सोचा था कि हाकिम से करेंगे शिकायत। कमबख्त वो भी तुझे चाहने वाला निकला।। आखिर इस्लामिक आतंकवाद की शिकायत कहां और किस से की जाए? आए दिन अख़बारों और सोशल मीडिया में इस्लामिक आतंकवाद की खबरें और फ़ोटो देख कर मन दहल जाता है, अत्यंत बेचैन हो जाता है। हैरानी और निराशा यह देख कर और बढ़ जाती है कि भारत और विश्व में मानवाधिकार के झंडाबरदार हों या महिला अधिकार के चैम्पियन सब मुंह में ताला लगा कर बैठे हैं। जब भारत में असहिष्णुता आदि का बिना बजह का शोर मचाने वाले या पुरष्कार लौटाने वाली गैंग भी जब रहष्यमयी चुप्पी धारण कर लेती है तो उनकी नोटँकी, दोगलापन और एक बड़े षड्यंत्र की गन्ध आना स्वाभाविक ही है। आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता, यह प्रवचन सुनते सुनते कान पकने लग गए हैं। ये ठीक है की सारे मुसलमान आतंकवादी नहीं होंगे या इस्लाम केवल आतंकवाद नहीं सिखाता होगा लेकिन यह तो पक्का है कि इस्लाम और इस्लामिक नेतृत्व जिहाद के नाम पर गैर मुस्लिमों के साथ विशेषकर महिलाओं और बच्चों के साथ क्रूरता और नीचता की हद को छू लेता है। और इस सब में उन्हें किसी प्रकार का पछतावा या दुःख आदि न होकर सन्तुष्टि जैसी ही होती है। फर्क इतना है कि इस्लामिक नेतृत्व को लोकलाज के चलते कहीं दबी जुबान से विरोध करना पड़ता लेकिन बहुत जगह तो मानवता की सारी सीमा और संवेदनाएं पार कर इन पाषणयुगीन कृत्यों को खुला समर्थन देने से भी गुरेज नहीं करता।
धर्म के नाम पर सनकीपन- क्या महिलाओं और बच्चों के विरुद्ध नीचता की हद तक उतर कर अमानवीय ढंग से अत्याचार, सेक्स स्लेव परम्परा आदि किसी धर्म का हिस्सा हो सकता है? थोड़ी देर के लिए मानव की पाशविक वृतियों के चलते दूसरी औरतों से जबरदस्ती सेक्स को स्वीकार भी लें तो भी सामूहिक दुष्कर्म और इतना ही नहीं तो उसके बाद उनकी निर्मम हत्या को क्या कहेंगे? इसके साथ ही बच्चों की निर्मम हत्याओं को सनकीपन नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे? ऐसा लगता है कि इस्लाम की आड़ में मनुष्य रूप में राक्षस वृतियां खुल कर अपना तांडव कर रही हैं। पागल कुत्ते की तरह इन दुष्प्रवृत्तियों को सख्ती से उनकी भाषा में बोलकर अर्थात निर्दयी हो कर (डॉक्टर की तरह जो मरीज के भले के लिए अपना मन पक्का कर ब्लेड से चीरफाड़ करने में गुरेज नहीं करता) समाप्त करने के सिवाए कोई मार्ग नहीं है। कई बार तो इस्लामिक आतंकवादियों से भी ज्यादा अपराधी मुझे कथित सभ्य समाज दिखता है जो मौन धारण किए बैठा है। हम कवि की उस वाणी को क्यों भूल रहे हैं
मत समझो कि पाप का भागी केवल व्याध।
जो चुप हैं समय लिखेगा उनका भी अपराध।। हरिसिंह नलवा और बन्दा बहादुर ही इस्लामिक आतंकवाद का सही उत्तर होगा।
भारत को इस्लामिक आतंकवाद के सफाए का नेतृत्व करना होगा- क्योंकि भारत ने सदियों तक इस्लामिक आतंकवाद के विरुद्ध लगभग एक हजार साल का लम्बा संघर्ष किया है। आज जहां इस्लामिक आतंकवाद को याद कर हम सिहर उठते हैं वहीं हमारे प्रतिकार को स्मरण कर इस्लाम के कथित झंडाबरदारों की रूह भी काम्प उठती है। गुरु गोबिंदसिंह, छत्रसाल, छत्रपति शिवजी, महाराणा प्रताप बन्दा बहादुर और हरिसिंह नलवा के रूप में इस्लामिक आतंकवाद से लोहा लेने का हमारा अच्छा अनुभव है। मुसलमान कवि का दर्द भारत के असीमित साहस और शक्ति को स्मरण दिलाता है-
वो दीने इलाही का बेबाक बेड़ा न काबुल में अटका, न........
