत्थरों को इन्होंने अपनी विशेष शैली से रोक लिया। इन्होंने मुहल्ले वालों को कहा कि अगर हमारे कमरे में पत्थर आने नहीं रुके तो सड़क पर जो भी व्यक्ति मिलेगा मैं उसकी पिटाई करूँगा। आश्चर्य कि अगले दिन से पत्थर पड़ने बन्द हो गए। कालेज के अंतिम दिनों में प्रिंसिपल के ब्रह्म देश में आकर्षक नोकरी के प्रस्ताव को यह कह कर विनम्रतापूर्वक ठुकरा देना कि जब तक मेरा देश गुलाम है मैं अपने लिए कोई भी काम नहीं करूँगा वास्तव में उनकी देश के प्रति श्रद्धा और समर्पण की भावना को दर्शाता है। देश की आजादी के प्रत्येक कार्य में डॉ. साहिब आगे रहते थे। वे कांग्रेस और क्रांतिकारियों में प्रथम विश्व युद्ध के समय 1857 एक बार फिर दोहराने के लिए इन्होंने पूरे देश में शस्त्रों का जाल बिछा दिया। लेकिन इनकी पारखी नजरों ने कमजोर कड़ियों को तुरन्त भांप लिया और बिना देर किए निष्काम कर्मयोगी की तरह उसी उत्साह, परिश्रम और सावधानी से किसी को कानों कान खबर लगे बगैर सब कुछ समेट भी लिया। यद्यपि डॉ साहिब तिलक के अनुयायी होने के कारण गर्म दलीय थे तो भी कांग्रेस तथा क्रांतिकारियों में डॉ. साहिब समान रूप से सम्मान प्राप्त थे। कांग्रेस की मुस्लिम तुष्टिकरण की नीति से पूरी तरह असहमत होते हुए भी कांग्रेस के आह्वान पर असहयोग आंदोलन और जंगल सत्याग्रह में दो बार जेल यात्रा कर चुके थे। डॉ. साहिब 1920 में लोकमान्य तिलक के देहांत से उत्प्न रिक्तता की पूर्ति के लिए कांग्रेस का नेतृत्व करने के लिए दुनिया से विरक्ति ले चुके महृषि अरविन्द को मनाने पांडिचेरी गए।
चिंतक हेडगेवार
    डॉ केशव अपनी डाक्टरी की पढ़ाई पूरी कर 1914 में नागपुर आ गए। नागपुर आते ही समाज जागरण के अनेक कार्यों में डट गए। नोकरी, व्यवसाय और शादी के सभी प्रस्तावों को स्पष्टरूप से नकार दिया। दिन रात एक ही धुन अर्थात देश की आजादी। सब कुछ करते हुए समाज की नब्ज टटोलने का भी प्रयास करते रहे। महान संस्कृति, इतिहास और महापुरुषों की अखण्ड श्रृंखला वाला यह देश आखिर बार बार गुलाम क्यों हो जाता है? गहन अध्ययन, चिंतन और प्रत्यक्ष अनुभव के आधार पर समाज संगठन का अभाव, सर्व सामान्य जन में देशभक्ति की कमी इस सारी दुरावस्था के लिए बड़े कारण ध्यान में आए। और उस समय के बड़े नेताओं महात्मा गांधी, नेताजी सुभाष वीर सावरकर आदि सबसे चर्चा कर अपना सारा जीवन समाज के संगठन के लिए समर्पित करने का निर्णय लिया।
साहसी डॉ. हेडगेवार
देशभक्ति के साथ निडरता इनके रक्त में ही समायी थी। खतरों से खेलने में तो इन्हें जैसे आनन्द ही आता हो। एक बार डॉ. साहिब गाड़ी में कहीं जा रहे थे। गाड़ी में पैर तक रखने की जगह नहीं थी। एक डिब्बा जो अंग्रेजों के लिए आरक्षित था एकदम खाली था। डॉ. साहिब से यह अन्याय शन नहीं हुआ। उन्होंने जैसे कैसे अंदर जा कर उसके दरबाजे खोल कर जनता को ऊंचीं आवाज में अंदर आने को कहा। देखते ही देखते सारा डिब्बा भर गया। अंग्रेज निरीक्षक गुस्से से उबल पड़ा और जोर से लोगों को बाहर जाने के लिए कहा। उसने बाहर न जाने पर डंडे से पीटने की धमकी दी। लोग घबरा कर बाहर जाने लगे तो डॉ. साहिब ने और भी ऊँची आवाज में कहा कि अगर कोई भी बाहर गया तो उसे मैं पिटूँगा। सब शांत हो कर बैठ गए। डिब्बा खाली करने में असफल रहा अंग्रेज इंस्पेक्टर पैर पटकता हुआ चला गया। इसी प्रकार कालेज के दिनों में इसी साहस व् सूझबूझ से मुहल्ले के शरारती लोगों द्वारा इनके कमरे में फैंके जाने वाले पत्थर रुकवाये थे। 
