सोमवार, 9 अक्तूबर 2017

***छात्र, विद्यालय एवम समाज समर्पित प्रधानाचार्य समय की मांग ***


बदलते समय के साथ प्रत्येक जीवमान ईकाई को बदलना पड़ता है। यह एक शाश्वत सत्य है कि समय के गतिमान प्रवाह के साथ कदम से कदम मिला कर जो नहीं चल पाता वो दुनिया के इस खेल से बाहर हो जाता है। इसको यूं भी कहा जा सकता है कि समय उसको खेल से ही  बाहर कर देता है। आज की परिस्थिति में समय के साथ कदम ताल करने में विद्यालय के प्रधानाचार्य को सबसे ज्यादा परिश्रम करना पड़ रहा है। आज का युगधर्म है कि हमें अपने कर्मक्षेत्र में अपने परिश्रम, प्रतिभा और परिणाम के माध्यम से अपनी उपस्थिति दर्ज करानी ही होगी। कहा भी  जाता है कि परिणाम के बिना तो घरवाली भी सम्मान नहीं देती फिर ये  दुनिया तो दुनिया है । क्योंकि आज का युवा प्रधानाचार्य पैकेज भी अच्छा चाहता है ( इस में कुछ गलत भी नहीं) और सम्मान भी प्राचीन गुरु का चाहता है।  इस सब में दुःखद पहलू  यह है कि युवा प्रधानाचार्यों में छात्र, समाज व राष्ट्र समर्पित जीवन जीने की मानसिक तैयारी या सिद्धता बहुत कम में देखी जा रही है। शिक्षा क्षेत्र में अपने गत तीन वर्षों के अल्प अनुभव के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि युवा पीढ़ी के प्रधानाचार्य को छात्रों एवम समाज के मन मे सम्मान का स्थान पाने के लिए बहुत परिश्रम करना होगा। इसके लिए उसे अपनी दृष्टि पूर्णतः बदलनी होगी। प्रधानाचार्य का कार्य अत्यंत श्रेष्ठ, महत्वपूर्ण और नॉकरी से बहुत ऊपर है। पद, प्रतिष्ठा व पैसा उसके समर्पित जीवन का सहज परिणाम होने वाला है। इसके विपरीत इन सब के पीछे दौड़ने से पद और पैसा तो शायद मिल भी जाए लेकिन प्रतिष्ठा तो उसके लिए दिवास्वप्न मात्र बन कर रह जाएगी। प्रधानाचार्य को समझना होगा कि राष्ट्र का भावी भविष्य उसके हाथों से हो कर निकल रहा है। प्रधानाचार्य को एक-एक छात्र को तराशने, उसके अंदर के महामानव को प्रकट करने में सक्षम राष्ट्रशिल्पी आचार्य दीदियों का नेतृत्व करना होता है। आज के सामाजिक एवम आर्थिक परिवेश में छात्र एवम समाज समर्पित आचार्य दीदियों का समूह निर्माण करना प्रधानाचार्य के लिए सबसे बड़ी चुनोति होती है। यह सब करने के लिए पहल उसे स्वयं से करनी होती है। हम सब जानते हैं कि व्यक्ति का आचरण बड़े लम्बे एवम दार्शनिक भाषण से कहीं ज्यादा प्रभावकारी होता है।
प्रधानाचार्य को नॉकरी की आत्मघाती मानसिकता से बचना होगा-   अंग्रेजों के समय पनपी यह नॉकरी की मानसिकता अत्यंत विचित्र है। हम अपने घर मे मजदूर लगाते हैं तो उससे बहुत कुछ चाहते हैं और हम कहीं काम करते हैं तो हमारी दृष्टि ओर तर्क पूर्णतः बदल जाते हैं। नॉकरी की मानसिकता में दोनों कर्मचारी और मालिक एक दूसरे को चकमा देने में दिमाग लगते रहते हैं। वास्तव में अंग्रेजों के समय क्योंकि हमें अंग्रेजों की नॉकरी करनी पड़ती