वो डूबा दहाने गंगा के आकर।।
इस्लाम की जिस आंधी ने पूरे विश्व को पैरों तले रौंद दिया, देश के देश डकारने वाला इस्लाम भारत में घुटने टेकने को बेबश हो गया था। युद्ध के नशे में चूर एक इस्लामिक बहादुर! की आप बीती भी कम रोचक नहीं है जो भारतीय वीरों से पाला पड़ते ही युद्ध का जिक्र चलने मात्र से हाय अल्लाह, हाय अल्लाह चिलाने लग पड़ता था। युद्ध में उसका भूत एक ही तलवार के बार से उतर गया था। युद्ध की बात चलने पर बार बार अपने पैरों को चूमता था कि इन्हीं पैरों की बाबत युद्ध से जान बचा कर भाग सका था। हमारी जबरदस्त आंतरिक प्रतिरोधक और सर्व समावेशक शक्ति के चलते युद्ध के साथ-साथ सांस्कृतिक मोर्चे पर भी इस्लाम भारतीय रंग में रँगने लग गया था। हमने रहीम, रसखान जैसे अनेक भारत भक्त लोगों की लम्बी श्रृंखला पैदा कर दी थी। भारत को शायद अभी और दुःख सहन करने होंगे इसलिए ठीक उसी समय अंग्रेज आ टपका नहीं तो इस्लामिक कट्टरता को हमने नकेल डाल ली थी। इस्लामिक कट्टरता के खिलाफ इस लम्बे और सफल संघर्ष के कारण लगता है इस्लामिक कट्टरता के सांप फन को कुचलना यह इंग्लैंड अमेरिका के बस की बात नहीं है। इन पर तो यह उक्ति ठीक बैठती है-
न उठी थी खंजर न उठेगी इनसे
ये बाजू मेरे अजमाए हुए हैं।
इस्लामिक आतंकवाद से संकट में पड़ रहे मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए भारत को ही आगे आना होगा। आवश्यकता राष्ट्र के रूप में फ्रांस और जापान की तरह सही सोच और स्पष्ट लक्ष्य की है। विश्व के प्रति हमें अपने दायित्व को लेकर हम मौन और तटस्थ नहीं बैठ सकते। इस्लामिक आतंकवाद के विरुद्ध सम्पूर्ण विश्व को लामबंद करना होगा। सन्तोष का विषय है कि वर्तमान भारत सरकार ने इस दिशा में धीरे धीरे लेकिन गम्भीर प्रयास प्रारम्भ कर दिया है। जापान, इजरायल की यात्रा, बराक ओबामा और अब फ्रांस के राष्ट्रपति श्री ओलांद से दोस्ती को विकास के साथ साथ इस्लामिक आतंकवाद के विरुद्ध धार देने की दिशा में गम्भीर प्रयास के रूप में देखा जा सकता है।
शनिवार, 30 जनवरी 2016
क्रूर इस्लामिक आतंकवाद के आगे विश्व असहाय क्यों! निर्दोष महिला और बच्चों को बचाने आगे आना होगा
शुक्रवार, 29 जनवरी 2016
अभिभावक अपने बच्चों के लिए कैसे खोजें उचित विद्यालय?
