लगता है भारत कर विजय रथ अब रुकने वाला नहीं है ।स्वामी विवेकानंद ,महाऋषि अरविन्द आदि अनेक युग नायको की भविष्य्बानी सच होती जा रही है । सब बाधाओं को पार कर अपना भारत महा शक्ति के रूप में उभरता जा रहा है । बीच-२ में घटने वाली घटनाएँ हमारे विस्वास को मजबूत कर जातीं हैं । इस दृष्टि से दो घटनाक्रम उलेखनीय हैं । जिस ईस्ट इंडिया कंपनी ने व्यापार के नाम पार भारत में प्रवेश किया और फिर धोखे से इस महान देश को गुलाम बना लिया । आज वही ईस्ट इंडिया कंपनी भारत के चरणों में ओंधे मुंह गिरी पड़ी है । संजीव मेहता नाम के हमारे प्रतिभाशाली नोजवान ने उस अहंकारी कंपनी को खरीद लिया है । यह हमारे क्रान्तिकारियो को सम्पूरण देश की छोटी सी श्रधान्जली है । इसी प्रकार एक समय के ग्रेट ब्रिटन कहलाने वाले इंग्लॅण्ड के पूर्व प्रधानमंत्री अब हमारे यहाँ नौकर हैं । सन माइक्रोसिस्टम के संस्थापक भारतीय मूल के उद्योगपति विनोद खोसला ने इंग्लॅण्ड के पूर्वप्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर को अपनी कंपनी "खोसला चम्बेर्स" में नौकर पर रख कर एक और राष्ट्रीय अपमान का बदला लिया है । भारत के विजय रथ के अस्वमेघ के घोड़े को रोकने की सामर्थ्य अब किसी में नहीं है । भारत के वीर सपूतों को बहुत बहुत बधाई ।
गुरुवार, 27 मई 2010
सोमवार, 24 मई 2010
जहाँ हृदय की विशालता के आगे बौनी हो जाती है गरीबी
अपने प्रवास में अनेक प्रकार के अनुभव आते रहते हैं । कई बार समाज में चहूँ और व्याप्त आर्थिक असमानता को देख कर मन बेचैन हो उठता है । परम पिता परमेश्वर की रचना पर कभी रोष तो कभी हंसी आती है। कोई महलों में जीवन के सब सुखों का भोग करता है तो कोई बेचारा रोटी के लिए संघर्ष करते करते ही जिन्दगी गुज़ार देता है । विधि की एक और बिडंबना ध्यान खींचती है जिनके पास दिल है वहां सामर्थ्य नहीं और जहाँ सामर्थ्य वहां दिल नदारद दीखता है । काश कहीं यह विरोधावास दूर हो जाय तो संसार का नक्शा ही कुछ दूसरा हो । पिछले दिनों संघ शिक्षा वर्ग की तैयारी के सिलसिले में दो अलग अलग दृश्यों ने मन में हलचल पैदा कर दी उसी को आप सबसे साँझा कर रहा हूँ । एक घर में सदस्यों से ज्यादा कमरे और कारें ,सुख समृधि की वर्षा सब देख कर देश में आ रही खुशहाली को लेकर मन प्रसन्न हो उठा । यद्यपि इस परिवार में खुशहाली और दिल दोनों का सुंदर सुमेल है। इसी दिन शाम को दूसरे परिवार में जो देखा उससे प्रसनता की लहरें गायब हो गईं । सब देख कर दिल में एक हूक सी उठी आखिर कब सुख और समृधि इनके दरवाजे पर दस्तक देगी ? एक १०/१२ का कमरा उसी में सारा परिवार , रसोई ,स्नानागार, वच्चों का अध्ययन कक्ष --आखिर कैसे गुजारा चलता होगा ? कैसे बच्चे पढाई करतें होंगे ? यह सब सोच कर मन बेचैन हो गया । परिवार में व्याप्त घोर आर्थिक आभाव का मजाक उड़ाते हुए गृहस्वामिनी बहिन जी के व्यवहार में असली भारत प्रकट होने को व्याकुल दिख रहा था । अपनी सब तरफ से झांकती गरीबी से व्यथित होने के बाद भी सब का भरपूर स्वागत करने की उसकी उत्सुकता व् बेचैन कई कार कोठी वालों को भी शर्मिंदा कर रही थी । वर्ग का खर्चा आदि वताने में हमे संकोच हो रहा था । हमारी दुविधा को भांपते हुए वह तुरंत बोली , ' आप इस का नाम लिख लो पैसे का इंतजाम कर लूंगी । बेटा आईटी पार्क मै दिहाड़ीदार है । "छूटी का क्या ?"पूछने पर बोली ,' सब हो जायेगा । आप चिंता मत करिये ।"इस समय मन में विचार आ रहा था कि इस परिस्थिति में बेटे को नौकरी की कीमत पर केम्प में भेजना क्या किसी माँ का बेटे को युद्ध में तिलक कर भेजने से कम है ? एक और शंका का उत्तर मिल गया कि आखिर अधिकांश महापुरुष झोंपड़ों में ही क्यों जन्म लेतें हैं ? लेकिन इस का अर्थ देश में महापुरुष ज्यादा पैदा हों इसलिए झोंपडिओं की संख्या बढाना नहीं है बल्कि झोंपड़ी की उदारताऔर अन्य मानवीय मूल्यों को महल तक पंहुचाने की है .
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