थी और अंग्रेज से लोग नफरत करते थे इसीलिए उनके प्रति हमारी मानसिकता विकृत होना स्वभाविक ही था। उस स्थिति में हम अंग्रेजों को छकाने और अंग्रेज  हमारा खून चूसने पर स्वयं को शाबाशी देता था। हमें यह स्वीकार करना ही होगा कि स्वतन्त्रता के इतने वर्षों बाद भी इस नॉकरी की मानसिकता से ऊपर न उठ पाने से हमारा बहुत अहित हुआ है। नॉकरी में व्यक्ति अपनी शारीरिक , मानसिक एवम बौद्धिक प्रतिभा का सीमित ( जितने कम से कम से काम चल जाए) ही उपयोग करता है। इस सोच का उस व्यक्ति की प्रगति पर भी नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। ऐसा व्यक्ति जीवन भर भाग्य, भगवान  और मालिक को कोसने में ही अपनी प्रतिभा का उपयोग करता रहता है। और अपने पिछड़ने के लिए सारी कायनात को ही दोषी ठहराता रहता है। दुर्भाग्य से आजादी के बाद भी शासन और नियोक्ता के प्रति हमारी मानसिकता नहीं बदली। हमारे देश मे कम्युनिष्टों ने इस सोच को और हवा पानी दिया। सरकारी नॉकरी लगते ही व्यक्ति कर्तव्य भूल कर अधिकारों की पिटारी खोल कर बैठ जाता है। परिणामस्वरूप धीरे धीरे सरकारी क्षेत्र सब जगह घाटे में जाने लगा, मजबूर हो कर सरकार को सब जगह से अपने हाथ खींचने पड़े। कम्युनिस्टों द्वारा प्रेरित अधिकारों की रट लगाने वाला सामान्य व्यक्ति बेचारा फिर निजी क्षेत्र में शोषण की भेंट चढ़ गया। स्थिति न्यूनाधिक 'न खुदा ही मिला न बिसाले सनम... ' वाली ही हुई। कर्मचारी और नियोक्ता दोनों को समग्रता से सोचना होगा। दोनों को समझना होगा कि एक दूसरे के बिना दोनों अधूरे हैं।
युग परिवर्तनकारी प्रधानाचार्य बनने में सहायक विंदु- वैसे तो सफल प्रधानाचार्य बनना एक लंबी साधना का परिणाम है। इसके लिए कोई शॉर्टकट नहीं हो सकता तो भी कुछ विंदु इसमे सहायक अवश्य हो सकते हैं।  प्रधानाचार्य अपनी साधना का प्रारम्भ विद्यालय में सबसे पहले आना और सबसे बाद विद्यालय छोड़ने से कर सकता है। सभी आचार्य/दीदियां तथा अन्य सहयोगी कर्मचारी टीम के रूप में कार्य करें इसके उसे प्रेरणा का केंद्र बनना होता है। उसे विद्या मंदिर परिवार प्रमुख के रुप में सभी का मन जीतना होता है। सफल प्रधानाचार्य का सहयोगी टीम के मन मे सम्मानमिश्रित भय रहना आवश्यक है। प्रत्येक छात्र के जीवन मे रुचि लेना और अभिभावकों  से निरन्तर सम्पर्क में रहना प्रधानाचार्य को बल प्रदान करता है। विद्या मंदिर एवम छात्र विकास के लिए निरन्तर प्रयासरत रहना , नए नए प्रयोग करते रहना सफल प्रधानाचार्य के लिए अत्यंत आवश्यक है। विद्या मंदिर को समाज जागरण एवम समाजिक चेतना का केंद्र बनना आवश्यक होता है। अपनी प्रशंसा स्वयं करने से बचते हुए अपने कार्यों को बोलने देना चाहिए। प्रधानाचार्य के बहुविध कार्यों के योग्य सम्पादन के लिए उसे कल्पक, योजक एवम कुशल प्रशासक बनना होता है। दैनिक, साप्ताहिक एवम मासिक कार्यों की सूची बना कर उनके  सम्पादन पर केंद्रित करना होता है। विद्यालय के कलेंडर पर नजर जमाए रखनी पड़ती है। समाज से योग्य, प्रतिभा सम्पन्न एवम प्रतिष्ठित लोगों को छात्रों के समक्ष निरन्तर लाते रहने से एक ओर जहां छात्रों के समुचित विकास को बल मिलता है वहीं विद्यालय के लिए सहयोगी वर्ग खड़ा होता है।  प्रबन्ध समिति से तालमेल बैठाना प्रधानाचार्य की कुशलता का परिचायक होता है।