फरबरी आते आते अपने बच्चों को अच्छे विद्यालय में दाखिल कराने को लेकर अभिभावकों की धड़कन बढ़नी शुरू हो जाती है। अपने स्वप्न के विद्यालय में बच्चे के प्रवेश के लिए सारे सम्भव नैतिक अनैतिक माध्यमों का प्रयोग करने को भी उद्यत रहते हैं। बच्चे को उनकी पसन्द के विद्यालय में प्रवेश मिल पाएगा की नहीं यही चिंता उन्हें खाए जाती है। ऐसा लगता है जैसे कि अपनी कल्पना के विद्यालय में बच्चे के प्रवेश मात्र से उन्होंने बच्चे का उज्ज्वल भविष्य सुरक्षित कर लिया। जबकि सब जानते हैं कि जीवन में सफलता बहुत आगे की बात होती है और वह कई अन्य बातों पर भी निर्भर करती है। आज प्रायः हर अभिभावक अपने बच्चों के लिए सर्वोत्तम विद्यालय खोजने में परेशान दिखाई देता है। इसके साथ ही आज विद्यालय भी अच्छे बच्चों और अभिभावकों की तलाश में परेशान दीखते हैं। दोनों को एक दूसरे से पर्याप्त शिकायतें रहती हैं। कहने की आवश्यकता नहीं कि अपना विश्लेषण न करने के कारण दोनों परस्पर एक दूसरे की कमियां निकालते रहते हैं। और इस कारण दोनों की ही तलाश कभी पूरी नहीं होती। और इस कारण दोनों से सन्तुष्टि कोसों दूर रहती है। इस निराशा, खीज और असन्तुष्टि का बड़ा कारण आप अच्छा या सर्वश्रेष्ठ विद्यालय या योग्य अभिभावक मानते किसको हैं, इस प्रश्न के उत्तर में छिपी है। अभिभावक विद्या मन्दिर में क्या तलाशें इस विषय पर चिंतन करेंगे।
अभिभावक क्या ढूंढें विद्या मन्दिर में-
अभिभावक के रूप में अपने बच्चे के लिए सबसे बढ़िया विद्यालय खोजना हर व्यक्ति की चाहत होना स्वाभावविक है। लेकिन अच्छे विद्यालय का आधार क्या रहता है और क्या रहना चाहिए, यह यक्ष प्रश्न है। आज शिक्षा जगत में बाज़ारवाद खुलकर खेलता देखा जा सकता है। शिक्षा क्षेत्र में बड़े घराने उतर आ जाने से यह गलाकाट प्रतियोगिता अपने पूरे उफान पर है। अधिकांश अभिभावक विद्यालयों की चकाचौन्ध में खो जाते हैं। वे भूल जाते हैं कि यह सारा मायाजाल उनकी जेब से गए या जाने वाले पैसे का चमत्कार है। इससे भी बड़ी बात बच्चे की शिक्षा के स्तर का एसी बस, कमरे आदि का को खास सम्बद्ध नहीं है। अभिभावक होने के नाते बच्चे की सुख सुविधा को लेकर चिंता करना ठीक है लेकिन इसके साथ ही हमें विचार करना होह कि बच्चे को अंदर से मजबूत बनाना है या छईमुई बना कर जीवन संग्राम के लिए तैयार करना है। हमे अपनी प्राचीन शिक्षा व्यवस्था जहां राजा और र्नक सभी के बच्चे गुरुकुल में समान सुविधाओं में समान शिक्षा प्राप्त करते थे। हमें याद रखना होगा कि जीवन माँ की गोद की तरह मुलायम नहीं है। इसे सफलता पूर्वक पार करने के लिए बालक को शरीर मन बुद्धि और आत्मा से मजबूत होना आवश्यक है। दुःख का विषय है कि छात्र के विकास के इस महत्वपूर्ण पक्ष की ओर न विद्यालय का और न ही अभिभावकों का ध्यान या प्राथमिकता है। घर और स्कूल सब जगह पढ़ाई पढ़ाई और पढ़ाई! छाई रहती है। अभिभावकों को इस तथ्य को विस्मरण नहीं करना चाहिए कि स्वस्थ शरीर और मन में ही बच्चे का भविष्य सुखद और सुरक्षित है।