संगठक हेडगेवार
डॉ. साहिब की सङ्गठन कुशलता अदभुत थी। ये स्वयं 'क्रिया सिद्धि सत्त्वे भवति महतां नो उपकरणे' अर्थात महान लोग साधनों के बिना केवल अपने सत्व के बल पर लक्ष्य प्राप्त कर लेते हैं की साक्षात् मूर्ति थे। खुले मैदान में कुछ बच्चों व्  युवकों को खेल, गीत आदि साधारण से कार्यक्रमों के द्वारा विश्व का सबसे बड़ा सन्गठन खड़ा कर लेना किसी चमत्कार से कम नहीं है। और सन्गठन भी ऐसा जहां व्यक्ति लेने के नहीं बल्कि देने के लिए स्वयं को प्रस्तुत करता है। अपनी जयजयकार नहीं बल्कि देश की जय जयकार की इच्छा रखता है। आज राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपने देश के लिए कल्पवृक्ष की तरह बन गया है। देशप्रेमियों की उम्मीदों तथा देशविरोधियों के लिए भय का केंद्र है यह संगठन। आने वाली पीढियां डॉ. हेडगेवार को कुशल सन्गठन करता के रूप में जानेंगी।

शुक्रवार, 21 नवंबर 2014

क्या कश्मीर में खिलेगा कमल ?

क्या इस बार कश्मीर घाटी में कमल खिलेगा? क्या इस पहाड़ी राज्य का राजनैतिक इतिहास करवट लेगा? क्या मोदी लहर इस राज्य में भी परम्परागत राजनैतिक समीकरणों को धराशायी कर भाजपा को सत्ता तक पहुंचा देगी? अगर मुख्यमन्त्री श्री अब्दुल्ला और मुफ़्ती महबूबा की राजनैतिक घबराहट, राज्य में मुस्लिम नेताओं का बड़ी संख्या में भाजपा में शामिल होने की होड़ और अलगाववादी नेता सज्जाद लोन की मोदी स्तुति तथा भाजपा कार्यकर्ताओं के जोश को देखा जाये तो उत्तर हाँ में ही आता लग रहा है। मोदी के जादू को लेकर अपनी पिछली  सारी भविष्यवाणियां गलत हो जाने के कारण राजनैतिक पण्डित भी मोदी मैजिक को स्वीकारने लगे हैं। उनमे से अधिकांश कहने लग पड़े हैं कि भाजपा जम्मू कश्मीर में हरियाणा नहीं तो महाराष्ट्र तो दोहरा ही देगी। जैसे-जैसे जम्मू कश्मीर राज्य विधान सभा चुनाव की तिथियाँ नजदीक आ रही है वैसे वैसे राज्य की जनता की ही नहीं बल्कि देश और दुनिया में भारत भक्त शक्तियों की धड़कनें भी तेज होती जा रही हैं। इसका बड़ा कारण है कि इस राज्य में विधान सभा चुनाव मात्र किसी दल की सरकार बनने या न बनने तक सीमित नहीं हैं। सीमावर्ती राज्य होने  के साथ साथ मुस्लिम साम्प्रदायिक राजनीति के चलते पाक और चीन को यहां खुल कर खेलने का अवसर मिलता रहा है। देशवासियों को बड़ा गिला रहा है कि गैरों से भी ज्यादा अपनों की बेबफाई के चलते भारत यहां हमेशा हाशिये पर ही रहता आया है। लगता है राज्य के लोगों ने देश के इस शिकवे को दूर करने का मन बना लिया है। इस बार राज्य में राजनैतिक फिजा बदली बदली सी लग रही हैं इसीलिये इस बार  भारत विरोधी शक्तियां विधान चुनाव को लेकर बेहद परेशान लग रही हैं। उन्हें इस बार अपने पैरों के नीचे से जमीन खिसकती लग रही है।
