दिल्ली विधान सभा चुनाव परिणामों ने भाजपा ही नहीं बल्कि देश और विश्व के राजनीति के पण्डितों को भी हिला कर रख दिया है। आप और उसके नेता भी अपनी इस अप्रत्याशित सफलता से हैरान और परेशान हैं। दिल्ली के मुख्यमन्त्री श्री केजरीवाल ने शपथ लेने के तुरन्त बाद कहा भी कि लोग हमें प्यार करते हैं यह तो पता था लेकिन इतना ज्यादा करते हैं यह मालूम नहीं था। अब क्योंकि परिणाम आए पर्याप्त समय हो चुका है, धूल छंट चुकी है, मोदी और भाजपा को पर्याप्त गालियां और उपदेश दिए जा चुके हैं। जीतने वाले खुशियाँ मन चुके हैं तो हारने वाले गम से बाहर आ रहे हैं इसलिए अब निष्पक्ष विश्लेषण किया जा सकता है। क्या मोदी और भाजपा सरकार का हनीमून समाप्त हो गया है? क्या दिल्ली विधान सभा की हार भाजपा के प्रति जनता के अविश्वास का सूचक है? क्या यह भाजपा नेतृत्व की अक्षम्य! गलतियों की सजा है? यद्यपि अधिकांश मीडिया में यही पक्ष सामने आया है लेकिन सच्चाई इससे कहीं विपरीत लगती है। जिस प्रकार सड़क या रेलवे दुर्घटना केवल आपकी गलती के कारण नहीं होती बल्कि दूसरे चालक या कई बार तो तीसरे के कारण भी हो जाती है। इसलिए इस हार के कारण भाजपा को निर्ममतापूर्वक कठघरे में खड़ा कर देना थोड़ी जल्दबाजी हो जायेगी। विचार का विषय है कि हरियाणा, झारखण्ड तथा जम्मू कश्मीर के चुनावों तक जो नेतृत्व अचूक था क्या दिल्ली में चूकने मात्र से चूक गया मान लिया जाना चाहिए? क्या यह मान लें कि मोदी विरोधियों के अच्छे दिन शुरू हो रहे हैं?
मोदी विरोधियों की ख़ुशी कब तक
मोदी विरोधी ही नहीं बल्कि भारत विरोधी तत्व भी मोदी के विजय रथ के रुक जाने से फूले नहीं समा रहे हैं। भारत में एक दूसरे को फूटी आँख न देखने वाले राजनेता कुर्सी की लुप्त हो चुकी सम्भावना फिर जागृत हो जाने की कल्पना मात्र से एक दूसरे के गले मिल रहे हैं। लेकिन मोदी की राजनैतिक समझ, अनुभव और राष्ट्र समर्पित नेताओं और कार्यकर्ताओं की कई दशकों की तपस्या, तथा कार्यकर्ताओं की अखण्ड श्रृंखला को देख कर तो लगता है कि विरोधियों की ख़ुशी ज्यादा नहीं टिक पायेगी। देश में मोदी को लेकर आकर्षण कहीं कम होता नहीं दिख रहा है। दिल्ली हार से सोशल मीडिया में आ रही प्रतिक्रियां भी इस बात का सूचक हैं। एक प्रतिक्रिया देखिए- शेर के पैर में कान्टा चुभ जाए तो इसका मतलब कतई नहीं कि अब ---- राज करेंगे! जहां तक आप और श्री केजरीवाल का मामला है तो स्पष्ट है यह जीत लहर की सवारी से अधिक कुछ नहीं है। यह स्वीकार करना चाहिए कि इस बार श्री केजरीवाल जनता को स्वप्न बेचने में सफल हो गए हैं। श्री केजरीवाल दिल्ली में सफल हों, जनता को लोकहितैषी सरकार देने में कामयाब हों तो अच्छी बात है। लेकिन यहां एक विषय की ओर ध्यान देना आवशयक है कि कांग्रेस की कुर्सी के लिए 'सब कुछ मुफ़्त' की जिस आदत ने देश को रसातल पर पहुंचा दिया केजरीवाल उसी कुर्सीपरस्त राजनीति के पदचिन्हों पर चल कर दिल्ली को कहाँ पहुंचा देंगे? कहते हैं कि बाँटने लगें तो कुबेर का खजाना भी खाली हो जाता है फिर केजरीवाल ने तो केंद्र से मांग-2 कर आगे सुविधाएँ मुफ़्त बांटनी हैं। मुफ्तखोरी का यह सिलसिला कब तक चलेगा? श्री केजरीवाल जनता को दिन में स्वप्न दिखा कर बरगलाने के बजाए परिश्रम करने और न्यूनतम दरों पर सुविधाएँ देने की बात करने की हिम्मत दिखाते तो उनके नेतृत्व की ठीक पहचान होती। केजरीवाल जानते होंगें कि शिखर पर पहुंचने से ज्यादा कठिन शिखर पर टिके रहना होता है। और उस स्थिति में और भी कठिन हो जाता है जब आपने उस शिखर पर पहुंचने के लिए गंजों को कंघियां बेचीं हों। ठगे जाने के आक्रोश में वे आपको भी गंजा करने में कितनी देर लगाएंगे? आप अभी कोई राजनैतिक दल नहीं है यह एक लहर की उपज है। लहर आते समय जितना कुछ लाती है जाते समय उससे अधिक ले भी जाती है। जनता का ऐसा प्यार भालू के प्यार की तरह होता है। प्यार के लिए उठा हर हाथ आपको लहूलुहान कर के ही छोड़ेगा। यह प्यार कब जानलेवा हो जाएगा इसका इसका कुछ अंदाज नहीं हो सकता। जनता के ऐसे अविवेकी प्यार को आक्रोश में बदलते देर नहीं लगती और इस बार केजरीवाल भाग भी नहीं सकेंगे।
लोकतन्त्र में जनता जनार्दन सर्वोच्च होती है राजनैतिक दल के रूप में जनता के निर्णय पर प्रश्न उठाने के बजाए भाजपा को आत्मनिरीक्षण ही करना चाहिए। इसमें निराश होने के बजाए अगर कोई भूल हुई है तो उसे ठीक करते हुए फिर जनता के विश्वास को प्राप्त करने में जुट जाना चाहिए। पार्टी को ईमानदारी से विचार करना होगा कि जो दिल्ली लोकसभा चुनावों में पूरी तरह भाजपा के पीछे आ खड़ी थी आखिर मात्र नॉ महीनों में ऐसा क्या हो गया कि उसी दिल्ली ने भाजपा से पूरी तरह नजरें चुरा ली। इन विधान सभा चुनावों में दिल्ली का भाजपा की ओर से पीठ फेरने की कोई तो बजह होगी! किसी ने कहा भी है
कोई तो बेवशी रही होगी आखिर।
यूँ ही तो कोई बेबफा नहीं होता।।
दिल्ली की इस बेबफाई की जड़ में जाना ही होगा। भाजपा नेतृत्व इस बार कार्यकर्ता और जनता की नब्ज पकड़ने में असफल क्यों रहा यही यक्ष प्रश्न है। श्रीमती किरण बेदी को मुख्यमन्त्री प्रोजेक्ट करने को पुराने जमे नेताओं ने अपने लिए चुनोति तो नहीं मान लिया? श्रीमती बेदी को मुख्यमन्त्री घोषित करने के केजरीवाल के जाल में भाजपा फंस गयी लगती है। हरियाणा झारखण्ड की तरह सामूहिक नेतृत्व का फार्मूला यहां भी सफल रह सकता था। श्री केजरीवाल को मोदी से भिड़ना कठिन लग रहा था इसलिए जैसे ही भाजपा ने बेदी को मुख्यमन्त्री घोषित किया तो आप को मुंह मांगी मुराद मिल गयी। श्रीमती बेदी को मुख्यमन्त्री घोषित करने का यह निर्णय भी बहुत देरी से लिया गया। श्रीमती किरण बेदी के मुख्यमन्त्री उम्मीदवार घोषित होते ही अब तुलना केजरीवाल और मोदी में न हो कर केजरीवाल और बेदी में होने लगी। फिर बेदी से कहीं ज्यादा केजरीवाल जनता से जुड़े थे। इस प्रकार केजरीवाल बेदी और भाजपा पर भारी पड़ने लग पड़े। इसके आलावा कांग्रेस के सिकुड़ते आधार और लालू मुलायम, ममता, मायावती सभी के एक सुर से मोदी विरोध का तोड़ भी भाजपा समय रहते नहीं निकाल पायी। दिल्ली में कोर्पोरेसन में भाजपा नेताओं के व्यवहार को भी आप ने हथियार बनाया। श्री मोदी और भाजपा नेतृत्व के काफी प्रयास के बाद भी नेताओं की सादगी अभी जमीन तक नहीं पहुंच सकी है। इसके आलावा हरियाणा, जम्मू कश्मीर और झारखण्ड की चुनावी गहमागहमी के चलते भी भाजपा दिल्ली पर ज्यादा केंद्रित नहीं कर सकी।
देश की राजनैतिक समझ बढ़ना जरूरी