लक्ष्य समर्पित जीवन सफल प्रधानाचार्य के लिए पूर्व शर्त-  लक्ष्य समर्पित व्यक्ति के लिए कुछ भी असम्भव नहीं होता। संघ संस्थापक पूज्य डॉक्टर हेडगेवार कहते थे कि हम महान लक्ष्य को समर्पित साधारण लोग हैं। महान लक्ष्य कब हम में महानता के अंश उतपन्न कर देता है हमें भी पता नहीं चलता।' यह सत्य भी हमें स्वीकरना होगा कि हमारे समाज के अन्तःकरण मे ' सेवा परमो धर्मों'  की धारणा अत्यंत गहरी बैठी है। समाज समर्पित जीवन जीने वाले आचार्य व प्रधानाचार्य आज भी समाज जीवन को दिशा देने में सक्षम हैं और दिशा दे भी रहे हैं। विद्या भारती की पाठशाला से निकले सैकड़ों प्रधानाचार्य आज राष्ट्र एवम समाज जीवन को दिशा दे ही रहे हैं। विद्या भारती सृष्टि के बाहर भी अनेक प्रधानाचार्य समाज और राष्ट्र जीवन के लिए श्रद्धा, आशा व विश्वास का केंद्र बने हुए हैं। यह सब उनकी लम्बी साधना के फलस्वरूप ही हो सका है।  ऐसा विराट व्यक्तित्व पाने के लिए  प्रधानाचार्य को अपने कार्य को सही अर्थों में (अक्षरशः ) पूजा मानना होगा। एक बार दृष्टि बदली तो फिर सारा परिदृश्य बदल जाता है। किसी ने ठीक ही तो कहा है- नजरें बदली तो नजारे बदल गए, किश्ती बदली तो किनारे बदल गए। प्राचीन काल मे  हमारे प्रधानाचार्य केवल विद्यालय ही नहीं बल्कि पूरे समाज के प्रमुख व आदरणीय हुआ करते थे। और हमें यह समझना होगा कि यह आदर उनके विराट व्यक्तित्व के कारण ही प्राप्त था। राजा भी उनसे समय ले कर मिला करते थे। लोग घर परिवार, नॉकरी से लेकर जीवन की सब समस्याओं के हल के लिए प्रधानाचार्य की ओर देखते थे। आज प्रधानाचार्य को वह 'सम्मानजनक'  स्थान प्राप्त करना ही होगा केवल अपने लिए नहीं बल्कि समाज के स्वस्थ एवम दीर्घ जीवन के लिए यह अत्यंत आवश्यक है। वर्तमान में समाज मे जितनी भी समस्याएं या परेशानियां - जैसे बलात्कार, भृष्टाचार, टूटते परिवार या तेजी से फैलते वृद्धाश्रम ये सब मां की गोद, अध्यापक की कक्षा या सन्यासी की ध्यान साधना की असफलता ही तो है। इन सबको  ठीक करने की शुरुआत हमारे अध्यापक को छात्र की अंगुली पकड़ कर जीवन के नए पाठ नई पद्धति से पढ़ाने से करनी होगी। क्योंकि मां, सन्यासी, राजनेता से लेकर जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में अच्छा या खराब प्रदर्शन करने वाले लोग हमारे अध्यापकों के व्यक्तित्व का विस्तार या प्रकटीकरण मात्र ही तो है।

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