तौबा करनी होगी साम्प्रदायिक राजनीति से-
स्वंतत्रता के समय से ही जम्मू कश्मीर को पाकिस्तान और चीन के आलावा अन्य भारत विरोधी शक्तियों ने अपना अखाडा बनाया है। इस अखाड़े में राज्य की निर्दोष जनता दशकों से पिस रही है। यहाँ यह कहना भी आवश्यक है कि यहां की जनता के दुःख तकलीफों के पीछे अब तक राज्य में प्रभावी रही पाक परस्ती और मुस्लिम कट्टरता को बढ़ावा देने वाली राजनीति भी बराबर की दोषी है। यह एक जमीनी सच्चाई है कि विश्व की ये चीनी और पाकी शक्तियां इस राज्य में राष्ट्रवादी शक्तियों को मजबूत होते नहीं देखना चाहती क्योंकि इन्हें मालूम है कि वे अपना खेल तभी तक खेल सकेंगी जब तक यहां पाक समर्थक या पाक के प्रति नरम रुख रखने वाले लोगों की सरकार रहेगी। यहां यह कहना जरूरी लगता है कि राज्य की जनता के भारत के प्रति रूखेपन के पीछे बड़ा कारण दिल्ली का विचित्र व्यवहार भी रहा है। यहां जो व्यक्ति या दल भारत को जितनी गलियां देता था दिल्ली उसे उतना ही पुचकारती और अनेक तोहफ़ों से नबाजती थी। इसके विपरीत भारत माता की जय बोलने का अर्थ अपने लिए गाली और गोली के रूप में संकट को आमन्त्रित करना था। अब दिल्ली बदली है। भारत विरोधियों को सजा तथा भरतभक्तों को पुरस्कार का सिलसिला शुरू होने जा रहा है। चीन और पाक के कान भी मरोड़े जा रहे हैं। सीमा पर सेना को खुली छूट देकर आतँकवाद की नकेल कसी जा रही है। राज्य में भारतभक्त  सरकार आते ही परिदृश्य पूरी तरह बदलने वाला है। राज्य के लोगों को आतंकवाद से मुक्ति तथा विकास की राजनीति का स्वाद चखने को मिलेगा। राज्य में भारतभक्त सरकार लाने में राज्य की जनता के दुःख तकलीफों से मुक्ति की चाबी छुपी है यह बात सर्वदूर फैलती जा रही है।
राष्ट्रवाद ही है समाधान
भारत के सीमावर्ती राज्य होने के कारण जम्मू कश्मीर विधान सभा के चुनाव परिणामों पर राज्य की जनता के साथ साथ सम्पूर्ण देश और दुनियां की निगाहें टिकी हैं। क्या राज्य की जनता जम्मू कश्मीर की साम्प्रदायिक राजनीति से बाहर निकल कर विकास और भरष्टाचार से मुक्ति को तरजीह देगी? क्या धरती पर स्वर्ग कहे जाने वाले इस राज्य में परिवारवाद की जगह राष्ट्रवाद गूंजाने का समय आ गया है? जम्मू कश्मीर विधान के चुनाव राज्य की जनता के सामने अपना भविष्य स्वयं अपने हाथों लिखने का एक देव दुर्लभ अवसर है। हर पांच साल में आने वाले अवसर के लिए दुर्लभ! शब्द मैंने सोच समझ कर प्रयोग किया है। अभी तक इस राज्य की जनता के सामने अब्दुल्ला परिवार, मुफ़्ती परिवार या फिर कांग्रेस  ही विकल्प के रूप में थे। कहने की आवश्यकता नहीं कि इन सभी दलों ने राज्य की जनता के दुःख तकलीफ का समाधान ढूंढने के बजाए अपने सत्ता सुख को ही प्राथमिकता दी है। जम्मू कश्मीर की जनता ने  इन दोनों दलों की साम्प्रदायिक राजनीती से तंग आ कर राष्ट्रीय दल कांग्रेस को चुना लेकिन परिणाम वही ढाक के तीन पात ही रहा। इतना ही नहीं तो कांग्रेस ने राज्य में मुस्लिम कट्टरता को हवा देने में तो बाजी ही मार् ली। जनता ने हर बार स्वयं को ठगा ही अनुभव किया। यह तो ठीक ऐसा ही रहा-