शिक्षा के साथ संस्कारक्षम वातावरण हो प्राथमिकता-
आज अधिकांश अभिभावक और विद्यालय बच्चों को गणित, विज्ञान या अंग्रेजी को रटाने को ही शिक्षा समझने लगे हैं। जबकि प्रायः सभी शिक्षा शास्त्री मानते हैं कि बच्चे को शिक्षा के प्रति लगॉव, खेल, व्यायाम तथा नैतिक मूल्य पैदा हो जाने के बाद उचित समय पर इन विषयों में विद्यार्थी स्वयं प्रगति कर लेता है। छात्र का व्यक्त्तिव विकास विद्यालयों और अभिभावकों की प्राथमिकता होनी चाहिए। इसके बिना अगर बालक औपचारिक अध्ययन से बड़ा अफसर बन भी गया तो समाज और परिवार के लिए सरदर्द ही बनेगा। आज अधिकांश भरष्टाचारी, आतंकवादी और बड़े अधिकारी अपने शैक्षिक कैरियर में तो सबसे आगे ही थे। घर या विद्यालयों में सम्पूर्ण व्यक्त्तिव का विकास न होने के कारण आज अधिकांश डॉक्टर, इंजीनियर या प्रशासनिक अधिकारी व्यक्तिगत जीवन में अब्बल दर्जे के स्वार्थी, नशेड़ी और नैतिक मूल्यों से दूर होते हैं। जिन माता पिता ने कभी उनके अच्छे अंक प्राप्त कर सफलता के शिखर छूने पर मिठाई बांटी होती है वही जब
वृद्ध आश्रम की ओर रुख करते हैं तो उनके मन पर क्या बीतती होगी? आखिर इसमें दोष किसका है? यहां तो 'बोए पेड़ बबूल के तो आम कहां से आएं... कहावत ठीक बैठती है। केवल कलियुग, आधुनिक वातावरण को दोष देकर समस्या का हल नहीं मिल सकता। हमें याद रखना होगा कि अपने शिशु के लिए विद्यालय का चययन और वृद्व आश्रम में अपने कमरे की बुकिंग का सीधा सम्बद्ध है। इसलिए औपचारिक शिक्षा के अतिरिक्त भारतीय संस्कार, बच्चों में देश समाज के प्रति संवेदना तथा कुछ करने का जज्बा पैदा करने में प्रयासरत विद्यालय को ही अपने बच्चे के लिए चुनना चाहिए। इसके लिए हमें अपने बच्चों के लिए सर्वहितकारी (विद्या भारती), डीएवी, तथा सामाजिक संस्थाओं द्वारा संचालित विद्यालय या भारतीय संस्कृति को आधार बना कर शिक्षा देने को कटिबद्ध निजी विद्यालयों को प्राथमिकता देनी होगी। कॉन्वेंट या कॉन्वेंट पैटर्न पर पाश्चात्य संस्कारों में उन्हें मात देने में लगे निजी विद्यालयों से बचना चाहिए। याद रखें कि अपने बच्चे के लिए अच्छे विद्यालय का चययन बच्चे के साथ साथ हमारे अपने सुखद भविष्य का आधार बनने वाला है। ऊंचीं फ़ीस, बाहरी चकाचौन्ध में बहने वाले हमारे अभिभावकों को अमेरिका के प्रथम राष्ट्रपति अब्राहिम लिंकन का अपने बेटे के प्रिंसिपल को लिखा पत्र अवश्य पढ़ लेना चाहिए।