जवानी के प्यार की तरह जनता के विश्वास का भी कोई तार्किक आधार नहीं होता। प्रसिद्ध विश्लेषक प्रीतीश नन्दी की इस बात में भी बजन है कि दिल्ली में मोदी की हार नहीं हुई है बल्कि केजरीवाल की जीत हुई है। लेकिन श्री केजरीवाल में भी जनता के इतने विश्वास का कारण क्या बना? अपनी सत्ता के 49 दिन में केजरीवाल ने कौन सा चाँद दिल्ली वालों को ला कर दे दिया था? आखिर दिल्ली ने भाजपा को किस खता की सजा दे दी। भाजपा की नई सरकार ने कौन सा कश्मीर पाकिस्तान को दे दिया? कौन से भाजपा नेता बड़े घोटालों में लिप्त पाये गए? फिर दिल्ली का केंद्र सरकार में अविश्वास का कारण क्या है? कहीं दिल्ली ने भाजपा को जरूरत से ज्यादा सजा तो नहीं दे दी? देश में इतने राज्य हैं। सब राज्यों में भाजपा ही शासन करे ये आवशयक नहीं है। अलग अलग दलों की सरकारें रहेंगी ही। लेकिन आज जब सारा विश्व भारत की ओर बड़ी आशा और उत्साह से देेख रहा है, मंहगाई न्यूनतम विंदू पर पहुंच गयी है, काफी समय बाद विकास का पहिया घूमना शुरू हुआ है। चारों तरफ आशा और आत्मविश्वास का वातावरण बना है। आज जब नई सरकार को उसके द्वारा हो रहे राष्ट्रहितैषी कार्यों के लिए समर्थन मिलना चाहिए था, दिल्ली के निर्णय ने देश को निराश किया है। मोदी में कोई कमी नहीं है या मोदी सरकार के जनविरोधी निर्णयों का विरोध नहीं होना चाहिए ऐसा कोई भी नहीं कहेगा। लेकिन दिल्ली के इस निर्णय ने मोदी विरोधियों के हौंसलों को पंख ही नहीं दिए बल्कि देश विरोधी तत्वों में भी जान फूँक दी है। दिल्ली खोने से मोदी का विजय अभियान रुक जाएगा ऐसा नहीं है। तो भी देश और दुनिया में भाजपा समर्थक ही नहीं बल्कि भारत को विश्व की महाशक्ति देखने की इच्छा रखने वाले बड़े वर्ग को इस विजय अभियान में सेंध लग जाने का दुःख तो है ही। कहावत भी है कि बुढ़िया के मरने का दुःख नहीं है। दुःख इस बात का है कि बुढ़िया के बहाने यम ने घर का रास्ता देख लिया। हालाँकि मोदी विरोधियों में ऐसा कोई दम या चमत्कार अभी दूर दूर तक नहीं दिखाई देता तो भी आखिर हर व्यक्ति या सरकार भी जनसमर्थन या शाबाशी की इच्छा रखती ही है। आप भाजपा से सहमत हों या श्री मोदी की कार्यशैली के विरोधी इस समय यह सत्य है कि श्री मोदी के हाथ मजबूत करने का अर्थ देश में आए इस इस नए ज्वार और उभार को मजबूत करना है। हथेली पर सरसों उगाने का हमारा स्वभाव आखिर कब पीछा छोड़ेगा? इतने कम समय में इतने सकारात्मक परिणाम आने शुरू हो गए हैं। लेकिन और अधिक परिणाम के लिए समय तो चाहिए ही है। नई सरकार की नीयत और परिश्रम शक से परे है। नीति और कार्यशैली से सहमति और असहमति हो सकती है। इसलिए नई सरकार जनता से थोडा ज्यादा स्नेह और सहयोग की हकदार लगती है। बहुत दशकों बाद नियति ने देश को यह अवसर प्रदान किया है। आशा भारत नहीं चूकेगा। किसी दल के एक दो चुनाव हारने जीतने से ज्यादा देश का प्रगति के पथ पर तेजी से बढ़ते रहना ज्यादा जरूरी है। बेशक भाजपा रूपी अभिमन्यु को सभी ने मिलकर हर हथकण्डे अपना कर दिल्ली के चुनावी मैदान में धराशायी कर दिया हो लेकिन भाजपा और उसके विरोधियों को याद रखना होगा कि युद्ध अभी समाप्त नहीं बल्कि शुरू ही हुआ है। भाजपा को निराश हताश और विरोधियों को अत्याधिक खुश होने की आवशयकता नहीं है।
मंगलवार, 17 फ़रवरी 2015
क्यों बेबफा हुई भाजपा के लिए दिल्ली?
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