सोचा था क़ि हाकिम से करेंगे शिकायत।
कमबख्त वो भी तुझे चाहने वाला निकला।।
बहुत जख्मों पर मरहम लगाना बाकि है-
जम्मू कश्मीर राज्य भारत के लिए महज एक राज्य नहीं है। इस राज्य के साथ भारत के सांस्कृतिक व् ऐतिहासिक सम्बद्ध रहे हैं। स्वतंत्रता के बाद से लेकर इस राज्य में शांति और भारत के साथ जोड़े रखने में भारत ने हजारों सैनिकों के बलिदान और आम आदमी के टैक्स की अरबों की धनराशि के रूप में भारी कीमत चुकाई है। स्वंतत्रता के समय जब सारा देश जश्न मना रहा था इस राज्य को पाक के हमले का शिकार होना पड़ा था। पांच सौ से अधिक रियासतों को भारत से जोड़ने का अभियान पठानकोट से आगे निकलते ही कमजोर पड़ गया। पण्डित जवाहर लाल नेहरू की जिद के आगे भारतभक्त राजा हरि सिंह को अपमानित तथा पाकपरस्त शेख अब्दुल्ला को पुरस्कृत किया गया। भारत के अपमान का यह सिलसिला जो शुरू हुआ वह अभी तक वैसे ही चलता आ रहा  है। लेकिन इससे राज्य की जनता को क्या मिला? परिवारवाद, भरष्टाचार, आतँकवाद और घोर गरीबी ही हिस्से आई। भारतविरोध के चलते देश की जो हानि हुई सो हुई लेकिन धरती के स्वर्ग जम्मूकश्मीर की भी कम दुर्दशा नहीं हुई। आज लाखों कश्मीरी वनवास की जिंदगी जीने को बेबश हैं। 1947 में पाक से आए लाखों हिन्दू शरणार्थी राज्य में वोट के अधिकार के लिए जूझ रहे हैं। इस राज्य की बेटियां राज्य से बाहर शादी होते ही अपनी पैतृक सम्पत्ति से अधिकार खो बैठती हैं। धारा 370 के चलते राज्य केंद्र की अनेक कल्याणकारी योजनाओं से वंचित हो रहा है। कश्मीर घाटी जम्मू और लेह लद्दाख के रेवन्यू पर पल रही है। राज्य में मुस्लिम कट्टरवाद को प्रभावी रखने के लिए सभी मान्य मापदण्डों को नकार कर घाटी में सीटें अधिक रखी गयी हैं।
राज्य के मुस्लिम बन्धुओं को भी समझ में आने लगा है कि मुस्लिम देश और दुनियां में वहीं सुखी है जहाँ वे अमुस्लिमों से शासित हैं। मुस्लिम राजनेता उनकी धार्मिक संवेदनशीलता का दुरूपयोग कर उन्हें अल्लाह का राज्य बनाने के लिए उनके हाथ में बन्दूकें थमा देते हैं और खुद जन्नत के ऐशोआराम में खोये रहते हैं। अभी तक का अनुभव तो इस बात को चीख चीख कर कह रहा है कि जम्मू कश्मीर को दोबारा वहां के परम्परागत दलों के हाथों सौंपना बन्दर के हाथ उस्तरा पकड़ा देना ही होगा। भगवान शिव की धरती को इन्होंने आतंकवादियों की ऐशोआराम की स्थली में बदल दिया है। आतँकवाद के चलते हजारों निर्दोष नागरिकों की सिसकियां इन दोषी  राजनेताओं को सजा देने की मांग कर रही हैं।  क्या कश्मीर को आज के कष्टों से मुक्ति पाने के लिए अपने यहां कमल को खिलाना होगा? ईमानदार विश्लेषण तो हाँ में ही उत्तर देता है। क्या राज्य की जनता इस अवसर का अपने दूरगामी हित के लिए उपयोग करेगी या अपने राजनेताओं के शोषण का शिकार होती रहेगी?

सोमवार, 13 अक्टूबर 2014

विधान सभा चुनाव- परीक्षा मोदी की या जनता की सूझबूझ की?

क्या हरियाणा और महाराष्ट्र विधान सभा चुनाव के मायने महज दो राज्यों की सरकारें चुनने तक स़ीमित हैं? शायद नहीं! इन राज्यों के चुनाव परिणाम देश में मोदी राजनीति को स्वीकारने या नकारने संबधी जनता के फरमान का संकेत भी होगा। इसीलिए यह चुनाव दोनों राज्यों की जनता पर देश की भावी राजनीति को दिशा देने की बहुत बड़ी जिमेवारी है। मीडिया में एक ही बात की चर्चा है कि क्या  इन चुनावों में मोदी का जादू चलेगा? इसके साथ अधिकांश राजनीति के पंडित इन चुनावों को मोदी और अमित शाह की परीक्षा के रूप में भी देख रहे हैं। लेकिन एक प्रश्न और भी उठता है कि ये चुनाव क्या मात्र मोदी के जादू या अमित शाह के नेतृत्व पर मोहर लगायेंगे या वोटर की राजनैतिक सुझबुझ को भी प्रकट करेंगे? अगर अंग्रेजी की इस कहावत - (people get the govt they deserve for) अर्थात लोगों को वैसे ही नेता मिलते हैं जिनके वे अधिकारी होते हैं' को देखें तो ये चुनाव मोदी मैजिक की परीक्षा से ज्यादा जनता की राजनैतिक समझ की ही परीक्षा लग रहे हैं।
मोदी नेतृत्व में आशा का संचार - देश में वर्तमान राजनीति परिदृश्य को लेकर एक बात पर सर्वदूर सहमति बनती दिख रही है कि सर्व सामान्य व्यक्ति में जबर्दस्त आशावाद का संचार हुआ है। जहाँ कुछ महीने पहले यह जनधारणा बलवती थी कि इस देश का भगवान भी कुछ नहीं संवार सकते आज वहीँ सब जगह 'हो सकता है' यह विश्वास आम से खास सब चेहरों पर झलक रहा है। कहते हैं कि आशा और विश्वाश मृत्यु शैया पर पड़े रोगी में भी नये जीवन का संचार कर देता है। मोदी की बहुत बड़ी उपलब्धि इस थोड़े से कालखंड में जनता में इस विश्वास का संचार कर देना है। मोदी से राजनैतिक असहमति रखने वाले भी जिस ढंग से मोदी ने अपनी प्रधानमन्त्री की पारी शुरूआत की उस पर फ़िदा हैं। दबी जुवान से ही सही ( जोर से इसीलिए नहीं कि कहीं आवाज दिल्ली में सोनिया दरबार तक न पहुँच जाए) मोदी की प्रशंसा किये बगैर नहीं रह पा रहे हैं। भ्रष्टाचार, देश की सुरक्षा और आतंकवाद पर जीरो टौलरेन्स तथा विकास को लेकर हद दर्जे के जनून की नीति से भारत ही नहीं तो विदेशों में भी मोदी के प्रति दीवानगी बढती जा रही है।
गठबंधन की बैशाखी से बाहर आना- राजनीति में दलों में गठजोड़ देश या राज्य की जरूरत से ज्यादा दलों और नेताओं का सत्ता सुख का मोह ही होता है। अभी तक के अनुभव के आधार पर यह कहा जा सकता है कि गठबंधन की बैशाखी से देश और राज्यों के लाभ से कहीं ज्यादा नुकसान ही हुआ है। बैशाखी लंगड़ेपन से बाहर निकलने के बजाए शरीर की स्थायी जरूरत बन जाए तो वही बैशाखी चिंता का विषय बन जाती है। व्यक्ति उससे मुक्ति के उपाय ढूंढना प्रारम्भ कर देता है।  गठबंधन की राजनीति देश और राज्यों को आर्थिक दृष्टि से लंगड़ा कर जाती है। एक ही दल सरकार बनाये, जनता के हित में अपनी राजनैतिक सुझबुझ और पराक्रम दिखाए ताकि जनता उसका ठीक मूल्यांकन कर सके और आवश्यक होने पर दूसरे दल को अवसर दे सके, यही लोकतंत्र में राजनीति की आदर्श स्थिति है। इसके साथ क्षेत्रीय दलों का भारत की राजनीति में उभरना, उनके राजनैतिक सफर का भी निष्पक्ष मूल्यांकन होना आवश्यक है। एक सरसरी आकलन से तो यही लगता है कि  कुछ अपवाद छोड़ कर अधिकांशत: इन दलों ने राष्ट्रहित को दरकिनार कर अपने राज्य की महत्वकांक्षाओं को हवा देकर देश को कमजोर ही किया है। देश गठबंधन की राजनीति में बुरी तरह पिस रहा है। इसलिए अमित शाह ने इन दोनों राज्यों को गठबंधन की राजनीति से बाहर निकालने का साहस किया है। इनकी देखा देखी कांग्रेस और एन सी पी भी अकेले-2 चुनावी दंगल  में उतर आए।अब इन राज्यों की जनता जर्नार्दन को एक दल को पूर्ण बहुमत देकर इस साहस का सम्मान करना ही चाहिए।
मोदी ने अपनी सुझबुझ का मनवाया लोहा-  अपने शासन की छोटी सी कालाब्धि में मोदी ने हर मोर्चे पर अपनी सुझबुझ का लोहा मनवा लिया है। मोदी ने विदेश नीति में भूटान, नेपाल, जापान और अमेरिका की यात्रा में अपना जौहर दिखा दिया है। स्वाभिमान क्या होता है, हमारी संस्कृति क्या है? पहली बार देश ने इसका अनुभव किया। देश के स्वाभिमान को लेकर सब जगह कीर्तिमान बना, पहली बार हुआ ऐसी बातों की लिस्ट बनाने लगेंगे तो इसी में लेख पूरा हो जायेगा। परिणाम भी सामने है जापान और अमेरिका से रिकार्डतोड़ निवेश, चीन और पाकिस्तान को करार जबाब, मंहगाई में कमी  इतना ही नहीं तो अविरल गंगा, स्वच्छ भारत अभियान, गरीबों के लिए जनधन योजना और आदर्श ग्राम योजना जैसी कई मूल कल्पनाओं से मोदी सरकार ने सुखद भविष्य का हसीन स्वप्न ही नहीं तो ठोस प्रवेश भी कराया है। बेचारा कांग्रेस नेतृत्व!अभी एक योजना की आलोचना के लिए तैयारी पूरी नहीं कर पाता कि उतने में दूसरी योजना आ धमकती है। इसी प्रकार कांग्रेस ने जिस गाँधी के नाम पर इतने वर्ष सत्ता सुख भोगा आज उसी जादुई गाँधी जी के छीने जाने के गम से अभी उभर भी नहीं पाई थी कि अब नेहरु के हाथ से निकल जाने की चर्चा से कांग्रेस में मायूसी और बढती जा रही है। इसी प्रकार जय प्रकाश नारायण के खिसक जाने से मुलायम नितीश की नींद उडी हुई है। इस सब के बीच पूर्ण परिणाम के लिए अगर मोदी देश की जनता से थोडा समय और राज्यों में भी पूर्ण बहुमत मांगते हैं तो गलत क्या है? इच्छा, उत्सुकता और उत्साह कितना भी छलांगे मार रहा हो प्रकृति द्वारा अपेक्षित समय तो लगता ही है। फिर चाहे पौधे के पेड़ बनकर फल देने में हो या शादी के बाद बच्चे का मुंह देखने का हो! सब जगह धैर्यपूर्वक इंतजार तो करना ही पड़ता है। क्या मोदी के प्रयासों को जनता का पूर्ण समर्थन और दिल खोल कर सहयोग नहीं मिलना चाहिए? अमेरिका में मोदी को सुन कर एक सज्जन के मुंह से निकला- क्या मोदी जैसे व्यक्ति को चुने जाने के लिए भी चुनाव की आवश्यकता है? इसी तर्ज पर पूछा जा रहा है कि क्या मोदी को चुनाव में वोट मांगने आना पड़ना चाहिए था? वर्षों बाद देश के स्वप्नों को हवा देने वाले,सब जगह आशा और विश्वास का माहौल बना देने वाले नेतृत्व को जनता को कम से कम कुछ साल बिना मांगे पूरा सहयोग देना नहीं देना चाहिए? क्या महाराष्ट्र और हरियाणा के वोटर अपनी जिम्मेवारी पर खरा उतरेंगे?